Attitude of gratitude

Rule of Third dimension

जीवन का सत्य कुछ और है। जहां आपको जन्म से लेकर मृत्यु तक का वर्तमान में आपकी चेतना विकास करती जाती है। इस जीवन के महत्व पूर्ण पाठ पर मृत्यु ही वह अंतिम सच और गुरु है। जहां आपका समर्पण होना तय है। हमारा आने वाला जन्म इसी बात पर तय होता है, की हमारे चेतना का स्तर कैसा है? हमारे विचार हमे क्या मार्गदर्शन करते जाते है? क्युकी जीवन तो सभी प्राणी जीते हैं! पर मनुष्य जीवन के साथ जीता है। सबसे महत्व पूर्ण बात यह है, मनुष्य के पास चुनने का अधिकर है। वह चुन सकता है, मेरा जीवन कैसा हो?

जल का बहाव अपने पथ पर अविराम बहता चला जाता हैं, दौड़ता चला जाता हैं। उनके पथ पर हजारों बाधाएँ आती हैं, हजारों मुश्किलें आती हैं, हजारों कठिनाइयाँ आती हैं, बड़ी-बड़ी चट्टानें और दीवारें आती हैं, पर वे सबको पीछे छोड़कर अपना मार्ग बनाता जाता हैं और अपने लक्ष्य की ओर और अधिक तीव्रता व संकल्प के साथ बढ़ता जाता हैं। अंततः वे सागर में विलीन होकर स्वयं भी सागर बन जाता हैं, महासागर बन जाता हैं। तब सरिता से सागर, महासागर होने का जो आनंद है, स्वयं का जो विस्तार है, उसे सिर्फ और सिर्फ वे ही महसूस कर पाता हैं, अन्य कोई नहीं। वैसे ही जो साधक साधना-पथ पर अविराम बढ़ते जाते हैं, जो साधना-पथ पर मिलने वाली मुश्किलों, कठिनाइयों, बाधाओं से न घबराकर उनका सामना करते जाते हैं, जो अपनी इच्छाओं को दरकिनार कर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ भगवान के पथ पर आगे बढ़ते जाते हैं उन्हें अंततः उनकी मंजिल मिल ही जाती है।

सत्-चित्- आनंदस्वरूप प्रभु से घुल-मिलकर वे भी सत्-चित्- आनंदस्वरूप हो जाते हैं। वे भी बिंदु से सिंधु हो जाते हैं। वे भी जीवात्मा से परमात्मा हो जाते हैं। मानव से माधव हो जाते हैं। बिंदु से सिंधु होने का आनंद ही परमानंद है, ब्रह्मानंद है। इस आनंद के समक्ष दुनिया के सारे सुख, सारे आनंद बहुत तुच्छ और फीके जान पड़ते हैं।
इस परम सुख, परम आनंद को सिर्फ और सिर्फ सच्चे साधक ही अनुभूत कर पाते हैं अन्य दूसरा कोई नहीं। इस अध्यात्म-पथ पर, साधना-पथ पर चलने वाले लोगों में बहुत थोड़े ही ऐसे होते हैं, जो इस अवस्था को प्राप्त कर पाते हैं।

अध्यात्म जगत का अलंकार : समर्पण

जो लोग आलस्य कर या तो साधना मार्ग से विचलित हो इस पथ का परित्याग कर देते हैं या फिर साधना को ही, अध्यात्म को ही झूठा बताते फिरते हैं। वैसे लोग साधना- पथ पर देर तक टिके नहीं रह पाते क्यों ? क्योंकि उनकी श्रद्धा की जड़ें गहराई तक नहीं गई होती हैं। उनके विश्वास की जड़ें उतनी गहराई तक नहीं गई होती हैं। फलस्वरूप वासनाओं का लोभ का प्रलोभन का कोई प्रवाह उनके अंदर जैसे ही उभरा वैसे हो, उसी पल, उसी क्षण उनकी कामना की जड़ें हिल उठती हैं। उनकी श्रद्धा की, विश्वास की जड़ें उस प्रवाह में उखड़ आती हैं। ऐसे लोगों के लिए साधना मनोरंजन से ज्यादा कुछ भी नहीं। अपितु ऐसे लोग ही साधना में असफल हो हताश-निराश होते हैं। पर जिनकी श्रद्धा की जड़ें, विश्वास की जड़ें गहरी से भी गहरी हैं उनकी साधना को कामनाओं, वासनाओं, इच्छाओं का प्रबल-से प्रबल वेग भी बहा नहीं पाता। ऐसे शूरमाओं को ही साधना पथ पर विजयश्री हस्तगत होती है।

साधना-पथ पर चलते हुए अक्सर हम अपनी ही मान्यताओं, मनोकामनाओं व इच्छाओं को अपने सिर पर मंडराते फिरते हैं और इसलिए हम साधना में असफल हो हताश व निराश होते हैं। आवश्यकता है अपने सिर पर रखी अपनी ही मान्यताओं, मनोकामनाओं और इच्छाओं से भरी भारी-भरकम टोकरी को उतार फेंकने की और स्वयं को पूर्णतः भगवान के हाथों सौंप देने की, स्वयं को पूर्णतः उनके हवाले कर देने की। ऐसा समर्पण साधक तभी कर पाता है, जब उसकी आत्मा से यह पुकार उठने लगी हो कि बस, अब काम, क्रोध, मोह, लोभ से भरा हुआ जीवन बहुत हो चुका, अज्ञानमय और अंधकारमय जीवन अब मुझसे और सहा नहीं जाता और न यह आनंद देता है, और अब तो हमारे जीवन में भगवान के चैतन्य का अवतरण होना ही चाहिए!

हम अच्छे-बुरे जैसे भी हैं हम भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं। अस्तु हमें अब अपने आप को भगवान के हवाले कर देना है। हमें स्वयं को पूर्णतः भगवान को सौंप देना है। अब मेरी कोई इच्छा नहीं। यही आत्मसमर्पण की, पूर्ण समर्पण की दशा है। समर्पण की इस भावदशा को प्राप्त करते ही साधक के सिर पर उसकी निजी मान्यताओं, मनोकामनाओं और इच्छाओं की टोकरी नहीं, वरन भगवान की मान्यताओं और इच्छाओं की टोकरी होती है। वह वही करता है, जो भगवान उसके हाथों से कराते हैं। वह वही सोचता है, जो उसके अंदर वास कर रहे भगवान सोचते हैं। वह भगवान के अधरों पर लगी उस बाँसुरी के समान है, जिससे अब भगवान के स्वर फूटने लगे हैं, जिससे अब भगवान के अपने ही गीत, भगवान के द्वारा ही गाए जाने लगे हैं। साधक तो सिर्फ बाँसुरी बन भगवान के अधरों पर बैठा भर है। उसमें न तो उसका अपना स्वर है और न ही गीत। बाँसुरी में स्वर भी भगवान के हैं और गीत भी उन्हीं के हैं।

पूर्ण समर्पण के बाद साधक एक कोरा कागज मात्र बनकर रह जाता है। ऐसा कागज, जिस पर साधक ने स्वयं कुछ भी नहीं लिखा। न ही अपनी इच्छाएँ, न ही अपनी मान्यताएँ। वह कागज अब कोरा है, जिस पर कोई धब्बा नहीं, कोई लकीर नहीं, वह सिर्फ और सिर्फ सफेद कागज भर है। साधक के ऐसे कोरे हृदय पर ही भगवद्इच्छा अंकित हो सकती है। सचमुच मनुष्य की इच्छा, उसकी व्यक्तिगत इच्छा उसको सीमाओं में बाँधे रखती है, अटकाए रखती है। जब तक मनुष्य, जब तक साधक पूरे का पूरा कोरे कागज-सा नहीं बन जाता, तब तक उस पर भगव इच्छा अंकित नहीं की जा सकती और जब तक साधक के चित्त पर, हृदय पर, आत्मा पर भगवान की इच्छा अंकित नहीं हो जाती, तब तक मनुष्य का, साधक का रूपांतरण संभव नहीं और तब तक उसे भगवान के हाथों का यंत्र हो जाने का अवसर और सुयोग भी नहीं मिल पाता। अस्तु भगवद्इच्छा के को धारण करने के लिए मनुष्य का साधक का आत्मसमर्पण, पूर्ण संपूर्ण आत्मदान आवश्यक होता है और जब वह के ऐसा कर लेता है तभी उसकी स्थिति कोरे कागज जैसी हो पाती है, जिस पर भगवान स्वयं कुछ लिखते हैं, कुछ ऑकित करते हैं, जिससे मनुष्य को पल भर में ही  लोक-परलोक का सारा सौंदर्य, समस्त आनंद हस्तगत हो जाता है।

मनोमय कोश



समर्पण का अर्थ ही है स्वयं का अर्पण अर्थात स्वयं को पूर्णतः दे देना, स्वयं को पूर्णतः खाली कर देना पूर्ण समर्पण का अर्थ है स्वयं को समग्र रूप से, सम्यक रूप से खाली कर देना प्रथम समर्पण तो मन से ही होता है। इसलिए पहले तो मन ही खाली हो जाता है। सब शांत होने लगते हैं, समाप्त होने लगते हैं। उसका मन तब भगवान का मन हो जाता है। तब उसका मन भी उसका मन नहीं रहता, वरन भगवान का मन हो जाता है। ऐसे में उसके देह, प्राण, मन, बुद्धि आदि सभी भगवान के हो जाते । हैं। वे सभी भगवान के अंग-अवयव बन जाते हैं।

तब उससे भगवान ही सोचते हैं, भगवान ही विचारते हैं, भगवान ही उसके हाथों से सब कुछ करते हैं। वह तो भगवान के हाथों का एक यंत्र मात्र बन जाता है। वह पल-पल यह अनुभूति कर रहा होता है कि, उसके अंदर एक असीम आनंद का दरिया वह रहा है। उसके अंदर ज्ञान का प्रेम का सागर उफन रहा है, लहरा रहा है और वह उसमें साक्षी भाव से बहता जा रहा है। सचमुच संपूर्ण समर्पण ही भगवत्कृपा, भगवत्स्पर्श और भगवत्प्राप्ति के का आधार है। संपूर्ण समर्पण से ही होता है साधक का संपूर्ण रूपांतरण। संपूर्ण समर्पण से हो बनता है साधक भगवान के हाथों का यंत्र

आज तनाव बढ़ रहा है, इस लिए महत्व पूर्ण है, की अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना। तनाव और खुशी यह सब मन ही तो खेल है। यही मन को यदि योग्य दिशा दशा प्राप्त हुई तो हम स्वयं भगवान को अर्पण कर अपने कार्य को सफल बना सकते है। आज जरुरत है की, मन को अतिरिक्त भार से मुक्त करने की। आध्यात्म जगत का सौंदर्य भी समर्पण ही हैं। हमे धन्यवाद के भाव की ऊर्जा को अपने जीवन में उतारना होगा। तभी जाकर जीवन सफल बन सकता है।

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