चेतना विकास और विज्ञान

।अथ योगानुशासनम्।

मनुष्य का जीवन साधना पथ हैं। साधना के साथ आपको खुद को साधना होता हैं। परम शक्ति का यह उपहार है मनुष्य जीवन। जिसका हर एक कार्य, कर्म, विचार उस ब्रम्हांडिय ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करता हैं। क्यूकि परम शक्ति बाहर नहीं अपने भीतर हैं। यह केवल बात करने का कार्य नही है। यह अनुभव करने का कार्य हैं। “अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः” इस सूत्र से यात्रा को शुरूवात करनी होती हैं। योग दर्शन महर्षि पतंजलि कृत यह दिव्य ग्रंथ योग के हर एक पैलु को स्पष्ट करता है। योग का अर्थ होता है जुड़ना। उस परम् सुंदर शक्तिशाली तत्व से। यह शास्त्र ज्ञान प्रदान करता है, हर एक एक स्थिति योग है। योग ही अनुशासन है। इस लिए महर्षि कहते हैं “अथ योगानुशासनम्”। इसी सूत्र से आरंभ होता यह शास्त्र का। योग वास्तव में एक ‘सार्वभौम् विश्व मानव धर्म’ है। योग की दृष्टि में धर्म एक विज्ञान है किंतु योग को किसी धर्म विशेष से न जोड़ते हुए उसका अध्ययन करें तो पाएँगे कि हम अपने किसी धार्मिक अंग का ही पठन-पाठन कर रहे हैं और अपनी आस्था एवं धार्मिक भावनाओं को मानव जाति के कल्याण व उत्थान के लिए दृढ़ कर रहे हैं। इस प्रकार हम योग के रहस्य को स्पष्ट रूप से समझने का प्रयास कर सकते हैं।

जिन ऋषियों ने आत्मा का दर्शन कर लिया था यह उनके द्वारा प्रतिपादित विधियों का निर्देशन है। और आध्यात्मिक प्रणाली का क्रमिक दर्शन कराता है। एवं साधक को अपने लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ होता है। इस प्रकार व्यावहारिक रूप में योग दीक्षात्मक दर्शन एवं सार्वभौम् धर्म का प्रतीक है। आज जनमानस का मानना है कि महर्षि पतंजलि ने योग का निरूपण किया जबकि योग के प्रथम गुरु भगवान शिव ही हैं। कुछ लोगों का मानना है। कि हिरण्य-गर्भ रचित योगसूत्र जो अब लुप्त हो गए हैं, उन्हीं के आधार पर पतंजलि योग दर्शन की रचना हुई। महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग का प्रतिपादन किया जो कि यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि के रूप में गृहीत है। भारतीय वाङ्ममय में योग पर गहन चिंतन प्रस्तुत किया गया है।

गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं,

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।

(6/46)

हे अर्जुन! तू योगी बन जा। क्योंकि तपस्वियों, ज्ञानियों और सकाम कर्म में निरत् जन इन सभी में योगी श्रेष्ठ है।

श्रीमद्भागवत महापुराण में अपने सखा उद्धव को उपदेश देते कहते हैं -हुए श्री कृष्ण,


जितेन्द्रियस्य युकृस्य जितश्रवासस्य योगिनः ।

मयि धारयतश्चेत उपतिष्ठन्ति सिद्धयः ।।

( 11/15/1)

प्रिय उद्धव! जब योगी इन्द्रिय, प्राण और मन को वश में करके अपना चित्त मुझमें लगाकर मेरी धारणा करने लगता है, तब उसके सामने बहुत सी सिद्धियाँ उपस्थित हो जाती हैं। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि, योग के द्वारा सभी सिद्धियाँ (अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशिता, वशिता, कामावसायिता नाम की अष्टसिद्धियाँ) स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। परंतु योग की चरम उपलब्धि मात्र सिद्धि प्राप्ति के संकुचित प्रकोष्ठ को अधिगत् करना नहीं, वरन् आत्मज्ञान, आत्म दर्शन आत्म सुख और आत्मबल की प्राप्ति है।

योग की विभिन्न पद्धतियों एवं उपासना की अनेकानेक विधियों का प्रमुख लक्ष्य चित्त को राग, द्वेष आदि मल से रहित उसमें सत्वगुण का उद्रेक करके वृत्तियों को निर्मलता प्रदान करना है। योग स्वरूप-बोध से स्वरूपोपलब्धि तक की यात्रा है। अंतःश्चेतना की जागृति का योग अन्यतम साधन है।

चरित्र निर्माण में योग का जो महत्त्व है वह भी स्पष्ट है। मानव में निहित सात्विक तत्व जब योग साधना द्वारा जागृत हो उठते हैं तब वह मानवीय गुणों से मण्डित हो जाता है। क्षमा, दया, करुणा, ज्ञान-दर्शन और वैराग्य की अभिवृद्धि ही चरित्र निर्माण की भित्तियाँ हैं।

मनुष्य के व्यक्तित्व की अखंडता ही सर्वोपरि है। खंडित मनुष्य का तात्पर्य है तन, मन एवं भाव के बीच समरसता एवं सामंजस्य का न होना। खंडित मनुष्य सुविधापूर्ण हो सकता है, लेकिन न वह शांत होगा, न आनंदित। खंडित मनुष्य उपयोगी हो सकता है, लेकिन उल्लासपूर्ण नहीं। अतीत में मनुष्य के खंडों को ही स्वीकार किया गया है। मनुष्य बहुआयामी है। हम उसके एक आयाम को स्वीकार कर सकते हैं और दूसरे आयामों को इनकार कर सकते हैं। सच तो यह है कि यह तर्क के अनुकूल पड़ता है, क्योंकि उसके खंड एकदूसरे के विपरीत मालूम होते हैं। जैसे मस्तिष्क है, वह तर्क से जीता है और हृदय भाव से। जिन्होंने मस्तिष्क को स्वीकार किया उन्हें अनिवार्यरूपेण, उनके ही तर्क की निष्पत्ति के अनुसार, भाव को अस्वीकार कर देना पड़ा, लेकिन मनुष्य अगर मस्तिष्क ही रह जाए। और उसमें भाव के फूल न खिलते हों, केवल वह गणित और तर्क और हिसाब ही लगाता हो, तो वैसा मनुष्य यंत्रवत् होगा।

वैसे मनुष्य के जीवन में उल्लास नहीं हो सकता, काव्य नहीं हो सकता, संगीत नहीं हो सकता। वैसा मनुष्य संपदा एवं पद-प्रतिष्ठा तो अर्जित कर सकता है, वह बहुत कुशल भी हो सकता है, लेकिन उसकी जिंदगी सूखी होगी, उसकी जिंदगी में कभी आह्लाद का या विषाद का कोई आर्द्र भाव प्रकट नहीं हो सकता है और उसका हृदय एक मरुस्थल होगा, जिसमें हरियाली नहीं होगी और जिसमें पक्षी गीत नहीं गाएँगे। ऐसे व्यक्ति की दृष्टि बड़ी संकुचित, बड़ी संकीर्ण होती है। वह पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ स्वीकार न कर सकता; क्योंकि पदार्थ ही उसकी पकड़ में आता है। वह अपने को जानने की बात ही भूल जाता है। आँख के लिए दर्पण चाहिए जो अपने को देखे। उसी दर्पण का नाम काव्य है। काव्य हमें अपनी झलक दिखाता है। काव्य हमें अपनी सुगंध देता है। काव्य हमारे भीतर के भाव का उद्रेक है, भाव की तरंग है।

काव्य और विज्ञान

काव्य हमारी अपने से पहली प्रतीति, पहला साक्षात्कार है। काव्य से रहित व्यक्ति सही अर्थों में जीवंत नहीं उसका विकास होने की संभावना थी, लेकिन वह चूक गया है और आज यह दुर्भाग्य बहुत गहन हो गया है; क्योंकि हम विज्ञान की तो शिक्षा देते हैं, हम प्रत्येक व्यक्ति को संदेह में कुशल बनाते हैं, सोच और विचार में निष्णात करते हैं। काव्य के बिना हमारे जीवन में, वह जो दृश्य और अदृश्य के बीच का सेतु है, निर्मित नहीं होगा। काव्य का अर्थ इतना सीमित नहीं है, जितना साधारणतः समझा जाता है। काव्य में वह सब है, जो तर्क से नहीं जन्मता, फिर चाहे संगीत हो, फिर चाहे नृत्य हो, चाहे मूर्तिकला हो, चाहे स्थापत्य हो। जो भी सिर्फ तर्क के अनुसार नहीं पैदा होता है, जिसमें तर्क से कुछ ज्यादा है। तर्क से परे एवं पार है, वही काव्य है और जब तक काव्य नहीं है, तब तक धर्म की कोई संभावना नहीं है। इसलिए काव्य विज्ञान के ऊपर की सीढ़ी है। विज्ञान संसार का पदार्थ है, और विज्ञान सभी की समझ में आ जाता है। काव्य तो फूल है, चाहो तो इससे इनकार कर सकते हैं। सौंदर्य है, अस्वीकार करने में कठिनाई नहीं है। काव्य के लिए हृदय को भावपूर्ण होने की कला आनी चाहिए। काव्य के लिए मस्तिष्क को कभी-कभी दूर हटाकर रख देने की क्षमता आनी चाहिए। जैसे कभी जब आकाश में बादल घिर जाएँ और मोर नाचने लगें तो हमारा मन भी उस नृत्य में सम्मिलित हो जाता है और जब कभी दूर से रात के अंधेरे में कोयल की आवाज आए, तो अपने हृदय को खोलकर अपने हृदय के भीतर उसे आमंत्रित करना आना चाहिए।

काव्य विज्ञान से ऊपर, विज्ञान से श्रेष्ठतर है। विज्ञान की उपयोगिता है, उपादेयता है। इसलिए विज्ञान का कोई विरोधी नहीं है, परंतु उसकी उपयोगिता चरम मूल्य नहीं है। उसकी उपयोगिता हमारे लिए है। हमसे ऊपर नहीं है। हम उसके ऊपर हैं और विज्ञान की उपयोगिता इसीलिए है, ताकि हम काव्य के जगत् में प्रवेश कर सकें। यदि हम यह समझ सकें, तो विज्ञान वरदान बन सकता है। अब तक तो यह अभिशाप सिद्ध हुआ है अपितु नही यह आपके हाथो में ही हैं। विज्ञान हमें ज्यादा समय देता है, क्योंकि जिस काम में घंटों लगते थे, वह यह क्षणों में कर देता है। विज्ञान हमारे जीवन को लंबा कर देता है। विज्ञान हमारे पास इतनी क्षमता जुटा देता है कि हम चाहें तो नाचें, चाहें तो गाएँ, चाहें तो विश्राम करें, ध्यान करें। विज्ञान समृद्धि देता है, लेकिन समृद्धि की एक ही महत्ता हो सकती है कि अंतर्यात्रा शुरू हो सके। इसलिए विज्ञान का विरोध नहीं है, परंतु काव्य आत्मसात् हो। हमें के विज्ञान पर ठहरना नहीं है। विज्ञान से ऊपर काव्य का रंग है। विज्ञान अगर मंदिर बना सके तो अच्छा, लेकिन इस मंदिर का जो अंतर्-गर्भ होगा, जो गर्भगृह होगा, वह तो काव्य का ही हो सकता है। अगर यह मंदिर ही मंदिर हो के और इसमें कोई गर्भगृह न हो, जहाँ परम अतिथि को आमंत्रित किया जा सके, जहाँ परम देवता को विराजमान किया जा सके, तो यह मंदिर खाली है, यह मंदिर अर्थहीन है। इस मंदिर का कोई प्रयोजन नहीं है। इसे बनाना व्यर्थ है। काव्य में इसकी सार्थकता होगी।

विचार बाह्य यात्रा का साधन है, भाव अंतर्यात्रा का साधन है। दोनों का अपना उपयोग है, लेकिन हमें दोनों के पार होना है, उसे कभी न भूलना चाहिए। एक क्षण को विस्मरण नहीं होना चाहिए। न तो हम मस्तिष्क हैं, न हम हृदय है। जब हम मस्तिष्क के पीछे खड़े हो जाते हैं, तो तर्क (निर्मित होता है। विज्ञान का जन्म होता है, गणित बनता है। और जब हम भाव के पीछे खड़े हो जाते हैं तो काव्य की तरंगें उठती हैं, संगीत जन्मता है। जब हम दोनों से मुक्त होकर स्वयं को जानते हों, तो धर्म का उद्भव होता है। तब हमारे भीतर सत्य को प्रतीति होती है। सत्य की प्रतीति ही हमें संत बनाती है। नियम, व्रत, उपवास से कोई संत नहीं होता है। सत्य को जो जान लेता है, अपने भीतर विराजमान, पहचान लेता है, अपने भीतर के देवता को अंतर्-देवता से जिसका परिचय हो जाता है, वही संत है। संतत्त्व तो है साक्षी का अनुभव नहीं मैं मन हूँ, नहीं मैं हृदय हूँ, नहीं मैं देह हूँ, नहीं मैं बाहर हूँ, नही मैं भीतर हूँ। मैं उस अद्वैत परम सत्ता का प्रतिक हूँ। जहाँ दोनों का अतिक्रमण हो गया है। जहाँ सिर्फ शुद्ध चैतन्य हो जाना है। जिस पर कोई बंधन नहीं हैं, न विचार के, न भाव के। जहाँ गणित भी खो गया और जहाँ काव्य भी खो गया। जहाँ सब परम शांत है। पतंजलि योग सूत्र “तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्” की साक्षात प्रतीति होती है। जो एक परम स्थिति है। समाधि अवस्था है। “विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः” जहां हमारे निरोध के संस्कार भी क्षीण हो जाते है। परम चिदाकश का अंश रूप में प्रकाश का साक्षात्कार होता है। अर्थात अंतिम स्थिति की प्राप्ति

जहाँ परम मौन घटित हुआ है, उस परम मौन के कारण ही हमने संतों को मुनि कहा है। यह मनुष्य की त्रिमूर्ति है विज्ञान, काव्य, धर्म। ये मनुष्य के तीन चेहरे हैं। हमें किसी एक तत्त्व से नहीं बँधना चाहिए। हमें तीनों को जानना है और तीनों से मुक्त भी होना। हमे तीनो शक्तियों को समर्पित होना हैं। सकारात्मक भाव लेकर यह यात्रा को पूर्ण करना होता हैं। गुरु का परम तेज, शक्ति, और ज्ञान का मिलन होता हैं।

इन तीनों को जानना और जानने वाला सदा ही अतिक्रमण कर जाता है, जानने वाला कभी भी दृश्य नहीं बनता, द्रष्टा ही रहता है। उसे दृश्य बनाने का कोई उपाय नहीं है। इसके पश्चात तुम्हारी मंजिल पूरी होती है। यही मनुष्य का अखंड रूप है। यह भविष्य का मनुष्य है, जिसके आगमन की प्रतीक्षा की जा रही है; क्योंकि अगर वह नहीं आया, तो पुराना मनुष्य सड़ गया है। पुराना मनुष्य खंडित है। एक-एक हिस्से को लोगों ने जकड़ा है। पश्चिम ने पकड़ा विज्ञान को, पूरब ने पकड़ा धर्म को, दोनों मूर्च्छित हालात में हैं, अर्द्धजीवित हैं। पश्चिम मर रहा है, क्योंकि शरीर तो है, धन है, पद है, पर आत्मा नहीं है और पूरब मर रहा है, क्योंकि आत्मा की बातचीत तो है, लेकिन देह खो गई है। दीनता है, दरिद्रता है, भुखमरी है। पेट भूखा है, आत्मा की बात भी करें, तो कब तक करें और कितनी ही समृद्धि हमारे पास हो, अगर आत्मा ही नहीं है तो हम ही नहीं हैं। यह हमारी समृद्धि केवल हमें अपनी दरिद्रता की याद दिलाएगी और कुछ भी नहीं।

पश्चिम बाहर से समृद्ध है, पर भीतर से दरिद्र है। पूरब ने भीतर की समृद्धि में बाहर की दरिद्रता मोल ले ली है। यह खंड-खंड का चुनाव है। यह चुनाव अशुभ हुआ। नास्तिक और आस्तिक, दोनों को भीतर जोड़ देना चाहिए। पूरब और पश्चिम को छोड़कर सरक जाएँ। नई सुबह हो रही है। नया दिन आ रहा है। नए मनुष्य का दिन आ रहा है। यह नए मनुष्य की घोषणा है।

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