मै चाहता क्या हूं?

जन्म और मृत्यु के बीच की अवस्था का नाम जीवन है। जीवन को समझने से पूर्व जन्म और मृत्यु के कारणों को समझना आवश्यक होता है। जिसके कारण हमारा जीव विभिन्न जीव स्तर पर भ्रमण करता है। जन्म और मृत्यु क्यों? कब ? कैसे और कहाँ होती है? उसका संचालन और नियन्त्रण कौन और कैसे करता है? सभी की जीवन शैली, प्रज्ञा, सोच, विवेक, भावना, संस्कार, प्राथमिकताएँ, उद्देश्य, आवश्यकताएँ आयुष्य और मृत्यु का कारण और एक-सा क्यों नहीं होता? मृत्यु के पश्चात् अच्छे से अच्छे चिकित्सक का प्रयास और जीवन दायिनी समझी जाने वाली दवाईयाँ क्यों प्रभावहीन हो जाती हैं? मृत्यु के पश्चात् शरीर के कलेवर को क्यों जलाया, दफनाया अथवा अन्य किसी विधि द्वारा समाप्त किया जाता है ?
प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं से प्रश्न करना चाहिए कि “मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया हूँ? मुझे मानव जन्म क्यों और कैसे मिला ? मानव जीवन में भी सभी को एक-जैसी परिस्थितियाँ और वातावरण क्यों नहीं मिलते? सभी की आयु एक जैसी क्यों नहीं होती? किसी की बुद्धि, मन, इन्द्रियों और शरीर का पूर्ण विकास होता है तो कुछ जन्म से ही अविकसित, असन्तुलित, विकलांग अथवा अस्वस्थ क्यों होते हैं? जन्म के साथ परिवार, समाज, धर्म और संस्कृति, परिस्थितियाँ, कार्यक्षेत्र तथा जीवन को प्रभावित करने वाले विभिन्न प्रसंगों का संयोग अथवा वियोग क्यों मिलता है? जीवन चलाना तो प्रायः सभी जीव जानते हैं। परन्तु जीवन को सार्थक कैसे बनाना, यह केवल मानव जीवन में ही संभव होता है। सृष्टि में मानव ही एक ऐसा प्राणी है जिसको पाँचों इन्द्रियों के साथ मन, मस्तिष्क, चेतना और विवेक की सर्वोच्य अवस्था प्राप्त होती है, जिसमें जीवन का सर्वाधिक विकास सम्भव होता है। मानव इसी कारण सम्यक् चिन्तन कर अपनी क्षमताओं को पहचान, उसके अनुरूप जीवन का लक्ष्य बना जीवन जी सकता है।
इन सब प्रश्नों के जवाब आपको बाहर नहीं मिल सकते है। केवल भीतर की खोज ही एकमात्र विकल्प शेष रहता है। जीतने खोज और रिसर्च बाहर होते है उतने ही हमारे शरीर के भीतर बदलाव बनते है। इसलिए,
मानव जीवन अमूल्य है। वस्तु जितनी मूल्यवान होती है, उसका उपयोग उसके अनुरूप करने वाला ही सच्चा ज्ञानी होता है। चाय की जो प्याली पाँच रुपए में मिलती है, उसके लिए हज़ार रुपए देने वाला ना समझ होता है। वे सभी व्यक्ति बुद्धिमानों की श्रेणी में नहीं आते जो जानते हैं कि अमुक प्रवृत्ति उनके स्वास्थ्य अथवा जीवन के लिए हानिकारक है, फिर भी उनसे नहीं बचते और जो यह जानते है कि अमुक प्रवृत्तियों से शांति मिलती है, तनाव दूर होता है, निर्भयता आती है, स्वास्थ्य अच्छा रहता है, फिर भी उनकी उपेक्षा करते हैं। हमें चिन्तन करना होगा कि मानव जीवन के रूप में प्राप्त हम अपनी ऐसी अमूल्य क्षमताओं का अनावश्यक कार्यों में दुरुपयोग और अपव्यय तो नहीं कर रहे हैं? मानव योनि को व्यर्थ में ही बर्बाद तो नहीं कर रहे हैं, ताकि भविष्य में अपनी मूर्खता पर पछताना पड़े? जब तक अपनी क्षमताओं का सही उपयोग नहीं होगा, दुःख और रोग के कारणों को नहीं समझा जाएगा तब तक हमारा जीवन अमर्यादित, अनियन्त्रित लक्ष्य-हीन, स्वच्छन्द, असंयमित होने से स्थायी स्वास्थ्य प्राप्त नहीं हो सकता।
स्वास्थ्य के मूल सिद्धान्तों का अध्ययन करने से पूर्व तथा स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले विभिन्न तथ्यों की चर्चा करने से पूर्व स्वास्थ्य क्या होता हैं और रोग किन-किन कारणों से हो सकते हैं? उनको जानना और समझना आवश्यक है ताकि स्वास्थ्य के अनुरूप जीवन शैली अपनायी जा सके और रोग के कारणों से यथा सम्भव बचा जा सके। मृत्यु के लिए सौ सर्पों के काटने की आवश्यकता नहीं होती। एक सर्प का काटा व्यक्ति भी कभी-कभी मर सकता है। ठीक उसी प्रकार कभी-कभी बहुत छोटी लगने वाली हमारी गलती अथवा उपेक्षावृत्ति भी भविष्य में रोग का बहुत बड़ा कारण बन जीवन की प्रसन्नता आनन्द सदैव के लिए समाप्त कर देती है।
स्वस्थ का मतलब होता है रोग-मुक्त जीवन स्वस्थता तन, मन और आत्मोत्साह के समन्वय का नाम है।
- जब शरीर, मन, इन्द्रियाँ और आत्मा ताल से ताल मिला कर सन्तुलन से कार्य करते हैं, तब ही अच्छा स्वास्थ्य कहलाता है।
- शरीर की समस्त प्रणालियाँ एवं सभी अवयव स्वतन्त्रतापूर्वक अपना-अपना कार्य करें।
- किसी के भी कार्य में किसी भी प्रकार का अवरोध, आलस्य अथवा निष्क्रियता न हो तथा उनको चलाने हेतु किसी बाह्य दवा अथवा उपकरणों की आवश्यकता न पड़े।
- मन और पाँचों इन्द्रियाँ सशक्त हो।
- स्मरण शक्ति अच्छी हो।
- क्षमताओं का ज्ञान हो ।
- विवेक जागृत हो।
- लक्ष्य सही और विकासोन्मुख हो तथा जीवन में स्थायी आनन्द, शांति, प्रसन्नता बढ़ाने वाला हो।
- तनाव, चिन्ता, निराशा, भय, अनैतिकता, हिंसा, झूठ, चोरी, व्याभिचार, तृष्णा आदि दुःख के कारणों को बढ़ाने वाला प्राथमिकताएँ सही हो एवं उसके अनुरूप संयमित, नियमित नियन्त्रित जीवनचर्या हो।
- आवश्यकता की क्रियान्विति और अनावश्यक की उपेक्षा का स्वविवेक हो।
- मन का चिन्तन और आचरण सम्यक् एवं संयमित हो। मन में बेचैनी न हो। इन्द्रियों की विषय विकारों में आसक्ति न हो।
- समस्त प्रवृत्तियाँ सहज और स्वाभाविक हो, अस्वाभाविक न हो अर्थात् जिसका पाचन और श्वसन बराबर हो, नियमित हो, सन्तुलित हो।
- अनुपयोगी अनावश्यक विजातीय तत्त्वों का शरीर से विसर्जन सही हो। भूख प्राकृतिक लगती हो ।
- निद्रा स्वाभाविक आती हो। पसीना गन्ध-हीन हो। त्वचा मुलायम हो, बदन गठीला हो।
- सीधी कमर, खिला हुआ चेहरा और आँखों में तेज हो। नाड़ी, मज्जा, अस्थि, प्रजनन, लसिका, रक्त परिभ्रमण आदि तंत्र शक्तिशाली हो तथा अपना कार्य पूर्ण क्षमता से करने में सक्षम हो जो निस्पृही तथा निरंहकारी हो।
- जो आत्मविश्वासी, दृढ़ मनोवली, सहनशील, धैर्यवान, निर्भय, साहसी और जीवन के प्रति उत्साही हो।
- जिसके सभी कार्य समय पर होते हो तथा जीवन नियमबद्ध हो । वास्तव में पूर्ण स्वस्थता के मापदण्ड तो यही हैं।
प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं के स्वास्थ्य की स्थिति पर अवश्य चिन्तन करना चाहिए। जो-जो बातें उसके स्वयं के नियन्त्रण में होती हैं, उसके अनुरूप अपनी जीवनशैली बनाने का प्रयास करना चाहिए। परन्तु आज स्वास्थ्य का परामर्श देते समय अथवा रोग की अवस्था में निदान करते समय प्रायः कोई भी चिकित्सक अथवा स्वास्थ्य विशेषज्ञ व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले विविध कारणों का समग्रता से विश्लेषण नहीं करते। सत्य की पूर्णतः अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती। वह तो व्यक्ति के स्वयं की अनुभूति का विषय होता है। जो भी देखा जाता है, सुना जाता है, कथन किया जाता है, यन्त्रों अथवा परीक्षणों से पता लगाया जाता है वह सत्याश ही होता है। चिकित्सकों द्वारा किया गया ऐसा निदान और परामर्श सदैव कैसे शत-प्रतिशत सत्य और पूर्ण हो सकता है, अपने आपको स्वस्थ रखने की कामना रखने वालों से सम्यक् चिन्तन की अपेक्षा रखता है। अतः स्वस्थ रहने हेतु व्यक्ति के स्वयं की सजगता, विवेक, बुद्धि स्वावलम्बन जीवन पद्धति तथा स्वयं की स्वयं द्वारा नियमित समीक्षा, पूर्ण स्वस्थता की प्राप्ति के लिए अनिवार्य होती है। पराधीन अथवा दूसरों पर आश्रित रहने वाला व्यक्ति स्थायी स्वास्थ्य को प्राप्त नहीं कर सकता है।
आज चिकित्सा करवाते समय उपचार की प्रासंगिकता के बारे में प्रायः रोगी तनिक भी चिन्तन-मनन नहीं करते। चिकित्सक से निदान की सत्यता के संबंध में अपनी शंकाओं और उपचार से पड़ने वाले दुष्प्रभावों के बारे में स्पष्टीकरण नहीं लेते। रोग का मूल कारण जाने बिना उपचार प्रारम्भ करवा देते हैं। आज यह दवा, कल दूसरी, परसों तीसरी दवा। आज यह चिकित्सक, कल दूसरा चिकित्सक, परसों अन्य चिकित्सक कभी यह अस्पताल, कभी दूसरा अस्पताल तो कभी अन्य अस्पताल आज एक चिकित्सा पद्धति, चन्द रोज बाद दूसरी पद्धति और अगर रोग मुक्त न हो तो न जाने कितनी कितनी चिकित्सा पद्धतियाँ बदलते संकोच नहीं करते। स्वयं की असजगता, अविवेक और सही चिन्तन न होने से हमारी सोच लुभावने विज्ञापनों, डॉक्टरों के पास पड़ने वाली भीड़ से प्रभावित होती है। हम असहाय, हताश वन चिकित्सकों की प्रयोगशाला बनते तनिक भी संकोच नहीं करते। आज अधिकांश असाध्य एवं संक्रामक रोगों का एक मुख्य कारण, प्रारम्भिक अवस्था में गलत उपचार से पड़ने वाले दुष्प्रभाव होते हैं, जिसकी तरफ शायद ही किसी का ध्यान जा रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा चलाये जा रहे रोग नियन्त्रक कार्यक्रम से पड़ने वाले दुष्प्रभाव की निष्पक्ष समीक्षा आवश्यक है।

वैश्विक महामारी के बाद दवा इंजेक्शन और वैक्सीन की जबरदस्ती आने वाले दुष्प्रभाव को आमंत्रण दे रही है। जबरदस्ती टिका कारण का विरोध होना ही चाहिए। उनसे पड़ने वाले दुष्प्रभावों की क्षति पूर्ति के कारण लोग अकारण बीमार पड़ रहे है। उपचार हेतु सही दृष्टिकोण आवश्यक है। अन्यथा हमे जीवन जीने के लिए फार्मेसी कंपनी यो पर आधारित रहना होगा। यह किसी षडयंत्र से कम तो नहीं है। खुद का स्वस्थ खुद के हाथों में है।
क्या हमारा श्वास अन्य व्यक्ति ले सकता है? क्या हमारा भोजन अन्य कोई पचा सकता है? क्या दूसरों के खाने से और पानी पीने से हमारी भूख अथवा प्यास शान्त हो सकती है? दूसरों की आँखों से हम नहीं देख सकते, दूसरों के कानों से हम नहीं सुन सकते, दूसरों के पैरों से हम नहीं चल सकते अपने स्वयं की गतिविधियों के संचालन, नियन्त्रण आदि से जितने हम स्वयं परिचित होते हैं, उतना प्राय: दूसरा व्यक्ति परिचित हो नहीं सकता। हम क्यों तनावग्रस्त, चिन्तित, निराश भयभीत हैं? उनका सही विश्लेषण अन्य व्यक्ति अथवा यंत्र नहीं कर सकता। हम स्वयं अपने खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार और गलत जीवनचर्या के अप्राकृतिक तरीकों से रोगों को आमन्त्रित करते हैं, परन्तु दवा और डॉक्टर से पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्ति की कामना रखते हैं। कितना भ्रम है? डॉक्टर एवं दवा मात्र सहयोगी की भूमिका निभा सकते हैं, परन्तु जब तक हमारा शरीर उस सहयोग को स्वीकार नहीं करेगा, तब तक अच्छे से अच्छी दवा तथा बड़े से बड़ा चिकित्सक हमें पूर्ण स्वस्थ नहीं बना सकता। मात्र आंशिक राहत पहुँचा सकता है। स्वास्थ्य को बनाए रखने में स्वयं की सजगता, सम्यक् चिन्तन और सम्यक् पुरुषार्थ की सर्वाधिक आवश्यकता होती है। मानसिक असन्तुलन अथवा रोग का आभास होने की स्थिति में रोगी को पिछले 48 घंटों की अपनी गतिविधियों की समीक्षा करनी चाहिए। हमें स्वयं ही अपनी गलती का पता चल जायेगा, जिसके कारण रोग का प्रारम्भ हुआ है। रोग की प्रारम्भिक अवस्था में हमें जो संकेत मिलते हैं, उनकी समीक्षा करें तथा भोजन, पानी, हवा के ग्रहण करने में होने वाली भूलों को सुधारने हेतु आवश्यक संशोधन करें, कारण मालूम पड़ते ही समाधान ढूंढना अथवा उपचार सरल हो जाएगा। स्वस्थ रहने की कामना रखने वालों को प्रतिदिन अपने स्वास्थ्य की समीक्षा करनी चाहिए।
मानव शरीर की तुलना दुनिया के सर्वश्रेष्ठ स्वचलित यंत्रों से की जा सकती है। स्वचालित यंत्रों के साथ जितनी कम छेड़-छाड़ की जाए उतना अच्छा होता है। मनुष्य के अलावा अधिकांश चेतनाशील प्राणी में सहज जीवन जीने के कारण अपेक्षाकृत कम रोगग्रस्त होते हैं। उन्हें अपने शरीर का विशेष ज्ञान भी नहीं होता। रोजाना दांतुन न करने के बावजूद उनके दाँत मनुष्य की भांति जल्दी खराब नहीं होते। उन्हें देखने के लिए चश्में की आवश्यकता नहीं होती। नवजात बालक भी सहज जीवन जीता है। उसकी अधिकांश शारीरिक बाह्य क्रियाएँ स्वाभाविक और प्राकृतिक होती है। उससे भी हम स्वस्थ रहने की काफी बाते सीख सकते हैं। उसमें किसी के प्रति न राग होता है और न द्वेष, इसी कारण बच्चा सभी को प्यारा लगता है। वह जब श्वास लेता है तो उसका पेट पूरा फूलता है अर्थात् वह गहरा और पूरा श्वास होता है। यदि हम बच्चे की भाँति सदैव गहरा और पूर्ण श्वास लेना प्रारम्भ कर दें तो अनेकों स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का स्वतः समाधान हो जायेगा। बच्चा जब सोता है तो सिर्फ सोता ही है। निश्चिन्त होकर सोता है, परन्तु कुछ लोग निद्रा में भी कुछ न कुछ चिन्तन करते रहते हैं। बच्चा कहीं नहीं जा सकता। चल-फिर नहीं सकता। फिर उसका पाचन कैसे होता है? उसका विकास इतना जल्दी क्यों और कैसे होता है? आखिर वह क्या व्यायाम करता है? हम प्राय: देखते है बच्चा पैरों को चलाता है, उसका पाचन और मल-मूत्र विसर्जन तंत्र ठीक से कार्य करता है। यदि हम भी नियमित रूप से ऐसा व्यायाम करना आरम्भ कर दें तो हम पाचन सम्बन्धी काफी रोगों से बच जाएँगे। पैरों में ऊर्जा का प्रवाह बराबर होने से घुटनों और पैरों सम्बन्धी अन्य रोगों की सम्भावना नहीं रहेगी।

बच्चा झूठ नहीं बोलता यदि हम भी सत्य का आचरण करें तो जीवन में निर्भयता आ सकती है। अनैतिकता, मायावृति, छल कपट, अहं स्वतः समाप्त हो जाता है, जो मानसिक रोगों का मुख्य कारण है। इन सभी बातों की शिक्षा बच्चे को कहाँ से मिलती है? यदि हम भी प्रकृति के साथ सहज जीवन जीना प्रारम्भ कर दें और शरीर के साथ, अनावश्यक छेड़छाड़ न करें तो हमारा स्वास्थ्य हमारे अनुकूल होगा तथा किसी कारणवश रोग होने की अवस्था में भी हम पुनः जल्दी स्वस्थ हो सकेंगे। हम स्वयं अपनी प्राथमिकताओं का चयन करें-“स्वस्थ बने या रोगी”
स्वस्थता हेतु जीवन में हल्कापन अनिवार्य हैं। सरलता, लघुता, हल्कापन स्वास्थ्य का प्रथम लक्षण है। अस्वस्थता से पूर्व हमें शरीर में भारीपन का अनुभव होने लगता है। बेचैनी लगने लगती है। जैसे ही शरीर हल्का अनुभव करने लगता है, हम स्वस्थता का अनुभव करने लगते हैं। जब हमारे संस्कारों और वृत्तियों में निष्कपटता आने लगती हैं, हम अपने आपको निर्भय, तनाव मुक्त और हल्का अनुभव करने लगते हैं। भारीपन क्यों, कब और कैसे आता है? उसके समझे बिना तथा उन कारणों से बचे बिना हल्केपन की प्राप्ति कठिन होती है।
हम जो कार्य करते हैं उसका उतना भार नहीं होता, जितना भार होता है उस कार्य की स्मृति अथवा कल्पना का वर्तमान का क्षण बहुत विचित्र होता है। अतः यदि भूत की स्मृति और भविष्य की कल्पना न की जाये तो मानसिक असंतुलन के दोषों से सहज ही बचा जा सकता है। कहा भी है-“भूत सपना है, भविष्य कल्पना है, और वर्तमान अपना है।” दुःख की स्मृति और कल्पना का अनावश्यक चिंतन भी मानसिक भारीपन का प्रमुख कारण होता है। अतः यदि वर्तमान में सहज जीना सीख लें तो हमारी अनेक समस्याओं का समाधान सहज संभव हो जाता है।
एक ही मिट्टी, पानी, हवा, धूप और परिश्रम के बावजूद पास-पास विकसित होने वाले गन्ने में इतना मिठास और नीम में इतना कड़वापन क्यों ? कारण स्पष्ट है, हम अपनी क्षमताओं से पूर्णतया परिचित नहीं है। जिसने उसको समझा, सदुपयोग किया उसने हमारे सामने सम्यक् चिन्तन करने की प्रेरणा अवश्य प्रस्तुत की। आधुनिक स्वास्थ्य वैज्ञानिक शरीर के सूक्ष्मतम भाग का यंत्रों और रासायनिक परीक्षणों द्वारा निरीक्षण और परीक्षण कर शरीर की गतिविधियों को समझने और समझाने का प्रयास कर रहे हैं, परन्तु आत्मा अरूपी है, निराकारी है, जिसको देखना सम्भव नहीं। आत्मा में अनन्त शक्तियाँ हैं, जो उसकी शुद्धावस्था में प्रकट होती हैं। जब आत्मा पूर्ण शुद्ध हो जाती है तो उसमें सृष्टि की समस्त प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष घटनाएँ दर्पण की भाँति प्रतिबिम्बित होने लगती हैं। आत्मा परमात्मा बन जाती है। ऐसी अवस्था को वीतराग अवस्था अथवा केवल ज्ञान की स्थिति कहते हैं। जहाँ सारा अज्ञान दूर हो जाता है, केवल ज्ञान ही शेष रहता है। सम्पूर्ण आत्मानुभूति की अवस्था में आज की भौतिक जानकारी तो होती ही है, परन्तु उससे भी आगे ब्रह्माण्ड के भूत, भविष्य एवं वर्तमान की सूक्ष्मतम एवं सम्पूर्ण जानकारी भी होती है। वे ही वास्तव में सच्चे एवं बड़े वैज्ञानिक होते हैं, और उनका कथन ही वैज्ञानिक होता है, वे सत्य के प्रेरणा स्रोत होते हैं। उनका उपदेश न केवल भौतिक उपलब्धियों तक ही सीमित होता है, अपितु जीवन के परम लक्ष्य तक का मार्ग दर्शन करता है। उसमें नर से नारायण, आत्मा को परमात्मा बनाने की क्षमता होती है। मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य, शांति और समाधि के लिए ऐसे महापुरुषों के निर्देशानुसार विवेक पूर्ण जीवनचर्या आवश्यक होती है। उसके विपरीत आचरण कर शरीर को स्वस्थ रखने की कल्पना शारीरिक रोगों से भले ही क्षणिक आंशिक राहत दिला दें, अन्त हानिकारक होती है, भविष्य के लिए कष्टदायक हो सकती है।
प्रश्न खड़ा होता है कि बिना शरीर विज्ञान की विशेष अथवा पूर्ण जानकारी के क्या स्वस्थ नहीं रहा जा सकता? क्या मात्र साधारण, सरल परन्तु आवश्यक जानकारी, मूल सैद्धान्तिक नियमों का पालन कर हम स्वस्थ जीवन नहीं जी सकते? क्या अनुभवी चिकित्सक एवं दूसरों के रोगों का उपचार करने वाले स्वास्थ्य विशेषज्ञ शरीर की विशेष जानकारी के बावजूद बीमार नहीं होते? जिस प्रकार बिजली का बटन चालू करते ही बल्ब से हमें प्रकाश मिलने लगता है। बटन चालू करने की प्रक्रिया बहुत ही सरल और सहज होती है, जिसे जनसाधारण आसानी से सीख सकता है। बटन चालू करने से पूर्व बिजली घर से बिजली के उपयोग करने की स्वीकृति नहीं लेनी पड़ती है। बिजली का के तारों को यह जानने की आवश्यकता नहीं होती कि बिजली का आविष्कार किसने किया? उसको यह जानने की भी आवश्यकता नहीं होती कि बिजली का प्रवाह कैसे होता है ? बटन चालू करने की विधि के साथ बिजली के उपकरण का प्लग से सम्बन्ध जोड़ना, बिजली के तारों को न छूना, फ्यूज बदलने जैसी सामान्य जानकारी रखने वाला बिजली का अधिकाधिक उपयोग कर सकता है। ठीक उसी प्रकार शारीरिक अवयवों की सम्पूर्ण जानकारी के आवश्यक मूलभूत चन्द सिद्धान्तों और नियमों जैसे- जीवन के लिए आवश्यक भोजन, पानी, हवा, धूप का प्रयोग कब, कहाँ और कैसे करना, प्रकृति के अनुकूल दिनचर्या और रात्रिचर्या, व्यायाम, आराम, स्वाध्याय, ध्यान, मौन की साधना कब और कैसे करना तथा सन्तुलन कैसे बनाये रखना और सन्तुलन बिगाड़ने वाली बातों से कैसे बचना आदि का पालन कर कोई भी स्वस्थ जीवन जी सकेता है? सारांश यह है कि जनसाधारण को मात्र इतनी जानकारी हो जाए कि शरीर और मन का असन्तुलन क्यों और कैसे बिगड़ता है? शरीर की प्रतिकारात्मक शक्ति क्यों और कैसे कम होती है ? उससे कैसे बचा जा सकता है? शरीर की प्रतिकारात्मक शक्ति को कैसे बढ़ाया जा सकता है? शरीर, मन और आत्मा के विकारों को कैसे दूर किया जा सकता है? मात्र इतनी जानकारी रखने वाला और उसके अनुरूप आचरण करने वाला आसानी से स्वस्थ जीवन जी सकता है।
हमारा स्वास्थ हमारे हाथों में ही है। इसलिए कोई भी रोग बड़ा नहीं है। आपका संकल्प बड़ा हैं। आपकी संकल्प शक्ति आपको नया उत्साह प्रदान करेगी। योग्य दिनचर्या के साथ आपको जीना है। विचारो में पवित्रता, आहार में सात्विकता महत्व पूर्ण है। सब से मूल बात निरोगी जीवन, रोग मुक्त जीवन, दवा मुक्त जीवन जीना हमारा मूलभूत अधिकार है।
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