हम अपने सोच के उत्पाद है!

निराशा वो है जो उत्साह को छीनकर नकारात्मक बनाती हैं, जो व्यक्ति की संपूर्ण शक्तियों एवं संभावनाओं को नष्ट करके रख देती है। निराशा नकारात्मकता को बढ़ाती हैं। उत्साह ही ऊर्जा है, जीवन की संजीवनी है। उत्साह में बड़ा बल होता है, उत्साह से बढ़कर अन्य कोई बल नहीं है। उत्साही व्यक्ति के लिए संसार में कोई वस्तु दुर्लभ नहीं है।आशा जहाँ जीवन में संजीवनी शक्ति का संचार करती है, तो वहीं निराशा व्यक्ति को मृत्यु की ओर ले जाती है; क्योंकि निराश व्यक्ति डिप्रेशन का शिकार बन जाता है। जीते जी जैसे जीवन मृतप्राय-सा हो जाता है, उसे अपने चारों ओर कोई उम्मेद की किरण नही मिलती। व्यक्ति मानसिक स्तर पर कमज़ोर बन जाता है। इस तरह उत्साह के अभाव में जीवन कठिन हो जाता है। निर्णय लेने की क्षमता का मृत्यु हो जाता है।
जीवन से निराश व्यक्ति अपने कर्तव्य के प्रति भी उदासीन हो जाता है, और परिणामस्वरूप उसके जीवन में किसी तरह की भव्यता और संपन्नता की आशा नहीं की जा सकती। उसके आश्रय में पल रहे स्वजन भी अविकसित ही रह जाते हैं। इस तरह उत्साहहीनता एक तरह का अपराध ही कहा जाए। इस मनःस्थिति से जीतने जल्दी उभर सकते हो, उतना बेहतर रहता है। मन स्थिति बदली जाए तो परिस्थिति बदली जा सकती है। इसलिए जीवन में निराशा का आगमन हमे अधोगति को प्राप्त करवाता है।
निराशा संपन्न मनःस्थिति के कई कारण हो सकते हैं। यह शरीर में किसी रोग या विकार के कारण उत्पन्न कर सकता है। जीवन में निराशा ही रोगों को आमंत्रण देती है। निराशा और नकारात्मकता दोनों ही जीवन में रोग का विकल्प चुनती है। विचारो में उत्साह का बल न रहने के कारण हर निर्णय में असफलता आती है। इस निराशा के द्वारा पेट में अपच, कब्ज, गंदी वायु, अत्यधिक श्रम एवं भाग-दौड़, विश्राम, नींद का अभाव, कैंसर, जैसे अनेकों रोगों के जड़ निराशा ही है। हालाँकि इस तरह की निराशा से उबरना अधिक कठिन नहीं होता। जीवनशैली में आवश्यक सुधार, संतुलित जीवनचर्या एवं प्राकृतिक नियमों के पालन के साथ व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ करते हुए ऐसी मनोदशा पर विजय प्राप्त किया जाता है।
निराशा का एक बड़ा कारण हैं, अपनों से बढ़ी चढ़ी अपेक्षाएँ रखना और जीवन के यथार्थ को स्वीकार नहीं कर पाना। जैसा हम सोचते हैं, वैसे ही सारा संसार सोचने लगे या हमारी हर बात मानने लगे ऐसी बचकानी एवं अतिवादी सोच निराशा का कारण बनती है। इस परिवर्तनशील एवं वैविध्यपूर्ण संसार में सब कुछ हमारे हिसाब से हो और यही यथावत् बना रहे, ऐसी कामना का पूर्ण होना कैसे संभव है? लाभ-हानि, संयोग-वियोग, बुढ़ापा, मृत्यु के क्षण इस जीवन के यथार्थ हैं, इनको मिथ्यादोषों का उद्भावन कर उसे कलङ्कित करने का प्रयास करते देखे जाते हैं। इस प्रकार परनिन्दा की भावना असूया है। करने से मन अनावश्यक निराशा और विषाद से मुक्त हो जाता है। इस यथार्थता को स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग भी नहीं। इस आधार पर परिवर्तन के शाश्वत विधान की लय में जीवन को समायोजित करना एक बड़ा कौशल माना जा सकता है।
वर्तमान को छोड़कर भूत एवं भविष्य में अत्यधिक विचरण भी निराशा का कारण बनता है। कुछ लोग पूर्व में हुए हानि, अपमान, पीड़ा और गलतियों आदि के कारण क्षुब्ध रहते हैं। कुछ भविष्य के खतरों की भयावह कल्पनाएँ कर अवसादग्रस्त हो जाते हैं। भूतकाल में विचरण तथा इसके प्रति ग्लानि पश्चात्ताप में निराश हताश रहना जिससे कुछ सार्थक हाथ लगता नहीं। इसी तरह भविष्य के विचारों में चिंतित रहना भी उचित नहीं। इनमें से अधिकांश बाते काल्पनिक होती है। इसके विपरीत पुरानी गलतियों से सबक लेकर, उज्ज्वल भविष्य के संकल्प के साथ वर्तमान में पुरुषार्थ करते रहें तो ऐसे में भूतकाल के विषाद तथा भविष्य की चिंता से उपजी निराशा से छुटकारा पाया जा सकता है। निराशा का दृष्टिकोण से भी सीधा संबंध रहता है। जैसी सोच व भावनाएँ होंगी, वैसी ही प्रेरणाएँ भी उभरती रहती हैं। यदि दृष्टिकोण एवं भावनाएँ स्वार्थप्रधान हैं और हमें अपने ही लाभ का चिंतन अधिक रहता है, तो ऐसे में असंतोष, अवसाद और निराशा का हावी होना तय है। इसके विपरीत जितना हम परमार्थपरायण सोच रखते हैं, जनकल्याण का भाव रखते हैं, उतना ही जीवन आशा, उत्साह और प्रसन्नता से भरा होगा।
बहुत अधिक सोचते रहने से भी निराशा पनपती है। एक तो ऐसे में कोई ठोस व्यावहारिक कदम नहीं उठ पाता तथा जीवन विफलताओं से भरा रहता है और ऐसे में भूलवश में कोई बुराई या गलत कर्म हो जाता हैं। वह कुकर्म भी भारी अपराध बन जाता है। ऐसे में हीनता की भावना पैदा होती है, निराशा मन में स्थान प्राप्त कर लेती है। मन अवसाद से ग्रसित हो जाता है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है, कि मन को लक्ष्य में व्यस्त रखें और बहुत अधिक सोच-विचार न करें। जीवन को एक खेल समझकर जिएँ, इस जीवनरूपी रंगमंच के नाटक में कुशल पात्र की भाँति अपनी भूमिका अदा करें। यदि राह में कोई गलती हो जाए तो उसे अधिक गंभीरता से न लें, बल्कि इनसे सीख लेकर आगे बढ़ें।
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् ॥

योगदर्शन (1, 33)
योगदर्शन का यह सूत्र हमे मन को शुद्ध कैसे रखा जाए वो शिक्षा की दीक्षा प्रदान करता है। जीवन की दिशा देने का काम करता है। यह निराशा से उभर कर नए व्यवहार का ज्ञान देता है। जीवन में अब निराशा तो चली गई पर जीवन को नई दिशा तय करनी होगी। संसार में सुखी, दुःखी. पुण्यात्मा और पापी आदि सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के प्रति साधारणजन का अपने विचारों के अनुसार राग, द्वेष आदि उत्पन्न होना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति को सुखी देखकर दूसरे अनुकूल व्यक्ति का उसमें राग उत्पन्न हो जाता है, प्रतिकूल व्यक्ति को द्वेष व ईर्ष्या आदि। किसी पुण्यात्मा के प्रतिष्ठित जीवन को देखकर अन्य जन के चित्त में ईर्ष्या आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। उसकी प्रतिष्ठा व आदर को देखकर दूसरे अनेक जन मन में जलते हैं, हमारा इतना आदर क्यों नहीं होता? यह ईर्ष्या का भाव है। इससे प्रेरित होकर ऐसे व्यक्ति में अनेक संशय आते है और दुःखी होते है।
हम किसी को दुःखी देखकर प्राय: उससे घृणा करने लगते हैं, उसे दुत्कार और तिरस्कार के साथ अधिक दुःखी बनाते रहते हैं। ऐसी भावनायें व्यक्ति के चित्त को व्यथित एवं मलिन बनाये रखती हैं। यह समाज की साधारण व्यावहारिक स्थिति है। यही स्थिति निराशा में परिवर्तित होती है। डिप्रेशन जैसी बीमारी जन्म लेती है। इसलिए आध्यात्म जगत का विज्ञान आव्हान करता है, मनुष्य साधना मार्ग पर साधक बन। जहा गुरु हर समय पर तेरा मार्गदर्शन करे। निराशा जैसी अनेकों प्रकार की बीमारी से निपटने के लिए शुद्ध ज्ञान की जरुरत पड़ती है। यही ज्ञान आपको प्रदान किया जा रहा है। योग मार्ग का अनुकरण करने वाला साधक अपने मन को दिशा देता है, अपने लक्ष्य पर मार्गक्रमण करता है। यहां आपको समझना हैं, सामान्य व्यक्ति और साधक का जीवन। योगमार्ग पर चलनेवाला साधक ऐसी परिस्थिति से अपने आपको सदा बचाकर रखता है, अर्थात् विपरित परिस्थितियों में अपने संतुलन बनाके रखता है। साधक के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि उसका चित्त ईर्ष्या, असूया आदि मलों से सर्वथा रहित हो, यह स्थिति योग में प्रवृत्ति के लिए अनुकूल होती है। निर्मल-चित्त साधक योग में सफलता प्राप्त करने का अधिकारी होता है।
सुखीजनों को देखकर साधक उसके प्रति मित्रता की भावना बनाये। मित्र के प्रति कभी ईर्ष्या आदि भाव उत्पन्न नहीं होते। दुःखीजनों के प्रति सदा करुणा-दया, उनके प्रति हार्दिक सहानुभूति का भाव रखे। उनका दुःख किस प्रकार दूर हो सकता है. इसके लिए उन्हें सन्मार्ग दिखाने का प्रयास करे। इससे साधक के चित्त में उनके प्रति कभी घृणा का भाव उत्पन्न नहीं हो पायेगा। इससे दोनों के चित्त में शान्ति और सद भावना बनी रहेगी। इसी प्रकार पुण्यात्मा के प्रति साधक हर्ष का अनुभव करे। योग स्वयं ऊँचे पुण्य मार्ग है। जब दोनों एक ही पथ के पथिक हैं, तो हर्ष का होना स्वाभाविक है। संसार में सन्मार्ग और सद्विचार के साथी सदा मिलते रहें, तो इससे अधिक हर्ष का और क्या विषय होगा? पापात्मा के प्रति साधक का उपेक्षाभाव सर्वथा उपयुक्त है। ऐसे व्यक्तियों को सन्मार्ग पर लाने के प्रयास प्रायः विपरीत फल ला देते हैं। पापी पुरुष अपने हितैषियों को भी उनकी वास्तविकता को न समझते हुए हानि पहुँचाने और उनके कार्यों में बाधा डालने के लिए प्रयत्नशील बने रहते हैं। इसलिए ऐसे व्यक्तियों के प्रति उपेक्षा-उदासीनता का भाव श्रेयस्कर होता है। यह आपको मैत्री, करुणा, मुड़िता, उपेक्षा का भाव किन परिस्थिति में रखना है, यह सूत्र बताता है। यह जीवन को शक्ति देता है, उस नकारात्मकता को दूर करने के लिए! क्युकि जीवन को दिशा देना आपके हाथो मे होता है, जीवन की डोर अगर दुसरो के हाथो में चली गईं तो केवल निराशा ही बचती है। इस सूत्र का जीवन में स्वीकार करना चाहिए। चित्त को निर्मल शुद्ध बनाए।
इस तरह स्वार्थ से परमार्थ की ओर जीवन के दिशा निर्देश में बदलाव ही निराशा का अँधेरा नष्ट कर देता है, और आशा का नवसंचार होता है। इस अवस्था से उबरने के लिए जीवन में विविधता का होना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। कला, संगीत, साहित्य, खेल, मनोरंजन, लोकसंपर्क, यात्रा, तीर्थाटन, धार्मिक कृत्य आदि जीवन के अनेक पहलुओं को अपनी रुचि के अनुरूप दैनिक जीवनक्रम में स्थान देने से उत्साह के कई आधार तैयार किए जा सकते हैं । फिर जीवन सुबह और शाम, रात और दिन जैसे दोनों पक्षों के साथ मिलकर बनता है। इनके प्रति सम्यक दृष्टि हलके-फुलके जीवन का आधार बनती है। इसलिए केवल अँधेरे पर ही ध्यान केंद्रित न करें, सकारात्मक पक्ष पर भी विचार करें। जीवन के घनघोर अंधकार के बीच उज्ज्वल संभावनाओं के बीज अवश्य मिलेंगे। इनको अपने पुरुषार्थ एवं सतत प्रयास का खाद-पानी देते रहें। ये समय पर पुष्पित पल्लिवत होकर अवश्य ही जीवन की बगिया को महकाएँगे। इस तरह ईश्वरीय विधान पर अटल आस्था के साथ अपनी संभावनाओं पर सतत कार्य किसी भी तरह की निराशा से उबरने का एक सुनिश्चित राजमार्ग साबित होता है। फिर जीवन सुबह और शाम, रात और दिन जैसे दोनों पक्षों के साथ मिलकर बनता है। इनके प्रति सम्यक दृष्टि हलके-फुलके जीवन का आधार बनती है। इसलिए केवल अँधेरे पर ही ध्यान केंद्रित न करें, सकारात्मक पक्ष पर भी विचार करें। जीवन के घनघोर अंधकार के बीच उज्ज्वल संभावनाओं के बीज अवश्य मिलेंगे। इनको अपने पुरुषार्थ एवं सतत प्रयास का खाद-पानी देते रहें। ये समय पर पुष्पित पल्लिवत होकर अवश्य ही जीवन की बगिया को महकाएँगे। इस तरह ईश्वरीय विधान पर अटल आस्था के साथ अपनी संभावनाओं पर सतत कार्य किसी भी तरह की निराशा से उबरने का एक सुनिश्चित राजमार्ग साबित होता है। इसलिए महत्व पूर्ण हैं, जो जैसा भी है उसे उसी तरह स्वीकार किया जाए। अनुसंधान का कार्य स्वयं पर करना योग्य है।
फिर जीवन सुबह और शाम, रात और दिन जैसे दोनों पक्षों के साथ मिलकर बनता है। इनके प्रति सम्यक दृष्टि हलके-फुलके जीवन का आधार बनती है। इसलिए केवल अँधेरे पर ही ध्यान केंद्रित न करें, सकारात्मक पक्ष पर भी विचार करें। जीवन के घनघोर अंधकार के बीच उज्ज्वल संभावनाओं के बीज अवश्य मिलेंगे। इनको अपने पुरुषार्थ एवं सतत प्रयास का खाद-पानी देते रहें। ये समय पर पुष्पित पल्लिवत होकर अवश्य ही जीवन की बगिया को महकाएँगे। इस तरह ईश्वरीय विधान पर अटल आस्था के साथ अपनी संभावनाओं पर सतत कार्य किसी भी तरह की निराशा से उबरने का एक सुनिश्चित राजमार्ग साबित होता है। इसलिए महत्व पूर्ण हैं, जो जैसा भी है उसे उसी तरह स्वीकार किया जाए। अनुसंधान का कार्य स्वयं पर करना योग्य है।