A win win attitude

मानवी व्यक्तित्व में अन्तनिहित समग्रता!

पदार्थवादी दृष्टिकोण वाले बौद्धिक मनुष्य को जैव रासायनिक संयोगों का एक आकस्मिक समुच्चय ही मानते रहे हैं। उस स्थिति में सम्पूर्ण व्यक्तित्व की किसी विशिष्ट एक सूत्र का प्रश्न ही नहीं उठता। रंग, रक्त, शरीरस्थ रसों आदि की दृष्टि से निश्चित वर्गों का निर्धारण हो जाने पर तो यह और भी निश्चित माना जाने लगा कि जिस प्रकार कुछ तत्वों की निश्चित मात्रा एवं निर्दिष्ट प्रक्रिया में सयोग मे अमुक यौगिक विशेष फल तैयार हो जाता है, उसी प्रकार कुछ निश्चित तत्वों के संयोग में सफल हो जाने पर वर्ग विशेष के मनुष्य भी तैयार हो जाएंगे।

लेकिन विज्ञान प्रेमियों की इस कल्पना को ध्वस्त किया है, खुद वैज्ञानिकों ने। जैसे-जैसे जीवन के रहस्यों की खोज का क्रम बढ़ता गया, वैसे-वैसे वे तथ्य सामने आते गये, जिनसे स्पष्ट होता गया कि शरीर के ढाँचे वर्ण, कद, आकृति, रक्त हड्डियों आदि के हिसाब से तो वर्गीकरण ठीक हैं। किन्तु जीवन के गहरे आधारो के क्षेत्र में इस वर्गीकरण से काम नहीं चलेगा। चेतना की विद्यमानता प्रत्येक व्यक्तित्व को एक समग्र रूप देती है। जो दूसरे से बिल्कुल भिन्न है और इस लिये जिसे वर्गों में नहीं बांधा जा सकता क्योंकि हर व्यक्ति अपने आप में एक पूर्ण इकाई है। उस परमसत्ता का ही एक अंश है। अपना वर्ग उपवर्ग वह स्वयं है। इस लिए मनुष्य को अपने भाग्य का विधाता मानते है। व्यक्ति के संस्कार उसकी जन्म-जन्मान्तर की संचित सम्पदाए और साधन है। यह मान्यता भारतीय तत्व दर्शन की रही है। संस्कारों का यह सम्पुञ्जन बहुआयामी और अति विस्तृत होता है। संस्कार रूपी ये विशेषताए व्यक्ति की स्वयं उपार्जित क्षमताएं होती हैं । इन्हीं से व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व में उसकी अपनी विशिष्टता घनीभूत रहती है।

दृश्यमान मानव शरीर की स्थूल संरचना में बहुत अधिक अन्तर नहीं होता। तो भी कोई दो व्यक्ति शत प्रतिशत एक जैसे नहीं होते। फिर अन्तरंग क्षेत्र तो और भी विस्तृत है। प्रत्येक व्यक्तित्व का अलग-अलग अनुठापन होता है। जो संस्कार समूहों की ही विशेषता होती है।
यह विशेषता ही मनुष्य की प्रवृत्तियों रुचियों और सामर्थ्य के रूप में प्रकट होती रहती है। कोई प्रचण्ड शरीर बल का स्वामी है, तो किसी में उसकी अल्पता होती है। कोई विलक्षण मेधा और स्मरण शक्ति से सम्पन्न है। तो किसी की बुद्धि में स्थूल बातों के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता हैं, और स्मरण शक्ति भी मन्द होती है। किसी के हृदय में करुणा का अथाह समुद्र उमड़ता रहता है, तो किसी को पर-पीड़न में ही पुरुषार्थ प्रतीत होता है । ये सभी भिन्नताएं ईश्वरीय अनुदान में किसी प्रकार के पक्षपात या विषमता का परिणाम नहीं है, वरन् जन्म-जन्मान्तरों से अमुक व्यक्ति द्वारा बढ़ाई जा रही विशेषताओं या खोयी जा रही क्षमताओं का ही और फल हुआ करती हैं। व्यक्ति विकास के स्तर को हमे समझना होगा।

जिस प्रकार मिट्टी में पत्थर प्रतीत होने वाली वस्तुओं के तल में इलेक्ट्रान-प्रोटान और उनकी आधारभूत विद्यतु-तरंगे सक्रिय रहती है। उसी प्रकार स्थूल दृष्टि से जो काय कलेवर के अवयव हाड़-मांस के बने दीखते हैं उनमें चेतन कोशिकाएं और उनके भी मूल में जीन्स क्रोमोसोम की निर्माणकारी चेतना प्रक्रियाएं क्रियाशील रहती हैं। प्रत्येक मनुष्य के अपने व्यक्तित्व की विशिष्ट छाप उन मूलभूत तत्वों तक में विद्यामान होती है। इस विशेषता का पता चला आणविक जैविकी के विकास से, जिसकी भव्य परिणति के रूप में पिछले दिनों दुनिया की प्रथम शिशु का प्रदुर्भाव हो सका है और जिसने परे संसार को रोमांचित कर दिया है।

आणिविक जैविकी की खोजों से यह तथ्य सामने आया कि जीवन की मूलभूत इकाई है, कोशिका ये इकाइयाँ अति सूक्ष्म होती हैं। ये प्राणिमात्र की देह इकाइयां हैं। एक कोशीय जीव अमीबा से लेकर विकसित मनुष्य तक किसी स्वस्थ हृष्ट-पुष्ट युवक के शरीर में लगभग साठ हजार अरब कोशिकाएं होती हैं। इनमें से दस हजार अरब तो ऐसी इकाइयां ही हैं, जो स्वयं प्रक्रिया को परिचालित करती हैं। जितनी जगह में ‘मैं कोशिका है” छपा है, उतनी जगह में औसत आकार की पचास हजार कोशिकाए रखी जा सकती है। एक कोशिका का अपना सिस्टम है, जिनमे पाया गया है, की एक कोशिका में 8 GB तक का स्टोरेज रहता है। मानव शरीर ईश्वर द्वार बनाया गया कंप्यूटर है।

इनमें से प्रत्येक कोशिका एक शानदार कारखाना है। जो उत्पादन, कचरे के निष्कासन, सक्रियता, सुव्यवस्था एवं प्रशासन की सुनियोजित प्रणाली से क्रियाशील है। इस कारखाने के तीन मुख्य खण्ड होते हैं- पहला बाहरी खोल, जो एक पतली झिल्ली जैसा होता है, दूसरा साइटोप्लाज्म जैसे लसलसे पदार्थ से लबालव भाग और तीसरा केन्द्रक। यह केन्द्र ही प्रत्येक गतिविधि का नियन्त्रक होता है। केन्द्रक में ही डीएनए रहता है। जो मनुष्य के गुणसूत्रों तथा अन्य सूचनाओं का भंडार होता है। सच पूछा जाय तो कोशिका एक बड़ी झील है, इसे जीव-द्रव्य या प्रोटोप्लाज्म की झील कह सकते हैं। जीव चेतना को क्षीर सागर भी कहा जा सकता है। इसी क्षीर सागर के केन्द्र में है केन्द्रक या न्यूक्लिस रूपी विष्णु जिनकी नाभिवत् केन्द्रिका न्यूक्लिओलस में रहते हैं डीएनए रूपी ब्रह्मा । इन ब्रह्मा के चार मुँह हैं- डीएनए रूपी सीढी की पौड़ियों के चार यौगिक एडिनिन, ग्वैनिन, साइटोसिन और थाइमिन । एडिनिन और थाइमिन का सदा जोड़ा रहता है तथा साइटोसिन और ग्वैनिन का। इन चारों का क्रम ही समस्त जीवों की समानता या भिन्नता का मूल है।

चेतना विज्ञान

डीएनए का जो कुण्डली का फीता है। उसके उपयुक्तता के लिए सर्व व्याप्त चेतना से तादात्म्य स्थापित करने के और कोई उपाय भी नहीं। एक ही आत्मा सब में समाया हुआ है। एक ही सूर्य लहरों में प्रतिविम्बत हो रहा है। यह प्रतिविम्ब भिन्न-भिन्न में उसी रूप से फीका दिखाई पड़ता है। रुप आकार प्रकार की यह भिन्नता कोशिकाओं तक में देखी जा सकती है। चमड़ी का बाहरी हिस्सा चपटी कोशिकाओं से बना है। तो पाचन प्रणाली की कोशिकाएँ सिलेन्डर के आकार की होती। माँसपेशियों की कोशिकाएं आकुंचन प्रसारण में सहायक होती तो गुर्दे की मूत्र निर्माण – निष्कासन में सहायक होती हैं। किन्तु अन्य भी कोशिका हो उसमें वे विशिष्टताएं विद्यमान होती हैं जो व्यक्तित्व का सार हैं। उनका पुनरुत्पादन सम्भव है। इसी आधर पर वैज्ञानिक दावा करते हैं, कि यदि महात्मा गाँधी की त्वचा की कोशिकाएं लेकर उनके ऊतक कोषिकाये बना लिये गये होते तो तक कुछ दिनों बाद तकनीक विकसित होने पर उन्हीं ऊतक कोशिकाएं से हजारों गाँधी बनाये जा सकते थे। यदि आज रोनाल्ड रीग अथवा फ्रेंचर की त्वचा की कोशिकाएँ इसी प्रकार रख ली जाए, कल उन्हीं से अनेकों रीग अथवा अनेको नेता बनाये जा सकते हैं।

चेताना विज्ञान और अणु जैविकी के अन्वेषण में कदम-कदम पर पैदा होने वाली नई-नई कठिनाइयाँ एवं प्रतिक्रियाए वैज्ञानिक की इस सामर्थ्य सम्भावना को साकार कर सकेंगी अथवा नहीं यह खोज का विषय है। परंतु एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि जिस प्रकार एक व्यक्ति के आगे की छाप दूसरे व्यक्ति से और एक के स्वरों का ध्वनि-चित्रांकन दूसरो के स्वरों के ध्वनि चित्रांकन से भिन्न होते हैं। साथ ही एक मनुष्य के शरीर में विद्यमान खरबों कोशिकाओ में से प्रत्येक में उसकी आधार भूत विशेषताएं सुरक्षित होती है। इसका अर्थ हुआ कि मनुष्य की सम्पूर्ण सत्ता में समग्रता है। वह चित्र विचित्र प्रवृत्ति प्रवाहों का आकस्मिक मेल नहीं है। उसकी भावनाएं भिन्न-भिन्न रासायनिक तत्वों के यों ही एकत्रीकरण से नहीं पैदा होती, अपितु उसके रोम-रोम में अंग अंग में उन कोशिका ओं का सारभूत अंश विद्यमान होता है।

इसी तथ्य से एक अन्य निष्कर्ष भी सामने आता है। मृत्यु के बाद मनुष्य के मस्तिष्क के प्रोटोप्लाज्म के बिखर जाने और उसके सौ वे भाग का अश-विशेष के अन्य मनुष्य में प्रविष्ट हो जाने की बात कई वैज्ञानिक को के द्वारा उन प्रमाणों के सन्दर्भ में की जाती रही है जहाँ व्यक्ति अपने कथित पूर्व जन्म का कोई प्रमाणिक विवरण दे देता किन्तु कोशिका सम्बन्धी ये खोजें उस तर्क को कमजोर बनाती जब शरीर के किसी भी हिस्से की कोशिका में व्यक्ति की सभी मूलभूत विशेषताएं संरक्षित रहती हैं। तो मस्तिष्क की कोशिका का टोप्लाज्म बिखर कर घूमघूम कर दूसरे में प्रविष्ट होने के स्थान पर उन कोशिका के ही नये रूप में पहुँचने की सम्भावना है। अभी इसके अनेक रहस्य अज्ञात के गर्भ में ही हैं। इतना ही स्पष्ट हुआ कि हर नयी कोशिका अपनी जननी कोशिका से समस्त सूचनाए संकेत लेकर अपना नया कारखाना खोलती है। नुवंशिकी कूट भाषा अभी तक पूर्णतः जानी नहीं जा सकी है। रहस्य खुलने पर वह जानकारी जीव-कोशिकाओं में निहित चेतना अविच्छिन्नता पर भी प्रकाश डाल सकेगी। आणविक जैविकी की इन खोजों ने ये दो बात अब तक स्पष्ट हैं-सभी जीव-कोशिकाओं की मूलभूत रचना-प्रक्रिया एक है। इस व्यक्तित्व की वे इकाइयाँ होती हैं। उसकी सभी आधरभूत विशेषता इनमें सूत्र रूप में सन्निहित होती हैं। दोनों ही तथ्य भारतीय दर्शन के प्रतिपादन के अनुरूप हैं । वेदान्त दर्शन की मान्यता है कि एक ही चेतन-तत्व भिन्न-भिन्न दृश्यों के रूप में सर्वत्र दीखता है। साथ ही इन दृश्यों का बनना-बिगड़ना भी आकस्मिक नहीं है। यह एक सुनिश्चित सृष्टि प्रक्रिया का अंग है। अपितु उसी व्यवस्था के नियमों के अनुसार होता है।

चेतना का स्तर और डीएनए

हमारी चेतना का स्तर न तो आकस्मिक है और न अन्तिम या अपरिवर्तनीय। न तो इसका चाहे जैसे संयोग होता है न ही चाहे जैसा विघटन। इस सृष्टि में सभी कुछ सुव्यवस्थित और नियम बद्ध है और चेतना से परिपूर्ण है। वस्तुतः शरीर एक परिपूर्ण ब्रह्माण्ड है। प्राकृतिक परमाणु (जो साइटोप्लाज्मा निर्माण करते ) उसके लोक की रचना करते हैं और एटम मिलकर एक चेतना के रूप में उसे गतिशील रखते हैं। सूर्य, परमाणु प्रक्रिया का विराट् रूप है। इसलिये वही दृश्य जगत की आत्मा है, चेतना है, नियामक है, सृष्टा है। उसी प्रकार सारी सृष्टि का एक अद्वितीय स्रष्टा और नियामक भी है पर वह इतना विराट है कि उसे एक दृष्टि में नहीं देखा जा सकता । उसे देखने समझने और पाने के लिये हमें परमाणु की चेतना से प्रवेश करना पड़ेगा, योग साधना का सहारा लेना पड़ेगा, अपनी चेतना को इतना सूक्ष्म बनाना पड़ेगा कि आवश्यकता पड़े तो वह काल ब्रह्माण्ड तथा गति रहित परमाणु की नाभि सत्ता में ध्यानस्थ केन्द्रित हो सके। उसी अवस्था पर पहुँचने से आत्मा को परमात्मा स्पष्ट अनुभूति होगी।

चार यौगिक उसकी चार अक्षर वर्णमाला है। इन्हीं अक्षरों के क्रम और डीएनए की संख्या के उलट फेर से भिन्न-भिन्न चेतना संदेश तैयार हो जाते हैं और उन चेतना सन्देशों से ही बनता यह सारा चेतना संसार। गुणसूत्र के डीएनए के एक क्रम से व्यक्ति का काला रंग बनता है तो अन्य भिन्न-भिन्न क्रम से गोरा,या पीला। देह के प्रत्येक अवयव और उनकी विशिष्टताओं का निर्माण इन्हीं डीएनए के हेर-फेर से हुआ करता है। कोशिकाओं के भीतर का डीएनए ही प्रोटीनों के संश्लेषण का निर्देशक है। इन प्रोटीनों से बनते हैं एंजाइम । प्रत्येक जैव-रासायनिक क्रिया का प्रारम्भ, विकास या अन्त इन्हीं एंजाइमों का खेल है। दुनिया में प्राणियों की बोलियाँ भिन्न-भिन्न हैं। एक प्राणी दूसरे वर्ग के प्राणी की बोली कम समझ पाता है। मनुष्य ने तो भिन्न मत भाषाएँ विकसित की हैं और जिस भाषा-बोली का उसे ज्ञान नहीं उसका आशय अभिप्राय वह नहीं समझ पाता। कई बार तो मनोदशा और ज्ञान स्तर की भिन्नता से एक ही भाषा के बोलने वाले दो व्यक्ति एक दूसरे का अभिप्रायः ठीक-ठीक नहीं समझ पाते। अपितु सभी जीवों की रासायनिक भाषा एक है और प्रत्येक जीव कोशीका उससे भली भांति अवगत है। उस भाषा का जो अर्थ जीवाणु कोशिका के लिए है वही अर्थ मानव कोशिका के लिए, इन सबसे यही स्पष्ट होता है कि सभी प्राणियों में क्रियाशील मूलभूत चेतना एक ही है और उनकी संरचना के आधारभूत सूत्र एक में हैं।

भारतीय तत्वदर्शी प्रखर साधनाओं द्वारा इसी एकमेव अद्वैत चेतन सत्ता और उसके लिए, क्रियाकलापों की जानकारी में समर्थ होते रहे हैं। तभी वे सूक्ष्म जगत में उभरने वाली हलचलों की जानकारी प्राप्त करने में समर्थ होते। इसलिए अंत में हमे हमारे जीवन का लक्ष्य तय करना होगा? हमे उस यात्रा के लिए तैयार होना हैं, जो भीतर के चिदाकाश का द्वार तक लेके जाती है। हमे तैयार होना है, उस सवाल के लिए “मैं चाहता क्या हूं??

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आध्यात्म योग

ज्ञान, कर्म, और उपासना का संयोग है “आध्यात्म”

ज्ञान कर्म और उपासना, व्यक्ति इन तीनों से कभी भी खाली नहीं रहता। इन तीनों को शुद्ध बनाएं। तभी आपका इस जीवन का भविष्य तथा अगले जन्मों का भविष्य सुखदायक होगा। कर्मों का फल बहुत जटिल विषय है। बड़े-बड़े विद्वान इस विषय को ठीक से समझ नहीं पाते। ऋषियों ने वेदों का गहराई से अध्ययन किया, चिंतन मनन किया, और कर्मफल के विषय में कुछ बातें सबके सामने प्रस्तुत की।”उनके अनुसार यह सार है, कि जो भी व्यक्ति, जो भी कर्म करता है, उसको उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। फल भोगने में कोई भी छुटकारा नहीं है। जैसे बिजली की तार छूने से करंट लगता है। इसमें एक बार भी माफी नहीं होती। ऐसे ही कर्म फल में, ईश्वर के कानून में, कहीं भी कोई भी माफी नहीं होती।थोड़े कर्म का थोड़ा फल। अधिक कर्म का अधिक फल। अच्छे कर्म का अच्छा फल। बुरे कर्म का बुरा फल, मिलता अवश्य है। अपने सही समय पर मिलता है। किस कर्म का फल कब कहां क्या और कैसे देना, इसका निर्धारण ईश्वर करता है। क्योंकि वही इस विषय को ठीक प्रकार से जानता है, और कर्मफल देने में समर्थ भी है।

जैसा कि ऊपर कहा है, उसके अनुसार ईश्वर की कर्म फल व्यवस्था को समझें। अपने ज्ञान कर्म उपासना को ठीक करें। यदि आपका ज्ञान ठीक है, तो आपका कर्म भी ठीक होगा। और उपासना भी ठीक होगी। यदि ज्ञान में गड़बड़ है, तो कर्म और उपासना में भी गड़बड़ रहेगी। आपका ज्ञान कर्म उपासना ठीक है या नहीं, इसकी कसौटी ईश्वर का संविधान वेद है। इसलिए वेदों को पढ़ना आवश्यक है।वहीं से पता चलेगा, कि आप का ज्ञान कर्म उपासना ठीक चल रहा है, या नहीं। क्योंकि इसी पर आपका भविष्य टिका है।

अध्यात्म एक ऐसा विज्ञान है, जिसमें सुनिश्चित साधनात्मक विधान को अपनाते हुए दो प्रयोजन सिद्ध किए जाते हैं। एक है-अंतराल की प्रसुप्त विभूतियों का जागरण और दूसरा है-अनंत ब्रह्मांड में व्याप्त ब्राह्मी चेतना का अनुग्रह अवतरण। इसको संभव करने के लिए साधक को दो कदम बढ़ाने होते हैं, जिनके नाम हैं-तप और योग । तप में जहाँ चित्त का परिशोधन होता है तो वहीं योग में चेतना का परिष्कार। परिशोधन अर्थात संचित कर्म का, कुसंस्कारों का दुष्कर्मों के प्रारब्ध संचय का निराकरण। वहीं परिष्कार का अर्थ है- श्रेष्ठता का जागरण, अभिवर्द्धन इस तरह तपश्चर्या एवं योग साधना के दो चरणों को अपनाते हुए अध्यात्म का प्रयोजन पूरा किया जाता है। तप को शरीर तक सीमित समझना नादानी होगी। इसका दायरा शरीर से आगे बढ़कर प्राण एवं मन तक विस्तृत है अर्थात पूरा अस्तित्व इसके कार्यक्षेत्र में आता है। तप की यह प्रक्रिया संयम, परिशोधन एवं जागरण के तीन चरणों में पूरी होती है। संयम में दैनिक जीवन की ऊर्जा के क्षरण को रोकते हुए उसे संचित किया जाता है, और इसका नियोजन महत्त्वपूर्ण एवं श्रेष्ठ कार्यों में किया जाता है। इनको 4 स्वरूपों में देखेंगे इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम।

इंद्रिय संयम में पाँच ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों को परिष्कृत एवं सुनियोजित किया जाता है, जिससे तन-मन की सामर्थ्य भंडार के अपव्यय को रोककर प्रचंड ऊर्जा का संचय किया जा सके। और इसका नियोजन आत्मबल संवर्द्धन के उच्चस्तरीय प्रयोजन के निमित्त किया जा सके। इंद्रिय संयम की परिणति अर्थ संयम के रूप में होती है। धन एक तरह की शक्ति है, जो श्रम, समय एवं मनोयोग की सूक्ष्म विभूतियों का स्थूल रूप है। इसके संयम के साथ इन सूक्ष्म विभूतियों का उच्चस्तरीय उपयोग संभव होता है। धन को जीवनोपयोगी समाजोपयोगी शक्ति माना जाना चाहिए। और एक-एक पैसे का मात्र योग्य कार्यों में उपयोग होना चाहिए। समय संयम-ईश्वर द्वारा मनुष्य को सौंपी गई समयरूपी विभूति के सदुपयोग का विधान है, जिसके आधार पर विभिन्न प्रकार की भौतिक एवं आत्मिक विभूतियाँ सफलताएँ- संपदाएँ अर्जित कर सकना संभव होता है। इसके सही नियोजन के अभाव में समूची जीवन-ऊर्जा इधर-उधर बिखरकर नष्ट हो जाती है।
विचार संयम-मन की अपरिमित ऊर्जा के संयम एवं नियोजन का विज्ञान है, जिसके अभाव में इसकी अद्भुत क्षमता बिखरकर यों ही नष्ट होती रहती है। अनैतिक विचार न केवल मन को बहुत खोखला बनाते हैं, बल्कि ऐसी मनोग्रंथियों को जन्म देते हैं, जिनसे आत्मविकास का मार्ग सदा-सदा के लिए अवरुद्ध हो जाए। विचारशक्ति को भी उच्चस्तरीय संपदा माना जाए और चिंतन की एक-एक लहर को रचनात्मक दिशाधारा में प्रवाहित करने का जी-तोड़ परिश्रम किया जाए।

संयम के बाद तप के अंतर्गत परिशोधन का दूसरा महत्त्वपूर्ण चरण आता है। जीवन ऊर्जा की आवश्यक मात्रा को संचित किए बिना इसे कर पाना संभव नहीं होता। संग्रहित प्राण-ऊर्जा के द्वारा अचेतन मन की ग्रंथियों को खोलना तथा जन्म-जन्मांतर के कर्मबीजों को दग्ध करना इस प्रक्रिया में सम्मिलित हैं। मानवीय व्यक्तित्व को विघटित कर रही शारीरिक और मानसिक परेशानियों का कारण अचेतन मन की ये ग्रंथियाँ ही होती हैं, जिनमें अवरुद्ध ऊर्जा विकास के स्थान पर विनाश के दृश्य उपस्थित कर रही होती है। हर तरह के शारीरिक एवं मानसिक रोग इनके कारण व्यक्ति के जीवन को आक्रांत किए रहते हैं। चित्त की इन ग्रंथियों के परिशोधन के लिए अनेक तरह की तपश्चर्याओं का विधान है। अनेकों तपो का विधान विधित है, जिनको अपनाने पर अंतःकरण में जड़ जमाए कुसंस्कारों का परिमार्जन होता है तथा इसमें छिपी हुई सुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती हैं व दिव्य सतोगुण का विकास होता है।

तप कुछ इस प्रकार से हैं—

  1. अस्वाद तप,
  2. तितीक्षा तप,
  3. कर्षण तप,
  4. उपवास,
  5. गव्य कल्प तप,
  6. प्रदातव्य तप,
  7. निष्कासन तप,
  8. साधना तप,
  9. ब्रह्मचर्य तप,
  10. चांद्रायण तप,
  11. मौन तप
  12. अर्जन तप

इनको अपनाने पर तन-मन के मल-विकारों की सफाई होती है; जिससे नस-नाड़ियों में रक्त का नया संचार होने लगता है एवं शारीरिक तंत्र नई स्फूर्ति से काम करने लगता है। साथ ही सूक्ष्मनाड़ियों में नव-प्राण का संचार होने लगता है और चित्त में जड़ जमाए विकारों का परिमार्जन होता है। तप के अंतर्गत परिशोधन के बाद फिर जागरण की प्रक्रिया आती है। अचेतन ग्रंथियों में अवरुद्ध जीवन- ऊर्जा के मुक्त होने पर अंतर्निहित क्षमताओं के जागरण का क्रम शुरू होता है। इसके प्रथम चरण में प्रतिभा, साहस, आत्मबल जैसी विभूतियाँ प्रस्फुटित होने लगती हैं। साथ ही मानवीय अस्तित्व के उन शक्ति संस्थानों के जाग्रत होने का क्रम प्रारंभ हो जाता है, जिनके द्वारा मनुष्य अनंत ब्राह्मीचेतना के प्रवाह को स्वयं में धारण करने में सक्षम होने लगता है। मानवीय चेतना में निहित ऋद्धि-सिद्धि के रूप में वर्णित अतींद्रिय शक्तियाँ एवं अलौकिक क्षमताएँ प्रकट होने लगती हैं। यहाँ तप के साथ योग का समन्वय जीवन-साधना को संपूर्ण का अनुभव देता है। तप एक तरह के अर्जन की प्रक्रिया है तो योग समर्पण और विसर्जन का विधान है। तप में व्यक्ति की प्रसुप्त शक्तियों के जागरण एवं ऋद्धि- सिद्धियों के अर्जन के साथ अहंकार फूल सकता है, अध्यात्म पथ में विचलन आ सकता है, लेकिन योग इस दुर्घटना से बचाता है; क्योंकि इसमें अहंकार का समर्पण एवं विसर्जन होता है। यह अहं तक सीमित आत्मसत्ता के संकीर्ण दायरे को विराट अस्तित्व से जोड़ने व आत्मविस्तार की प्रक्रिया है।


भक्तियोग में जहाँ साधक अपने इष्ट-आराध्य एवं भगवान से जुड़कर इस स्थिति को पाता है, वहीं ज्ञानी आत्मा और ब्रह्म की एकता को स्थापित करते हुए अद्वैत की अवस्था को प्राप्त होता है। वहीं कर्मयोगी विराट ब्रह्म को सृष्टि में निहारते हुए निष्काम कर्म के साथ जीवन की व्यापकता को साधता है। ध्यानयोगी अष्टांगयोग की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए समाधि की अवस्था को प्राप्त होता है तथा जीवन के सकल समाधान को पाता है। इस तरह तप जहाँ जीवन-साधना का प्राथमिक आधार रहता है तो वहीं योग इसको निष्कर्ष तक ले जाने वाला अंतिम सोपान है। दोनों मिलकर जीवन-साधना को पूर्णता देते हैं और व्यक्ति को आत्मसिद्धि एवं मुक्ति के चरम उत्कर्ष तक ले जाते हैं। इस तरह तप और योग से युक्त पथ आध्यात्मिक जीवन का सुनिश्चित विज्ञान है, जो सकल सृष्टि के लिए वरदानस्वरूप होता है।

The Bhagvat Gita wisdom.

ऐसी दशा जब आपको नकारात्मकता के अलावा और कुछ दिखे ही नहीं। एक स्थिती जब आपको अंधेरा जकड़ लेवे। कोई मार्ग नही दिखे तो, गुरुरूप श्रीमद्भगवद्गीता का आव्हान ही जीवन को सफल दिशा निर्देश दिखाएगा। गीता जी हमे दीपक की प्रेरणा देती है।

एक तेजस्वी किरण जो आपको अर्जुन बनने का मौका प्रदान करती हैं। तभीhttp://yogstation.blogspot.com/2021/12/sanskrit-language-of-god.html समझ लेना ईश्वर आपके साथ है। आप अकेले नहीं हो, सर्वशक्तीमान सत्ता निरन्तर आपके साथ है। आज जगत में अनेक किताबे, काव्य, ग्रंथ तत्वज्ञान, महाकाव्य, धर्मग्रंथ इन्ही सब ग्रंथो मे ज्ञानविज्ञान की संपदा और सौंदर्य का बखान भरा पड़ा हुआ है। इन दिव्य साहित्य के सुमेरू पर्वत श्रृंखला मे शिर्षस्थ स्थान श्रीमद्भागवतगीता का ही है। श्रीगीता जी के नाम से और भी धर्मग्रंथ है, जो भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा श्रीगीताजी के बाद हुए है। जैसे की अपने परम मित्र उद्धव को विनंती के अनुसार स्वयं भगवान में बताई हुई “उद्धव गीता”।अखंड प्रतिज्ञा धारी महात्मा भिष्मजी के आग्रहस्तव “भीष्म गीता”। और अर्जुन के अनुरोध पर बताई हुई “अनुगीता”। जड़ और स्थूल दृष्टी से देखा जाए तो यह सब चीजों के कर्ता स्वयं भगवान ही है। सत्य की अन्य भुजाओं को देखें तो, अन्य गीता में भगवान श्रीकृष्ण रूप मनुष्य अवतार मे मार्गदर्शन किया है। पर श्रीमद् भागवत गीता मे किसी भावस्वरूप से परे होकर स्वयं भगवान योगेश्वर केशव ने विराट स्वरूप मे उपदेश किया है। इसलिए स्वयं योगेश्वर जिसमें अभिव्यक्त हुए है, वह एकमात्र ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता जी है। इस दिव्य ग्रंथ का धन्यवाद दिन ‘गीता’ जयंती को मनाया जाता है। भगवान का धन्यवाद किया जाता है। इस लिए यह भारत भूमि श्रेष्ठ हैं।

ब्रम्ह अवतरण श्रीदिव्य भारत भुमि पर ज्ञानोपदेश की परंपरा प्राचिन तो है ही सदैव भगवान का स्नेह प्राप्त हुआ है इस धरती पर। विचार-विमर्श के इस प्रसंग वश वक्ता और श्रोता इन दोनों की मन: स्थिति शांत है। इस समय प्रकृति की शांतता अपने परम स्थान पर स्थित होती है। तभी जाकर एक दिव्य स्फुरण से वातावरण मे दिव्य संवाद का प्राकट्य होता है। हमे कल्पना करनी है, जब कुरुक्षेत्र पर दोनो तरफ विशाल सैन्य, रथी, महारथी, योध्दे सभी रणभुमी पर खड़े थे। तब युद्ध का शंखनाद हुआ है। हर एक योध्दा तैयार है, अपना पराक्रम सिद्ध करने के लिए। इस समय मे अहंकार चढ़ा हुआ, मोह,डर आक्रोश के भाव एक ही समय पर उपस्थित हैं। इस विषम परिस्थिती में स्वयं भगवंत अर्जुन के हृदय में ज्ञान और कर्म, भक्ती का दिव्य प्रवाह को प्रवाहित करते हुए अपनी प्रतिती देते है। काल पर विजय रेखा का यह नाद लिखा जा रहा है, यह तो केवल कल्पना है, रोमांच को अनुभव करो, इस समय की कौनसी परिस्थिती रही होगी? गीता जी के उपदेश मुल्य और महत्व का अपना दिव्य स्थान है। क्योंकी यह ज्ञान बुध्दीगम्य नहीं है। यह ज्ञान बोधगम्य है। इस संवाद मे श्रोता रूपी अर्जुन के प्रश्न का स्तर बहुत उच्च और श्रेष्ठ है। इन्ही प्रश्नों का समाधान स्वयं परमश्रेष्ठ भगवान कर रहे हैं। यह आध्यात्मिक संवाद जिज्ञासा रूप मे उत्पन्न हुआ है। इस दिव्य संवाद मे जड़ संसार का पुर्णत: अभाव है। संसार और इससे जुड़ी चिजो का इस संवाद मे कोई स्थान नहीं है। परिवर्तन का नियम शाश्वत और अटल है। पर यह श्रीमदभगवतगीता तो चैतन्य की यात्रा पर सवार है। यही उस शाश्वत परीचय हैं।

यह ज्ञान उस शाश्वत तत्व से उत्पन्न हुआ है, इस लिए यह दिव्य ज्ञान स्वयं अपना परिचय कराता है। श्रीगीता जी की विचार धारा व्यापक है। लय और तरंग से उपर निचे होने वाली उच्च भावना की अनुभूति का दर्शन कराती है। श्रीगीता जी प्रमाण है, व्यापक समन्वयीत बुध्दी और संपन्न सद्गुणप्राप्त अखंड श्रध्दा का। यही निर्गुणज्ञान प्राप्त करने वाली विद्या है। गीता जी के एक तरफ योग का दिव्य ज्ञान है, तो दूसरी बाजु बिजनेस, व्यवहारिक ज्ञान है। जहाँ भगवंत अपनी अलग-अलग भूमिका का निभाते नजर आते हैं। वो कही पर ऋषि रूप में उपदेश देते हैं तो, कही पर कठिन समय मे सच्चा मित्र बनते है। कभी गुरु बनकर तो, कभी विराट उग्र रूप का दर्शन करवाते हुए ,मनुष्य के परमकल्याण के नाना प्रकार के सुबोध मार्गदर्शन गीता जी में विद्यमान है। एक उदिदृष्ठ एक लक्ष्य प्राप्त करने के लिए ज्ञान, कर्म, भक्ती का त्रिसुत्री पाठ का विवेचन गीता जी में बताया है। यह शिक्षा अन्यत्र कहीं भी नहीं है। गीताजी किसी भी मत संप्रदाय की नहीं है। यह तो उस मनुष्य का के लिए उस महाद्वार के समान के है, जिसमे प्रवेश करने से उस चिदाकाश आध्यात्मिक सत्य की अनुभुति महसूस करने मिलती है। इस चिदाकाश में परम सत्ता का दिव्य दर्शन प्राप्त होता है। “अहम् ब्रम्हास्मि शिवोहम शिवोहम” की साक्षात प्रतिति मिलती है। गीताजी के ज्ञान को साधक जिस रुप मे ध्याता है, वह ज्ञान उस रूप में साधक की मदद करता है। वैज्ञानिक को के लिए गीता जी स्वयं अक्षय पात्र है। ज्ञान का अमृत यहां निरंतर बहता है। खोज अनुसंधान के लिए यह अनोखी प्रेरणा प्रदान करता है।

वैज्ञानिकों के लिए यह किसी अविष्कार से कम नहीं है। तो बीमार व्यक्ती के लिए यह उपचार है। डिप्रेशन और कमजोर व्यक्ती के लिए मन: शास्त्र है। बौद्धिक तृष्णा को तृप्त करने के लिए यह पानी का बहता झरना है। समाज के विकास के लिए राष्ट्र विकास के लिए यह नीती शास्त्र है। विद्वानो के लिए यह शाश्वत ज्ञान है तो, भक्त के लिए स्वयं भगवान दक्षिणामूर्ति है। श्रीगीता जी यह वो विलक्षण शक्ती, ज्ञान है जो अनेक रूपों से हमे प्रदान होती है। श्रीगिता जी केवल पढ़ने पढ़ाने और शास्त्रार्थ करना इतना ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान पिने के लिए है। स्वयं को सिद्ध करने के लिए है। यह स्वयं पुर्ती का ज्ञान है। यह ज्ञान की गंगा मे हर एक व्यक्ती ने डुबकी लगानी चाहिए। यह पूर्णमिद अष्टपैलू विकास का केंद्र है। श्रीगीता जी हमे अवसर प्रदान करती है उत्तम श्रोता बनने का। जिसके बाद हम काबिल बन सके परम वाणी सुनने के लिए। श्रीभगवतगीता जी को हर एक घर, व्यक्ती ने इस ज्ञान को सिखना चहिए | यह शाश्वत ज्ञान है। जिवन के हर पैलू पर राह ज्ञान अपनी प्रचिती का शाश्वत भाव का दर्शन कराता है। इस ज्ञान को आत्मसात करना किसी तप से कम नहीं है। गीता जी से हम आखिर में दिपक की प्रेरणा लेते हैं।

चैतन्य आत्मा इस शरीर की शोभा है। आत्मा भृकुटि में आँखों के पीछे बैठ पूरे शरीर का नियंत्रण करती है। इसी की याद में गीता जी के ज्ञान दीपक जलाते हैं। यह ज्योति उमंग, उत्साह व खुशियों का प्रतीक है। आत्मा व परमात्मा सदा जागृत ज्योति स्वरुप हैं। इन्हीं की याद में भीतर सद्गुणों का दीपक प्रज्वलित करते है। दीपक, प्रकाश सत्य का प्रतीक है। एकाग्रता व निरन्तर अध्ययन से दीपक की लौ सदा ऊपर की ओर उठी रहती है। हम सदा ऐसे उच्च कर्म करें जिनसे हमारा मस्तक गर्व से ऊँचा रहे। दीपक की लौ की तरह किसी गलत दबाव के आगे न झुकें। जलता दीपक चारों ओर प्रकाश, ऊर्जा व आभा बिखेरता है। हम भी जीवन में चारों ओर ज्ञान का प्रकाश व गुणों की सुगंध बिखेरते चलें।
ज्ञान का दीपक स्वयं जलकर औरों का मार्गदर्शन करता है। त्याग और बलिदान की प्रेरणा देता है। हम भी अपना जीवन यज्ञमय एवं विश्व कल्याणार्थ जीकर प्रभु को अर्पित करें। दीपक हमें सद्ज्ञान की ओर अग्रसर होने का मौन संदेश देता है। अपने संपर्क के वातावरण को अपनी ऊर्जा से पावन बनाता है। हम भी ज्ञानमय जीवन जीकर अपने संपर्क के वातावरण को पवित्र बनायें। विघ्नकर्ता नहीं बनें, बल्कि विघ्नहर्ता बनें। दीपक के संपर्क में जो आता उसे वायुभूत कर विश्व सेवार्थ बिखेर देता है। हम भी अपनी सर्व उपलब्धियों का अंश विश्व सेवा में लगाते रहें। कर्म करते रहेंगे, फल की इच्छा का त्याग करेगे। हम अपना जीवन दीपक की तरह उमंग-उत्साहमय जिएंगे। बुझा हुआ दीपक बताता है कि जो दिखाई देता है वह स्थाई नहीं। उसका अंत थोड़ी सी राख ही है। दिखाई देनेवाला पंचतत्वों का यह शरीर भी स्थाई नहीं। इसका अंत भी राख की मुट्ठी भर ढ़ेरी ही है। अत: हम देह अभिमान त्याग जीवन के क्षणों का सार्थक उपयोग कर लें।

आप भी गीता जी का यह दिया ज्ञान के दीपक की तरह ही ज्ञान-सितारे बन पूरी दुनिया को सदा ज्ञान से प्रकाशित करें। अपने गुणों की सुगंध चारों ओर फैलायें। आप देश तथा विश्व के भविष्य हो । महत्वपूर्ण हो। संपूर्ण विश्व के लिये प्रकाश हो। उस सर्व शक्तिमान भगवान के आप पुत्र हो!!

आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान

भारत को आयुर्वेद की अमूल्य देन है।आयुर्वेद एक जीवन जीने का सात्विक तरीका हैं। समग्र स्वस्थ जीवन जीना मानव जीवन का आधिकार है। भारतीय चिकित्सा पद्धति मां प्रकृति का आशीर्वाद है।जो निरोगी जीवन को प्रदान करती है ,साथ ही साथ निरोगी विचारो को बल देती है। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति एक तरीका है, जो आहार को औषधि के रूप सेवन करने का आदेश देता है। आयुर्वेद चिकित्सा एक एक मात्रा चिकित्सा है जो मानव शरीर को धन्यवाद देना जानती है। शरीर को ईश्वर का अनमोल उपहार मानती है।आहार को ही अमृत मानकर पूर्ण स्वस्थ समाज का निर्माण करने का सामर्थ्य आयुर्वेद चिकित्सा में ही हैं। यह पद्धति वर्तमान में जीना सिखाती है। हमारा जीवन कैसा हो? , हम किस तरीके से विचार करे?। हमारा जीवन जीने का उद्देश क्या होना चाहिए ?? यह शिक्षा हमे देती है आयुर्वेद। आयुर्वेद द्वारा ही समस्या का समाधान करना संभव है! यह पद्धति में शुद्ध भावना को स्विकार किया जाता है। आपके भाव के ऊपर ही आपका जीवन है।शुद्ध भावना ही आयुर्वेद का मूल मंत्र है। इसलिए यह सबसे सफल है।


भारतीय चिकित्सा बहुत प्राचीन है; लेकिन इसमें छिपे समग्र स्वास्थ्य के अर्थ को आज हर जगह स्वीकार किया जा रहा है। इसका मतलब है कि स्वास्थ्य का मतलब बीमारियों से छुटकारा पाना नहीं है, बल्कि जीवन को एक संपूर्ण अर्थ देना है।जीवन का नया कायाकल्प करना हैं। बीमारी सिर्फ एक लक्षण है और यह प्रकृति में विकृति से पैदा करती है। इसलिए हमारी प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों में उपचार रोग को नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि रोग के कारण को नष्ट करने के लिए किया जाता है। हमारे देश में स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच रखने वाले लोगों की संख्या इतनी कम है कि इसे वैश्विक औसत से तुलना करके आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि हम चिकित्सा देखभाल को कितना महत्व देते हैं, जो स्वस्थ जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि आज हमारे देश में जितने डॉक्टर उपलब्ध हैं, वे ग्रामीण क्षेत्रों में जाने को तैयार नहीं हैं; क्योंकि उनके व्यवसाय को बढ़ने कोई जगह नहीं है। जब कोई व्यवसाय चिकित्सा जैसे शुद्ध सेवा क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो निश्चित है कि ऐसी चिंताजनक स्थिति देश पर आएगी और फिर मानव स्वास्थ्य महत्वपूर्ण नहीं होगा लेकिन पैसा कमाना महत्वपूर्ण होगा। यही कारण है कि हमारे देश में इतने महंगे अस्पताल होने के बावजूद लोगों के बुनियादी स्वास्थ्य में कोई अंतर नहीं है। एलोपैथी जैसी चिकित्सा पर पूरी तरह निर्भर रहने से इस समस्या का पूर्ण समाधान संभव नहीं है; ऐसा इसलिए है क्योंकि उस उपचार पद्धति का मुख्य सिद्धांत न केवल किसी भी बीमारी को तुरंत ठीक करना है बल्कि किसी भी तरह से गंभीर बीमारी को दबाने के लिए भी है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब दवाओं का असर कम होने लगता है तो आपके सिर पर डिप्रेशन की बीमारी फिर से उभरने लगती है। इतना ही नहीं, शरीर पर इन तीव्र दवाओं के दुष्प्रभाव, रोगी को फिर से विभिन्न नई चुनौतियों का सामना करने के लिए मजबूर करते हैं। इसके विपरीत भारतीय चिकित्सा में पहले रोग के कारण का पता लगाया जाता है और फिर उसके कारण का उपचार किया जाता है।

इसी वजह से पश्चिमी दुनिया में भी जहां एलोपैथी को सबसे अच्छा इलाज माना जाता है, वहां अब वैकल्पिक चिकित्सा को अपनाने का प्रयास किया जा रहा है। पिछले दशक में शुरू हुई स्वास्थ्य सेवा की वैश्विक लहर के प्रभाव आज अधिक व्यापक होते जा रहे हैं। उस वैश्विक लहर का लक्ष्य आम आदमी को बेहतर जीवन का लाभ पहुंचाना, इलाज के तरीकों और मरीजों के बीच बेहतर संबंध बनाना और कम कीमत में बेहतर इलाज मुहैया कराना था। एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि वैकल्पिक उपचार रोगी को जीवन का एक नया तरीका प्रदान करते हैं। इसलिए, रोगी स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होता है और खुद को स्वस्थ रखने के लिए दृढ़ संकल्पित होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में आम जनता अब प्राकृतिक चिकित्सा की ओर आकर्षित हो रही हैं। इस नई पद्धति को एकीकृत चिकित्सा कहा जा रहा है। आज दुनिया की एक बड़ी आबादी वैकल्पिक चिकित्सा की ओर आकर्षित है और इसके विस्तार के लिए नई नींव विकसित की जा रही है। कनाडा में 70 फीसदी, फ्रांस 75 फीसदी, ऑस्ट्रेलिया 45 फीसदी और अमेरिका 10 फीसदी इस तरीके को अपना रहे हैं। इसके अलावा, संयुक्त राज्य अमेरिका में, डीन ओर्निश ने जीवनशैली से संबंधित बीमारियों से बचने और जनता तक पहुंचने की व्यवस्था करने का एक नया तरीका तैयार किया है। तथ्य-आधारित शोध के माध्यम से, उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की है कि यदि किसी व्यक्ति की सात्विक और सकारात्मक भावनाएं जागृत होती हैं, तो हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर जैसी बीमारियों को प्रारंभिक अवस्था में नियंत्रित किया जा सकता है।

डीन ओर्निश ने अपने वैकल्पिक उपचारों को मान्य करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैन फ्रांसिस्को में निवारक चिकित्सा अनुसंधान संस्थान की स्थापना की। इस कार्य के लिए यूके में डॉ. जॉर्ज लोविथ ने उन्हें सर्वोत्तम चिकित्सा तकनीक विकसित करने में मदद की है। यदि हम अपनी प्राचीन चिकित्सा और पारंपरिक चिकित्सा के विशाल भंडार का उपयोग करना सीखें, तो इसका चिकित्सा के क्षेत्र पर बहुत बड़ा और दूरगामी प्रभाव हो सकता है। विश्व स्तर पर वैकल्पिक चिकित्सा को अपनाने की यह प्रवृत्ति दर्शाती है कि प्राचीन भारतीय चिकित्सा सर्वोत्तम है। आज दुनिया भर में कई चिकित्सक इस तथ्य को स्वीकार कर रहे हैं, कि उपचार के माध्यम से केवल स्वस्थ शरीर प्राप्त करना संभव नहीं है, लेकिन बीमारी के कारणों को संबोधित करके स्वस्थ जीवन की नींव को मजबूत करना संभव है। जब तक हमारे देश में, इस पद्धति और चिकित्सा के सिद्धांत को अपनाया जाता है, तब तक लोग स्वस्थ और खुश रहे।

लेकिन फिर जब इस देश में पश्चिमी चिकित्सा, एलोपैथी की शुरुआत हुई, तो हमारी प्राचीन चिकित्सा प्रणाली की उपेक्षा की गई और एक तरह का अवसाद पैदा हो गया। आज यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम अपनी प्राचीन चिकित्सा के अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हमारे देश में जब भी स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार करने के लिए ,जब एक योजना बनाई जाती है, तो आधुनिक चिकित्सा के लिए एक बड़ी राशि आवंटित की जाती है; लेकिन हमारी प्राचीन व्यवस्था का कोई ठोस समाधान नहीं है और न ही पर्याप्त वित्तीय प्रावधान। इसके लिए हमें अपने स्वास्थ्य के प्रति अधिक जागरूक होने की आवश्यकता है। इसके लिए हमारी प्राचीन और गौरवशाली चिकित्सा पद्धति को सार्वभौमिक रूप से स्वीकार करना आवश्यक है। हमें इसे अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाने की जरूरत है और यही स्वस्थ जीवन का सही आधार है। इसे स्वीकार करके ही हम खुश और स्वस्थ बन सकते हैं और स्वस्थ भारत की कल्पना को साकार कर सकते हैं। इसलिए हमें अपनी जीवनशैली को प्राकृतिक तरीके से विकसित करने की जरूरत है।