आयु + वेद = आयुर्वेद

मां प्रकृति का धन्यवाद करना सीखाता, “आयुर्वेद”

मां प्रकृति ने मनुष्य के लिए हर वस्तु उत्पन्न की है। जीवन को जीने के लिए प्राण वायु, शक्ती के लिए अन्न। मां प्रकृति हमारी हर एक जरूरत को पूर्ण करती है। वो कभी आपदा के रुप में कहर बनकर टूट पड़ती है तो भी हमारी मदद करती हैं। परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। मां प्रकृति की सबसे सुंदर और जटिल संरचना है मानव शरीर। मानवी शरीर को स्वास्थ रखना हमारे हाथों में है। इस स्वस्थता को प्रदान करती है मां प्रकृति। मां प्रकृति के नजदीक रहकर हम खुद को और समस्त मानव जाति को निरोगी रख सकते है, इस बात में कोई संशय नहीं हैं। मां प्रकृति ने हमें ज्ञान प्रदान कराती है। मानव शरीर से जुड़ा हुआ ज्ञान है आयुर्वेद। औषधि उपचार के लिए जड़ी-बूटियाँ भी प्रदान की हैं। इस आधार पर चिकित्सा को सर्व सुलभ, प्रतिक्रियाहीन तथा सस्ता बनाया जा सकता है। जड़ी बूटी चिकित्सा बदनाम इसलिए हुई कि उसकी पहचान भुला दी गयी- विज्ञान जुठला दिया गया। सही जड़ी-बूटी उपयुक्त क्षेत्र से, उपयुक्त मौसम में एकत्र की जाय; उसे सही ढंग से रखा और प्रयुक्त किया जाय तो आज भी उनका चमत्कारी प्रभाव देखा जा सकता है।

हम कुछ ही गिनी चुनी जड़ी-बूटियों से ८० प्रतिशत लगभग रोगों का उपचार सहज ही किया जा सकता है। ऐसी सरल, सुगम, सस्ती परन्तु प्रभावशाली चिकित्सा पद्धति जन-जन तक पहुँचाने के लिए हमारे ऋषि मुनियों, गुरु ,अनेक आध्यात्मिक संस्थान , शोध कर्ता ने आयुर्वेद पर प्रस्तुती सादर कि है। आयुर्वेद में वर्णित अनेक जड़ी-बूटियों को भारतीय संस्कृती में प्राथमिकता दी गयी है, जो भारत में अधिकांश क्षेत्रों में पायी जाती हैं, अथवा उगायी जा सकती है। भारत की गुरु सत्ता, आचार्य अनेक संतो की यह इच्छा है कि, यह विधा विकसित हो और रोग निवारण के साथ-साथ जन-जन को प्राण शक्ति संवर्धन का लाभ भी प्राप्त हो । ऋषियों द्वारा विकसित इस विद्या का लाभ पुनः जन-जन को मिले। आने वाले समय में न तो संसाधनों की कमी रहने वाली है, न की तकनीकी दृष्टि से विकसित सुविधा साधनों की हमें आशा रखनी चाहिए कि महाविनाश की सारी तैयारियों के बावजूद विवेक का वर्चस्व बना रहेगा एवं अज्ञान, अभाव को दूर कर एक सद्भावनापूर्ण समाज विकसित होगा। एक आशंका फिर भी मन में रहती है कि वर्तमान जीवन पद्धति चिन्तन की विकृति एवं आधुनिक विकास के चलते, क्या मां प्रकृति की संताने सभी प्राणियों में मनुष्य इस स्थिति में होगा कि साधनों का सदुपयोग कर सके ? स्वयं अपने आपको सर्वांगपूर्ण स्वस्थ एवं संतुलित बनाए रख सके ? मानव आज के विकास की राह में अंधा हुआ प्रतित होता हैं। गहराई से देखने पर काफी खोखला नजर आता है। उसकी जीवनी शक्ति मुरझाई सी गयी लगती है। थोड़ा सा मौसम का असंतुलन उसे व्याधिग्रस्त कर देता है। भ्रान्तियां, आवेश, उत्तेजना, अवसाद जैसे मनोविकारग्रस्त व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है। बाहर से स्वस्थ, सुडौल दीखते हुए भी व्यक्ति की जड़ें कमजोर दिखाई देती हैं। आहार उपलब्ध होते हुए भी वह आहार विष बनकर सामने आता है । इसे आधुनिक जीवन की नीति कहें या प्रगति की दिशा में भटकना, कुछ भी नाम दे लें; पर लगता यही है कि ये वे मजबूत कंधे नहीं हैं, जिन पर समाज, राष्ट्र, विश्व की सदी का बोझ लादकर आगे बढ़ा जा सकें।

आधुनिक चिकित्सा पद्धति ने निदान के साधन इतने जुटा दिए है कि रोग की जाँच-पड़ताल अब अधिक समय नहीं लेती। पर “मनुष्य रोगी है,” यह वही मानने को तैयार न हो, वह बाहर से स्वस्थ दिखे भी न पड़े, तो समझना चाहिए की कहीं कोई गड़बड़ी है। आहार की अनियमितता, अस्त-व्यस्त रूप में आधुनिक औषधि का सेवन, चिन्तन क्षेत्र में भ्रान्तियों के भ्रम जाल ये सभी आज सारे मानव समुदाय को अस्वस्थ बनाये हुए हैं। लक्षण बाहर से दिखायी नहीं पड़ते ।अन्तविकार अन्दर से व्यक्ति को खोखला बनाते रहते एवं बाहर की लीपा-पोती से प्रकाश में नहीं आ पाते हैं। ऐसे में लगता है नया मानव तैयार करने के लिए ऐसी वैकल्पिक चिकत्सा पद्धति तलाशनी ही होगी, जो व्यक्ति को समग्र रूप से आरोग्य प्रदान करें, उसकी क्षीण होती जा रही जीवनी शक्ति को सहारा दे। चाहे प्रसंग अत्याधुनिक विकसित राष्ट्रों का हो अथवा अविकसित विकासशील तीसरी दुनिया के राष्ट्रों के नागरिकों का, सभी पर यह बात समान रूप से लागू होती है।

योग्य उपचार पद्धति का चयन!

सही उपचार पद्धति कौन सी हो ! इस पद्धति को कैसे समझे? इस लिए हमे हमारी मूल प्रकृति से जुड़ना होगा। उपचार से उपकार तक की यात्रा को विकसित करना होगा। रोगों के मूल तक जड़ों तक पहुंचना होगा तभी हम रोगों के जंजाल से मुक्त हो पाएंगे। इसलिए चिकित्सा एवं स्वास्थ्य के नामों पर जब भी विचार होता है, तो वह एक सीमित दायरे में घूमकर रह जाता है। ऐलोपैथी की सबसे बड़ी देन यही है, कि उसने रोगों के कारणों के बारे में आधुनिक ढंग से चिन्तन करना सिखाया। चिकित्सा पद्धति कितनी निरापद है, इस विवाद में पड़े बिना यह चर्चा करना मुख्य होगा, कि वर्तमान परिस्थितियों में एक विशाल समुदाय में उपचार का मंत्र किस तरह फुंका जाय की उपचार के नाम पर चारों ओर नजर दौड़ाते है, तो प्रकृति के आंगन में फलने-फूलने वाली औषधि के माध्यम से चिकित्सा ही हर दृष्टि से हानिरहित, सस्ती, सुगम एवं अधिक लाभकारी प्रतीत होती है। यहां आयुर्वेद एवं वनौषधि विज्ञान के अन्तर को समझना जरूरी है। आयुर्वेद के धन्वन्तरि काल से लेकर अब तक के विकास में अनेकों परिवर्तन होते हुए चले आए हैं। आज के आयुर्वेद के रूप को देखते हुए मन में ग्लानि सी होती हैं। जो संस्कृति अपनी दिव्य शक्ति से सम्पन्न जड़ी-बूटियों के कारण कायाकल्प कर सकने तक में सक्षम मानी जाती रही है, उसे आयुर्वेद पढ़ कर डिग्री प्राप्त करने वाले ही प्रयुक्त न कर, एलोपैथी की शरण लेते देखे जाते हैं। यह मात्र बौद्धिक, परावलम्बन एवं पश्चिम की अन्धाधुंध नकल ही नहीं है, शरीर को स्थायी हानि पहुंचाने की कीमत पर तुरन्त लाभ मिलने की, रोगी व चिकित्सक की दोनों की मिली भगत की नीति भी है ।

जीवनी शक्ति संवर्धक वनौषधियाँ यदि कहीं नजर आती हैं, क्या वो सही ढंग से एकत्र न हुई, घास-पात के साथ मिली ये औषधियां क्या असर करेंगी ? जबकि सभी जानते हैं कि तोड़े जाने के बाद ३ से ६ माह के बाद इनके सभी गुण-धर्म लगभग समाप्त प्राय हो जाते हैं। जबकि भारत के अनेक आध्यात्मिक संस्थान द्वारा इस आयुर्वेद के गौरव, वनौषधि विज्ञान की महत्ता समझायी जाती हैं। और उन्हें यथा शक्ति स्वाभाविक रूप में प्रयोग करने योग्य बना कर, सेवन विधि का प्रतिपादन किया जाय एवं यदि सम्भव हो, तो ऐसी पौधशालायें स्थान स्थान पर लगायी जाए ताकि उनके ताजे रूप में सेवन का प्रचलन बढ़े। यह नई क्रांति के रुप में उभरकर नया बिजनेस मॉडल हो सकता है।


आयुर्वेद मूलतः अथर्ववेद का उपांग है और पाँचवे वेद के रूप में प्रख्यात है। अग्निवेश इस विधा के प्रणेता माने जाते हैं, जिन्होंने आयुवेद का अध्ययन पुनर्वसु आत्रेय से किया था; किन्तु अथर्ववेद जिसके एक अंग के रूप में आयुर्वेद ने जन्म लिया, उसमें अथर्वा ऋषि के माध्यम से यह बताया गया है, कि समस्त जीव समुदाय के लिए विधाता ने प्रकृति जगत वनौषधियों का प्रावधान रखा है। गुण, कर्म भेद अलग अलग हो सकते हैं, किन्तु एक भी पौधा इस धरती पर ऐसा नहीं है, जिसमें औषधीय गुण न हो। विशिष्ट चिकित्सा हेतु सुरक्षित कुछ विष प्रधान जड़ी-बूटियों की चर्चा न करके शेष पर दृष्टि डाली जाय, तो सभी स्थानीय उपचार (लोकल एप्लीशन) से लेकर समग्र शरीर के उपचार में उपयोगी देखी जा सकती हैं। आयुर्वेद के सुविख्यात आठ तन्त्रों की चर्चा भी यहाँ प्रासंगिक नहीं है। क्योंकि हमारा मूल विषय है वनौषधियों के विभिन्न अनुपान भेद द्वारा एकौषधि अथवा सम्मिश्रण के रूप में प्रयोग से शरीर व मन की सर्वांगपूर्ण चिकित्सा !! शरीर तंत्र व उसकी कार्य विधि की थोड़ी भी जानकारी रखने वाला व्यक्ति, उस विषय पर प्रस्तुत किये जा रहे प्रतिपादन द्वारा स्वयं अपनी एवं अन्य की चिकित्सा करता रह सकता है। इसी कारण अधिक विस्तार में जाने की अपेक्षा यह उचित समझा गया कि सार संक्षेप में इस चिकित्सा का मूलभूत तत्त्वदर्शन एवं उसकी कार्यपद्धति प्रस्तुत कर दी जाय ।

आयुर्वेद प्रकरण के प्रारम्भ में एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण एवं रोचक प्रसंग चरक संहिता में आता है। हिमालय क्षेत्र में सभी ऋषियों सम्मति से महर्षि भारद्वाज, देवराज इन्द्र के पास धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चतुविध पुरुषार्थों के साधन के आधार- आरोग्य की हरने वाले रोगों से मुक्ति पाने का उपाय पूछने जाते हैं, और देवराज इन्द्र ने यह ज्ञात देव वैद्य अश्विनी कुमारों से एवं अश्विनी कुमारों ने इसे दक्ष प्रजापति से प्राप्त किया। दक्ष प्रजापति को इस विद्या की शिक्षा स्वयं ब्रह्मा ने दिया था। भरद्वाज मुनि को आयुर्विज्ञान के तीन मूल सूत्र समझाते हुए देवराज इन्द्र कहते हैं कि आयुर्वेद मूलतः तीन स्तम्भों पर टिका है,

आयुर्वेद के तीन स्तंभ,

१) प्राणियों के स्वस्थ एवं रुग्ण होने के क्या कारण हैं।

(२) स्वस्थ एवं रुग्ण जीवधारियों के लक्षण क्या हैं ?

(३) स्वस्थ रहने को औषधि (पथ्य एवं जीवनी शक्ति सम्बर्धक बलप्रदायी औषधि) तथा रोगी प्राणी की औषधि क्या है ?

सारे आयुर्वेद की व्याख्या इन तीन स्तम्भों पर चलती है। वनौषधि विज्ञान की व्याख्या भी इसी आधार पर की जा सकती है। औषधि ही क्यों ? रस, भस्म-खनिज आदि क्यों नहीं ? इस संबंध में यही कहना है, कि अपना उद्देश्य आयुर्वेद के मूलभूत स्वरूप का पुनर्जीवन करना है। यह सारी धरती देवताओं द्वारा ले जाये जा रहे अमृत कलश से बंद रूप में गिरे अमृत से उद्भूत वनस्पतियों से विभूषित है। हर वनस्पति अपने पाँचों अंगों में औषधीय विशेषताएँ लिए हुए है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय, तो उनमें जल, स्टार्च, रेजिन्स पेटाइड्स रेसे आदि के रूप में सक्रिय घटक एवं संभावित साइड इफेक्ट (दुष्परिणाम) को रोकने वाले संघटक भी विद्यमान हैं। इन औषधियों को ताजे रूप कल्क कर-पीसकर, चटनी के रूप में, घनसत्व के रूप में या छाया में सुखाकर अच्छी तरह पीसकर सुक्ष्मीकृत चूर्ण रुप में दूध, जल, मधु, मिश्री, मलाई, घी या अन्य किसी अनुपान के साथ दिया जाता है। सभी रूपों में ये अपना प्रभाव शीघ्र ही दिखाती हैं। सर्वथा हानिरहित इनका शरीर पर प्रभाव सही निशाने पर बैठने वाला एवं चिरस्थायि होता है, यह शोधकर्ता ओ के निष्कर्ष बताते हैं। अन्य अनेकों संस्थानों द्वारा किए गये प्रयोग परीक्षण भी इसकी साक्षी देते हैं। उनके विस्तार में न जाते हुए यहाँ शरीर व मन पर वांछित प्रभाव डालने वाली ४२ औषधियों एवं उनकी प्रयोग विधि की चर्चा की जा रही है। इस संक्षिप्त निर्देशिका से परिजनों को उपचार प्रक्रिया का तत्त्व दर्शन समझकर, उसे व्यवहार में उतारना आसान हो जायेगा ।

विभिन्न संस्थानों के लिए भिन्न-भिन्न औषधियां: वनौषधि चिकित्सा का मूल आधार है- सक्रिय संघटकों को नष्ट किए बिना उन्हें संस्थान विशेष के लिए उचित मात्रा में अनुपान भेद द्वारा जीवनी शक्ति संवर्धन हेतु मुख मार्ग से देना । जहाँ आवश्यक हो, वहां उन्हें स्थानीय उपचार हेतु भी प्रयुक्त करना। इस दृष्टि से शरीर के विभिन्न संस्थानों के अनुसार चयन की गयी ४२ औषधियों का वर्णन इस प्रकार है,

42 औषधि के भंडार

1. सुख, मसूड़े एवं दाँतों के लिए बकुल (मौलश्री) ।
2.कायफल वालों के लिए भृगराज ।
3. त्वचा सम्बन्धी विकार के लिए बाकुची ।
4. मस्तिष्क एवं मनः संस्थान के लिए ब्राह्मी जय माँसी, दन ।
5. नाड़ी संस्थान – ज्योतिष्मति ( मालकगनी ) ।
6. संधि मांसपेशियों संबन्धी रोगों के लिए निर्गुण्डी, रास्ना, सुष्ठी (सोठ)।
7. हृदय एवं रक्तवाही संस्थान- पुनर्नवा, शंखपुष्पी, अर्जुन फेफड़े तथा ऊपरी व निचला श्वास संस्थान-अडूसा, भारंगी कटकारि शिरीष।
8. ऊपरी पाचन संस्थान एवं यकृत (लीवर) आंवला, मुलेठी, शतपुष्पा शरपुखा, कालमेध।
9. पाचन संस्थान नागकेसर एवं जननसंस्थान-गोर, वरुण, अशोक सोध।
10. रक्त होइफ, संक्रमण नाशक-दितीय सारियाँ, खदिर चिरायता

प्रसंगवश यहाँ एक दो बातों का खुलासा कर देना ठीक रहेगा। आयुर्वेद में होता यह है, की डॉक्टर एक ही औषधि को सभी रोगों को रामबाण दवा बता देते हैं। इस तरह वह कहीं भी नहीं रहती। स्वाभाविक है कि उसमें वे सक्रिय घटक है जिस कारण वह कई रोगों के कई लक्षणों पर अपना अचूक प्रभाव दिखाती है। किन्तु इससे यह नहीं प्रमाणित हो जाता कि वह उन सभी रोगों में काम में लायी जा सकती है। उसमें कौन से ऐसे सक्रिय औषधि तत्व है, यह फाइटोकेमीकल एनालिटीकल विधियों द्वारा पता लगाकर किसी रोग विशेष के साथ उसे प्रयुक्त किया जा सके, तो बहुत सीमा तक भ्रांतियां मिट सकती है। यह प्रयास औषधि निर्धारण में यहाँ किया गया है।

आवश्यकता पड़ने पर एक ही औषधि का सम्मिश्रण के प्रयोग सम्बन्धी एक और स्पष्टीकरण देना जरूरी है। किन्ही किन्ही
परिस्थितियों में व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक परिस्थितियों के अनुसार एक ही औषधि लम्बे समय तक प्रयोग करना ठीक होता है, कभी-कभी जरूरी होता है कि कुछ सम्मिश्रण प्रयोग किए जायें। इससे औषधि एक-दूसरे की कार्य क्षमता को और भी कई गुना बढ़ाती है एवं प्रभाव अधिक तीव्र व जल्दी होता है। औषधि यो के संघटक जब तक एक दूसरे से विच्छेदित नहीं होते, उनमें आपस में रासायनिक क्रिया नहीं होती। वे अपना प्रभाव समूचे रूप में मानव शरीर पर डालते हैं। अतः “ड्रग इटरएक्शन” जैसी संभावना यहाँ नहीं रह जाती। औषधियाँ जिन सक्रिय एल्केलाइड्स, पेण्टाएड्स व स्टार्च फाइवस आदि से मिलकर बनी होती हैं, वे परस्पर इस प्रकार एक दूसरे से मिले हुए रहते हैं, की एक ही औषधि का सेवन करने पर किसी तरह के हानिकारक प्रभाव की आशंका नहीं करनी चाहिए। एक ही जड़ी-बूटी में प्रोटागोनिस्ट ,एण्टागोनिस्ट तत्त्व विद्यामान रहते हैं। एण्टा गोनिस्ट निष्क्रिय औषधि तत्त्व साइड इफेक्ट्स को प्रभावी होने से पहले रोक देते हैं। इस प्रकार औषधि अपने आप में एक सम्पूर्ण आहार है। उचित मात्रा में उचित अनुपान के साथ लिए जाने पर उसके किसी भी प्रकार के दुष्परिणामों की अनावश्यक आशंका नहीं करनी चाहिए।

“वेहीकल” यानी वे पदार्थ, जो औषधि के साथ दिए जाने पर सक्रिय (एक्टिव इन्ग्रेडीएन्ट्स ) को शरीर में अपने लक्ष्य तक पहुंचाए। अनुपान उसी या अन्य किसी औषधि का क्वाथ भी हो सकता है, अथवा जल, दूध, घी, दही, मधु, मिश्री, मलाई, मक्खन या अन्य किसी तरल पदार्थ के रूप में भी हो सकता है । अनुपात इसलिए अनिवार्य है कि वह औषधि अपने सही रूप में सही स्थान पर पहुंचे। वस्तुतः अनुपान औषधि की क्रियाशीलता को बढ़ा देते हैं। सामान्यता ठण्डा या गुनगुना जल अनुपान रूप में प्रयोग करते है। गौ का दुदूध भी एक आदर्श अनुपान तथा स्वयं में एक सम्पूर्ण आहार है। लैक्टिक इन्जाइम्स व उसमें विद्यमान वसा के छोटे-छोटे कणों का बोल औषधि को “पेनिटेट्रिंग” प्रवेश योग्य बना देता है। दूध में लगभग २१ प्रकार के इनलाइम्स पाये जाते हैं। ये जड़ी-बूटियों के एल्केलाइड्स ,ग्लाइकोसाड्स व पेप्टाइड्स को सूक्ष्मीकृत करने की क्षमता रखते हैं। दूध गर्म करके थोड़ा ठण्डा करके लिया जाय, तो उचित है।

हनी वस्तुतः फूलों का स्वरस है। बाद में मधुमक्खियों द्वारा सक्रिय हारमोन्स के माध्यम से और भी अधिक गाढ़ा इन्जाइम बना दिया जाता है। जहाँ फूलों के स्वरस में पानी का अनुपात लगभग सत्तर प्रतिशत होता है, वहाँ मधुमक्खियों के शरीर से गुजर कर आने के बाद वह मात्र दस प्रतिशत रह जाता है। ऐसे द्रव्य पदार्थ के साथ ली गई औषधि पेट से तुरन्त रक्तवाही नलियों में होकर अपने-अपने क्षेत्र में पहुंच जाती है। हनी को जब भी लें, उसे ठण्डी स्थिति में ही लें। जल के साथ मिला कर लें। समान मात्र में जल के साथ गर्म अवस्था में मिलाने पर तथा घी के साथ समान मात्रा में दिए जाने का शरीर पर विष के समान प्रभाव पड़ता है, अतः इस सम्बन्ध में सावधानी बरती जानी चाहिए ।

मक्खन, घी, दही, मलाई आदि दूध के परिवर्तित रूप है। आवश्यकता पड़ने पर उन्हें भी प्रयुक्त किया जा सकता है। मिश्री की चाशनी भी हनी के समान एक श्रेष्ठ “वेहीकल” है जो औषधि की घुलनशीलता को बिना उसके गुण धर्म बदले बढ़ा देती है। किन्हीं किन्हीं परिस्थितियों में इसे भी अनुपान रूप में प्रयोग किया जाता है। अनुपान के कार्यों के सम्बन्ध में चरक सूत्र स्थान (३२० अ० २७ ) में कहा गया है कि “अनुपान तृप्त करता है, देह एवं इन्द्रियों की कमी को पूर्ण करता है, बल व जीवन देता है, खाये हुए आहार को सर्वत्र शरीर में फैलाने का कार्य करता है व उसे शरीर के साथ एकभाव कर देता है। अनुपान सेवन की गयी औषधि को अलग कर आमाशाय व उससे आगे पक्वआशय की ओर से जाता है। यह अन्न को गीला कर आसानी से अवशोषित हो शरीर में संव्याप्त हो जाने वाला कर देता है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया है कि जो पेय आहार की सीमा में नहीं आता है, जिसमें स्वयं के औषधि गुण न हों और धातुओं का विरोधी न हो, वही सर्व श्रेष्ठ अनुपान है। आयुर्वेद केवल एक पद्धति नहीं है, अपितु यह जीवन जीने का नया तरीका है। जहां आपको ज्ञान प्रदान किया जाता है वही आयुर्वेद को अपनाना ही आज की जरुरत है।

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