
आज की पीढ़ी अनेक समस्या से घिरी हुई है। आज की जनरेशन रोगों से , मानसिक तनाव, शारीरिक समस्या में जकड़ी हुई हैं। सामाजिक मूल्य को खत्म किया जा रहा हैं। जीवन को भौतिक सुख के नज़रिए से देखा जा रहा है। जिस कारण वश प्राकृतिक आपदा, समस्या, तापमान में बढ़ोतरी, मानसिक विकृति से भरा आज समाज नजर आता हैं। जिसके परिणाम स्वरूप कही जगह पर बादल फटने का प्रकार होता है, तो कही जगह पर सुखा पड़ा रहता है। जैसे मानो प्रतीत होता है प्रकृति ने अपना बैलेंस खो दिया। मानव कुदरत के सामने उंगली खड़ी कर उसे चुनौती दे रहा है। पर्यावरण दिवस सिर्फ कागज पर मनाए जाता है। मां प्रकृति हमे हर समय हमारी मदद करती है। हम उसे धन्यवाद देने की जगह उसे समस्या देने का काम आज मानव जाति के द्वारा हो रहा है। ग्लोबल वार्मिग यह कोई सामान्य समस्या नहीं है। यह बड़ी आपदा के रूप में सामने आई है, इसे सावधान रहकर निपटना चाहिए।
संसार में एक ओर जनसंख्या की वृद्धि हो रही है, दूसरी और कारखाने और उद्योग-धंधे बढ़ रहे हैं। इन दोनों ही अभिवृद्धियों के लिए पेयजल की आवश्यकता भी बढ़ती चली जा रही है। पीने के लिए, नहाने के लिए, कपड़े धोने के लिए, रसोई एवं सफाई के लिए हर व्यक्ति को, हर परिवार को पानी चाहिए। जैसे-जैसे स्तर ऊँचा उठता जाता है, उसी मात्रा से पानी की आवश्यकता भी बढ़ती है। खाते-पीते आदमी अपने निवास स्थान में पेड़-पौधे, फल-फूल, घास-पात लगाते हैं, पशु पालते हैं। इन सबके लिए पानी की माँग और बढ़ती है। गर्मी के दिनों में भी ज्यादा छिड़काव के लिए पानी चाहिए।
कारखाने निरंतर पानी माँगते हैं। जितना बड़ा कारखाना उतनी बड़ी पानी की माँग । भाप पर चलने वाले थर्मल पॉवर प्लांट तथा दूसरी मशीनें पानी की अपेक्षा करती हैं। संशोधन और शोध संस्थान में भी ढेरों पानी की मात्रा का उपयोग प्रयोग के लिए होता है। शहरों में फ्लश , सीवर लाइनें तथा नाली आदि की सफाई के लिए अतिरिक्त पानी की जरूरत पड़ती है। कृषि और बागवानी का सारा दारोमदार ही पानी पर ठहरा हुआ हरियाली एवं वन संपदा पानी पर ही जीवित हैं। पशु पालन में बिना पानी के चल नही सकता। चारा-पानी अनिवार्य रूप में चाहिए और भी न जाने कितने ज्ञात-अज्ञात आधार हैं, जिनके लिये पानी की निरंतर जरूरत पड़ती हैं।

यह सारा पानी बादलों से मिलता है। पहाड़ों पर जमने वाली बर्फ, जिसके पिघलने से नदियाँ बहती हैं, वस्तुतः बादलों का ही अनुदान है। सूर्य की गर्मी से समुद्र द्वारा उड़ने वाली भाप बादलों के रूप में भ्रमण करती है। उनकी वर्षा से नदी-नाले, कुएँ, तालाब, झरने-बहने लगते है। उन्हीं से उपरोक्त आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ वृक्ष वनस्पतियों की, अन्न, शाक, पशु वंश की जो वृद्धि होती चली जा रही है, उसने पानी की माँग को पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ा दिया है। यह माँग दिन-दिन अधिकाधिक उग्र होती जा रही है। बादलों के अनुदान से ही अब तक सारा काम चलता रहा है। सिंचाई के साधन नदी, तालाब, कुँओं से ही पूरे किये जाते हैं। इनके पास जो कुछ है, बादलों की ही देन है। स्पष्ट है कि बादलों के द्वारा जो कुछ दिया जा रहा है, वह आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कम पड़ता है। संसार भर में पेयजल अधिक मात्रा में प्राप्त करने की चिंता व्याप्त है, ताकि मनुष्यों की पशुओं की, वनस्पतियों की, कारखानों की आवश्यकता को पूरा करते रहना संभव बना रहे।
बादलों पर किसी का नियंत्रण नहीं। वे जब चाहें जितना पानी बरसायें। उन्हें आवश्यकता पूरी करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। वे बरसते भी हैं, तो अंधाधुंध बेहिसाब। वर्षा में वे इतना पानी फैला देते हैं कि पृथ्वी पर उसका संग्रह कर सकना संभव नहीं होता और वह बहकर बड़ी मात्रा में समुद्र में जा पहुँचता है। इसके बाद शेष आठ महीने आसमान साफ रहता है। गर्मी के दिनों में तो बूँद-बूँद पानी के लिए तरसना पड़ता है। इन परिस्थितियों में मनुष्यों को जल के अन्य साधन-स्रोत तलाश करने के लिए विवश होना पड़ रहा है, अन्यथा कुछ ही दिनों में जल संकट के कारण जीवन दुर्लभ हो जायेगा। गंदगी बहाने, हरियाली उगाने और स्नान-रसोई के लिए भी जब पानी कम पड़ जायेगा, तो काम कैसे चलेगा ? कारखाने किसके सहारे अपनी हलचल जारी रखेंगे ?
अमेरिका की आबादी लगभग तीस करोड़ है। वहाँ कृषि एवं पशुपालन में खर्च होने वाले पानी का खर्च प्रति मनुष्य के पीछे प्रतिदिन तेरह हजार गैलन आता है। घरेलू कामों में तथा उद्योगों में खर्च होने वाला पानी भी लगभग इतना ही बैठता है। इस प्रकार वहाँ हर व्यक्ति के पीछे २६ हजार गैलन पानी की नित्य जरूरत पड़ती है। यहाँ की आबादी विरल और जल स्रोत बहुत हैं, तो भी चिंता की जा रही है, कि आगामी शताब्दी में पानी की आवश्यकता एक संकट के रूप में सामने प्रस्तुत होगी। भारत की आबादी अमेरिका की तुलना में लगभग तीन गुनी अधिक है, किंतु जल साधन कहीं कम हैं। बड़े शहरों में अकेले मुंबई को ही लें, तो वहाँ की जरूरत 40 करोड़ गैलन हो पाती है। यही दुर्दशा न्यूनाधिक मात्रा में अन्य शहरों की है। देहाती क्षेत्र में अधिकांश कृषि उत्पादन वर्षा पर निर्भर है। जिस साल वर्षा कम होती है, उस साल भयंकर सूखे का सामना करना पड़ता है। मनुष्यों और पशुओं की जान पर बन आती है। यदि इन क्षेत्रों में मानव उपार्जित जल की व्यवस्था हो सके, तो खाद्य समस्या का समाधान हो सकता है।
नये जल-आधार तलाश करने में दृष्टि समुद्र की ओर ही जाती है। धरती का दो-तिहाई से भी अधिक भाग समुद्र से डूबा पड़ा है; किंतु वह है खारा। जिसका उपयोग उपरोक्त आवश्यकताओं में से किसी की भी पूर्ति नहीं कर सकता। इस खारे जल को पेय किस प्रकार बनाया जाय, इसी केंद्र पर भविष्य में मनुष्य जीवन की आशा इन दिनों केंद्रीभूत हो रही है। इस संदर्भ में राष्ट्रसंघ ने एक आयोग नियुक्त किया था, जिसने संसार के ४६ प्रमुख देशों में दौरा करके जल समस्या और उसके समाधान के संबंध में विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इस रिपोर्ट का सारांश राष्ट्रसंघ ने प्रगतिशील देशों में खारे पानी का शुद्धीकरण’ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है, जिसमें प्रमुख सुझाव यही है कि समुद्री जल के शुद्धीकरण पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। यो वर्षा के जल को समुद्र

रोकने के लिए तथा जमीन की गहराई में बहने वाली अदृश्य नदियों का पानी ऊपर खींच लाने को भी महत्त्व दिया गया है और कहा गया है कि बादलों के अनुदान तथा पर्वतीय बर्फ के रूप में जो जल मिलता है, उसका भी अधिक सावधानी के साथ सदुपयोग किया जाना चाहिए।
उत्तर और दक्षिण ध्रुव-प्रदेशों के निकटवर्ती देशों के लिए एक योजना यह है कि उधर समुद्र में सैर करते-फिरने वाले हिम पर्वतों को पकड़ कर पेय जल की आवश्यकता पूरी की जाए, तो यह अपेक्षाकृत सस्ता पड़ेगा और सुगम रहेगा। संसार भर में जितना पेयजल है, उसका ८० प्रतिशत भाग ध्रुव-प्रदेश एंटार्कटिक के हिमावरण (आइसकैप) में बँधा पड़ा है। इस क्षेत्र में बर्फ के विशालकाय खंड अलग होकर समुद्र में तैरने लगते हैं और अपने ही आकार मे हिम द्वीप जैसा बना लेते हैं। वे समुद्री लहरों और हवा के दबाव से इधर-उधर सैर-सपाटे करते रहते हैं। दक्षिण ध्रुव के हिम पर्वतों को गिरफ्तार करके दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका में पानी की आवश्यकता पूरी करने के लिए खींच लाया जा सकता है। इसी प्रकार उत्तर ध्रुव के हिम पर्वत एक बड़े क्षेत्र की आवश्यकता पूरी कर सकते हैं, यद्यपि उसमें संख्या कम मिलेगी।
अमेरिका के वैज्ञानिक डॉ० विलियम कैंबेल और डॉ० विल्फर्ड वीकस ने इसी प्रयोजन के लिए कैंब्रिज, इंग्लैंड में बुलाई गई एक इंटरनेशनल सिंपोजियम आन दि हाइड्रोलॉजी ऑफ ग्लेशियर्स में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए कहा था—हिम पर्वतों को पकड़ने की योजना को महत्त्व दिया जाना चाहिए, ताकि पेयजल की समस्या को एक हद तक सस्ता समाधान मिल सके। भू-उपग्रहों की सहायता से फोटो लेकर यह पता लगाया जा सकता है, कि किस क्षेत्र में कैसे और कितने हिम पर्वत भ्रमण कर रहे हैं ? इन पर्वतों का 85 प्रतिशत भाग पानी में डूबा रहता है और शेष 20 प्रतिशत सतह से ऊपर दिखाई पड़ता है। इन्हें पाँच
एवं हजार मील तक घसीटकर लाया जा सकता है। इतना सफर करने में उन्हें चार-पाँच महीने लग सकते हैं। यह खर्चा और सफर की अवधि में अपेक्षाकृत गर्म वातावरण में बर्फ पिघलने लगना यह दो कारण यद्यपि चिंताजनक हैं, तो भी कुल मिलाकर वह पानी उससे सस्ता ही पड़ेगा, जितना कि हम जमीन पर रहने वालों को औसत हिसाब से उपलब्ध होता है।
हिसाब लगाया गया है कि ऐमेरी से आस्ट्रेलिया तक ढोकर लाया गया हिम पर्वत दो-तिहाई गल जायेगा और एक-तिहाई शेष रहेगा। रास से दक्षिण अमेरिका तक घसीटा गया हिम पर्वत 15 प्रतिशत ही शेष रहेगा। धीमी चाल से घसीटना अधिक लाभदायक समझा गया है, ताकि लहरों का प्रतिरोध कम पड़ने से बर्फ की बर्बादी अधिक न होने पाये। ७८ हजार हार्सपावर का एक टग जलयान आधा नाट की चाल से उसे आसानी के साथ घसीट सकता है। अपने बंदरगाह से चलकर हिम पर्वत तक पहुँचने और वापस आने में जो खर्च आयेगा और फिर उस बर्फ को पिघलाकर पेयजल बनाने में जो लागत लगेगी, वह उसकी अपेक्षा सस्ती ही पड़ेगी, जो म्युनिसपेलिटियाँ अपने परंपरागत साधनों से जल प्राप्त करने में खर्च करती हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि बर्फ का जल, डिस्टिल्ड वाटर स्तर का होने के कारण स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी, स्वच्छ और हानिकारक तत्त्वों से सर्वथा रहित होगा। उसके स्तर को देखते हुए यदि लागत कुछ अधिक हो, तो भी उसे प्रसन्नतापूर्वक सहन किया जा सकता है। दूसरा उपाय यह सोचा गया है कि समुद्र के किनारे अत्यंत विशालकाय अणु भट्टियाँ लगाई जाएँ, उनकी गर्मी से कृत्रिम बादल उत्पन्न किये जाएँ, उन्हें ठंडा करके कृत्रिम नदियाँ बहाई जायें और उन्हें रोक-बाँधकर पेयजल की समस्या हल की जाए।
तीसरा उपाय यह है कि वर्षा का जल नदियों में होकर समुद्र में पहुँचता है, उसे बाँधों द्वारा रोक लिया जाए और फिर उनसे पेय जल की समस्या हल की जाए।दूसरे और तीसरे नंबर के उपाय जोखिम भरे हैं। अत्यधिक गर्मी पाकर समुद्री जलचर मर जायेंगे, तटवर्ती क्षेत्रों का मौसम गरम हो उठेगा और ध्रुव प्रदेशों तक उस गर्मी का असर पहुँचने से जल प्रलय उत्पन्न होगा और धरती का बहुत बड़ा भाग जलमग्न हो जायेगा। इतनी बड़ी अणु भट्टियाँ अपने विकरण से और भी न जाने क्या-क्या उपद्रव खड़े करेंगी ? तीसरे उपाय से यह खतरा है कि जब समुद्रों में नदियों का पानी पहुँचेगा ही नहीं, तो वे सूखने लगेंगे। खारापन बढ़ेगा और उस भारी पानी से बादल उठने ही बंद हो जायेंगे, तब नदियों का पानी रोकने से भी क्या काम चला ? ध्रुवों के घुमक्कड़ हिम द्वीप भी बहुत दूर तक नहीं जा सकते। उनका लाभ वे ही देश उठा सकेंगे, जो वहाँ से बहुत ज्यादा दूर नहीं हैं।
उपरोक्त सभी उपाय अनिश्चित एवं अधूरे हैं; पर इससे क्या ? पेय जल की बढ़ती हुई माँग तो पूरी करनी ही पड़ेगी। अन्यथा पीने के लिए, कृषि के लिए, कारखानों के लिए, सफाई के लिए भारी कमी पड़ेगी और उस अवरोध के कारण उत्पादन और सफाई की समस्या जटिल हो जाने से मनुष्य भूख, गंदगी और बीमारी से त्रसित होकर बेमौत मरेंगे।
यह सारी समस्याएँ बढ़ती हुई आबादी पैदा कर रही है। मनुष्य में यदि दूरदर्शिता होती, तो वह जनसंख्या बढ़ाने की विभीषिका अनुभव करता और उससे अपना हाथ रोकता; पर आज तो न यह होता दीखता है और न पेय जल का प्रश्न सुलझता प्रतीत होता है। मनुष्य को अपनी मूर्खता का सर्वनाशी दंड, आज नहीं तो कल भुगतना ही पड़ेगा। अनुमान है कि यह विषम परिस्थिति अगले दशक के अंत तक संसार के सामने गंभीर संकट के रूप में उपस्थित होगी।