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Disclaimer
जल ही जीवन हैं। हमारे शरीर का 70% भाग पानी है। शरीर से प्रतिदिन 2600 ग्राम पानी खर्च होता हैं। किडनी 1500 ग्राम, त्वचा 650 ग्राम, फेफड़े 320 ग्राम, मल मूत्र मार्ग 130 ग्राम, अंतः शरीर में पानी के संतुलन को बनाए रखने के लिए प्रतिदिन कम से कम 2 से 3 लिटर पानी पीना आवश्यक है। आज बीमारियां प्राय सर्वव्यापी हो चुकी है। इनसे मुक्ति हेतु लोग दवाओं विष अपने शरीर में सेवन कराते जा रहे है। रक्त में मिलकर यह भ्रमण करते विष आगे चलकर क्रमश बड़ी बीमारियों का कारण बनते है। आइए! अनेकानेक बीमारियों से मुक्ति पाने के लिए हमारे पूर्वज वैदिक वैज्ञानिक ऋषि मुनियों ने जल का सहारा लेकर स्वास्थ जीवन जी नीव रखी थी। जल से स्वास्थ को आकर्षित करना बहुत आसान है। स्वास्थ jl निरोगी जीवन का आधार है। वस्तुत: हम जो पीते है, वही कुछ हम हैं। अशुद्ध जल शरीर में रोगों का कारण बनता है। शुद्ध जल के नाम पर हम मृत जल का सेवन करते है। प्लास्टिक बोतल का पानी प्लास्टिक के तरह ही होता है। इस निर्जीव जल से कैसे स्वास्थ जीवन की अपेक्षा रख सकते है??
हवा के पश्चात् शरीर में दूसरी सबसे बड़ी आवश्यकता पानी की होती है। पानी के बिना जीवन लम्बे समय तक नहीं चल सकता। शरीर में लगभग दो तिहाई भाग पानी का होता है। शरीर के अलग-अलग भागों में पानी की आवश्यकता अलग-अलग होती है। जब पानी के आवश्यक अनुपात में असंतुलन हो जाता है तो, शारीरिक क्रियाएँ प्रभावित होने लगती है, अत: हमें यह जानना और समझना आवश्यक है कि पानी का उपयोग हम कब और कैसे करें ? पानी कितना, कैसा और कब पिये? उसका तापमान कितना हो? स्वच्छ, शुद्ध, हल्का साफ किया हुआ शरीर के तापमान के अनुकूल पानी जन साधारण के लिए उपयोगी होता है। पानी को जितना धीरे-धीरे घूंट-घूंट पीये उतना अधिक लाभप्रद होता है। इसी कारण हमारे यहाँ लोक वाक्य प्रसिद्ध है- “खाना पीओ और पानी खाओ” अर्थात् धीरे-धीरे पानी पीओ।
हमारे शरीर में जल का प्रमुख कार्य भोजन पचाने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं में शामिल होना तथा शरीर को संरचना का निर्माण करना होता है। जल शरीर के भीतर विद्यमान गंदगी को पसीने एवं मलमूत्र के माध्यम से बाहर निकालने, शरीर के तापमान को नियंत्रित करने तथा शारीरिक शुद्धि के लिए बहुत उपयोगी तथा लाभकारी होता हैं। शरीर में जल की कमी से कब्ज, थकान, ग्रीष्म ऋतु में लू आदि की संभावना रहती है। जल के कारण ही हमें, नौ प्रकार के रसों-मीठा, खट्टा, नमकीन, कड़वा, तीखा और कैशैला आदि का अलग-अलग स्वाद अनुभव होता है। भोजन के तुरन्त बाद पानी पीना हानिकारक और विष युक्त होता है।
भोजन के तुरन्त पहले पानी पीने से भूख शान्त हो जाती है। बिना भूख भोजन का पाचन बराबर नहीं होता। जब आपको अच्छी भूख लगे तभी आप भोजन को ग्रहण करो। खाना खाने के पश्चात् आमाशय में लीवर, पित्ताशय, पेन्क्रियाज आदि में अम्ल के मिलने से जठराग्नि प्रदीप्त होती है। अतः प्रायः जनसाधारण को पानी पीने की इच्छा होती है। परन्तु पानी पीने से पाचक रस पतले हो जाते हैं, जिसके कारण आमाशय में भोजन का पूर्ण पाचन नहीं हो पाता। फलतः भोजन से जो ऊर्जा मिलनी चाहिए, प्रायः नहीं मिलती आहार के रूप में ग्रहण किये गये, जिन पौष्टिक तत्त्वों से रस, रक्त, मांस, मज्जा, वीर्य आदि अवयवों का निर्माण होना चाहिये, वो नहीं हो पाता। अपाच्य भोजन आमाशय और आंतों में ही पड़ा रहता है, जिससे मंदाग्नि, कब्ज, गैस, एसिडिटी, Ibs आदि विभिन्न पाचन संबंधी रोगों उत्पन्न होने की संभावना रहती है। दूसरी तरफ अपाच्य भोजन को निष्काषित करने के लिये शरीर को व्यर्थ में अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अतः भोजन के पश्चात् जितनी ज्यादा देर से पानी पीयेंगे उतना पाचन अच्छा होता है। प्राय: भोजन के दो घंटे पश्चात जितनी आवश्यकता हो खूब पानी पीना चाहिए। जिससे शरीर में पानी की कमी न हो। भोजन सुपाच्च तरीके से पाचन होना चाहिए।
प्रारम्भ में जब तक अभ्यास न हो, ठोस भोजन के साथ तरल पदार्थों का भी उपयोग अवश्य करना चाहिये। भोजन की बीच में थोड़ा सा पानी पी सकते हैं, परन्तु वह पानी गुनगुना हो, न कि बहुत ठण्डा खाने के पश्चात् भी आवश्यक हो तो जितना ज्यादा गरम पीने योग्य पानी थोड़ा पी सकते हैं। भोजन पाचन के तुरन्त बाद पानी पीना नही चाहिए। भोजन पाचन से पूर्व एक साथ ज्यादा पानी पीने से आंव की वृद्धि होती है। अपच, गैस और कब्ज, एसिडिटी होता है। अतः स्वास्थ्य प्रेमी साधकों को सायंकालीन भोजन यथा संभव त्यागना ही उपयुक्त होता है परन्तु यदि ऐसा संभव न हो और भोजन के पश्चात् पानी पीना आवश्यक हो तो, हमारे शरीर के तापमान के अनुसार ही पानी गर्म होना चाहिए, और उतना गर्म पानी धीरे-धीरे घूंट-घूंट पीना चाहिए।
शरीर के तापमान के अनुसार गर्म पानी पीने से आमाशय की गर्मी में संतुलन रखना संभव हो जाता है। साथ ही धीरे-धीरे पानी पीने से पानी के साथ मुंह में रहने वाला पाचक स्त्राव पानी के साथ मिलने से वह पानी पाचक बन जाता है। शरीर में औषधि का कार्य संपन्न करता है।
प्रातः काल निद्रा का त्याग करने के पश्चात् बिना मुंह धुएं अथवा दांतुन या कुल्ला किये बिना ही रात भर ताम्र पात्र में रखा हुआ अपनी क्षमतानुसार एक से डेड लीटर पानी पीना चाहिये इस क्रिया को उषा: पान कहते हैं। रात भर में मुंह बंद रहने के साथ साथ जीभ पर विजातीय तत्व जमा हो जाते हैं। इसी कारण दिन भर कार्य करने के बावजूद मुंह में जितनी बदबू नहीं आती, उतनी निद्रा में बिना कुछ खाये ही आती है। ये विजातीय तत्व जब पानी के साथ खाली पेट में पुनः जाते हैं तब वह औषधि का कार्य करते हैं। अत: उषापान का पूर्ण लाभ बिना दातुन पानी पीने से ही मिलता है। इस क्रिया से शरीर के भीतर के लगभग 20% टॉक्सिन बाहर जाते है। कब्ज विकार दूर होते है। त्वचा विकारों में यह महत्व पूर्ण प्रक्रिया है। उषा पान के पश्चात् टहलने अथवा पेट का व्यायाम (संकुचन और फैलाना) करने से पेट में आंत एक दम साफ हो जाती है। जिससे पाचन संबंधी सभी प्रकार के रोगों में शीघ्र राहत मिलती हैं। पानी पीने का श्रेष्ठतम समय प्रातःकाल भूखे पेट होता है। रात्रि के मध्यनः काल में चयापचय क्रिया द्वारा जो विजातीय अनावश्यक तत्त्व शरीर में रात भर में जमा हो जाते हैं, उनका निष्कासन गुर्दे, आंतो, त्वचा अथवा फेफड़ों द्वारा होता है। अतः उत्सर्जन क्रिया के सब अंग, सक्रिय होकर समस्त विजातीय पदार्थों को बाहर निकालने में सक्रिय हो जाते हैं। जब तक रात भर में एकत्रित विष भली भांति निष्कासित नहीं होता और ऊपर से आहार लिया जाये तो विभिन्न प्रकार के रोग होने की संभावना रहती है। उषा पान से बवासीर, सुजन, संग्रहणी, ज्वर, उदर रोग, कब्ज, आत्ररोग, मोटापा, गुर्दे संबंधी रोग, यकृत रोग, नासिका आदि से रक्त स्राव, कमर दर्द, आंख, कान आदि विभिन्न अंगों के रोगों से मुक्ति मिलती है।
नेत्र ज्योति में वृद्धि, बुद्धि निर्मल तथा सिर के बाल जल्दी सफेद नहीं होते आदि अनेक लाभ होते हैं। जापान के सिकनेश एसोसियेशन द्वारा प्रकाशित एक लेख में इस बात की पुष्टि की गई है। ऐसे प्रयोग का पूर्ण लाभ तब ही मिलता है जब उपरोक्त विधि से पानी पीने के साथ भोजन के लगभग दो घंटे बाद अथवा आमाशय में भोजन के पाचन के पश्चात् ही पानी पीते हैं। उषापान स्वस्थ एवं रोगी दोनों के लिए समान उपयोगी होता है। प्रारम्भ में यदि एक साथ इतना पानी न पी सकें तो प्रारम्भ में दो गिलास जल से शुरू करें। धीरे-धीरे एक से डेढ़ लीटर तक मात्रा बढ़ाना चाहिए।इतना ज्यादा पानी एक साथ पीने पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता सिर्फ प्रथम कुछ दिनों में अधिक पेशाब आ सकता है। यह प्रयोग सस्ता, सुन्दर, स्वावलम्बी और काफी प्रभावशाली होता है। गर्म पानी औषधि है।
हम केवल पानी के मदद से शरीर की सफाई कर सकते है। जल में भाव का दर्शन होता है। जल मन के भीतर के भाव को दर्शाता है। जल को प्रेम भाव की नजर से देखने से यह जल के क्रिस्टल पॉजीटिव एनर्जी का काम करते है। भय और क्रोध से देखने से जल निगेटिव एनर्जी का काम करता है। यह जल के भीतर क्रिस्टल का प्रभाव है। क्यूकि जल जीवित है। जल में जीवन है। जल केवल प्यास बुझाने के लिए नहीं है , यह मां प्रकृति की तरफ से अदभूत देन मानव को प्रदान की हैं। एल्कलाइन वॉटर यह परिकल्पना जीवित है। नैनो टेक्नोलॉजी के द्वारा जल को योग्य सम्मान देकर तैयार होता है। भारतीय संस्कृति के नाभी और प्राण केंद्र है “यज्ञ”। यज्ञ की भस्म को छानकर पानी में भिगो कर रखने से पानी एल्कलाइन होता है, एनर्जी का अदभूत प्रदर्शन होता है।
ठण्डे पेय तथा फ्रीज में रखा अथवा बर्फ वाला पानी स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है। स्वस्थ अवस्था में हमारे शरीर का तापक्रम 98.4 डिग्री फारहनाइट यानि 37 डिग्री सेन्टीग्रेड के लगभग होता है। जिस प्रकार इलेक्ट्रिकल अप्लायंसेज एयर कंडीशनर कूलर आदि चलाने से इलेक्ट्रिसिटी खर्च होती है। उसी प्रकार ठण्डे पेय पीने अथवा खाने से शरीर को अपना तापमान नियन्त्रित रखने के लिये अपनी ऊर्जा व्यर्थ में खर्च करनी पड़ती है। अतः पानी शरीर के तापमान के जैसा गर्म पीना चाहिए। आजकल सामूहिक प्रोग्राम में भोजन के पश्चात् आइसक्रीम और कोल्ड ड्रिंक्स पीने का जो प्रचलन है, वह स्वास्थ्य के लिये बहुत हानिकारक होता है। इन तरीको को टाल देना ही उचित है। स्वास्थ हमारे ही हाथो में ही हैं।
भय, क्रोध, मूर्छा, शोक व चोट लग जाने के समय अन्तः स्त्रावि ग्रंथियो द्वारा छोड़े गये हानिकारक प्रभाव को कम करने के लिये पानी पीना लाभप्रद होता है। लू तथा गर्मी लग जाने पर ठंडा पानी व सर्दी लग जाने पर गर्म पानी पीना चाहिये, उससे शरीर को राहत मिलती है। पानी पीकर गर्मी में बाहर निकलने पर लू लगने की संभावना नहीं रहती।
उच्च अम्लता में भी अधिक पानी पीना चाहिए, क्योंकि यह पेट तथा पाचन नली के अन्दर की कोमल सतह को जलन से बचाता है। दिन में दो घंटे के अन्तर पर पानी अवश्य पीना चाहिए, क्योंकि इसमें अन्तः स्त्रावी ग्रन्थियों का स्राव पर्याप्त मात्रा में निकलता रहता है। उपवास के समय पाचन अंगों को भोजन पचाने का कार्य नहीं करना पड़ता। अतः ये शरीर में विजातीय तत्वों को आसानी से निकालना प्रारम्भ कर देते हैं। अधिक पानी पीने से उन तत्वों के निष्कासन में मदद मिलती है।
पेट में भारीपन, खट्टी डकारें आना, पेट में जलन तथा अपच आदि का कारण पाचन तंत्र में खराबी होता है। अतः ऐसे समय गर्म पानी पीने से पाचन सुधरता है और उपरोक्त रोगों में राहत मिलती है। डायरिया, उल्टी, दस्त के समय उबाल कर ठंडा किया हुआ पानी पीना चाहिये, क्योंकि यह पानी कीटाणु रहित हो जाता है तथा दस्त के कारण शरीर में होने वाली पानी की कमी को रोकता है। नाक से गर्म जल की बाष्प के लेने से जुकाम और गले संबंधी रोगों में आराम मिलता है।पीने वाली अधिकांश दवाईयां में पानी का उपयोग किया जाता है। अधिकांश ठोस दवाईयां भी चाहे वे एलोपैथिक टेबलेट हों अथवा आयुर्वेद या अन्य चिकित्सा पद्धति से संबंधित मुह में लेने वाली दवाईयों को पानी के माध्यम से सरलता पूर्वक निगला जा सकता है। त्रिफला के पानी से आंखें धोने पर रोशनी सुधरती है। रात भर मेथी दाने में भिगोया पानी पीने से पाचन संबंधी रोग ठीक होते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा में शारीरिक शुद्धि के लिये पानी का अलग-अलग ढंग से उपयोग किया जाता है।
विशेष परिस्थितियों के अतिरिक्त स्नान ताजा पानी से ही करना चाहिये। ताजा पानी रक्त संचार को बढ़ाता है। जिससे शरीर में स्फूर्ति और शक्ति बढ़ती है। जबकि गर्म पानी से स्नान करने पर आलस्य एवं शिथिलता
बढ़ती है। जल चिकित्सा के अनुभूत प्रयोग पानी के विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं को सरलता से अपने अन्दर समाहित कर लेता है। अतः आजकल विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों में पानी में आवश्यक ऊर्जा संचित कर रोगी को देने से उपचार को प्रभावशाली बनाया जा सकता है। सूर्य किरण और रंग चिकित्सा के अन्तर्गत शरीर में जिस रंग की आवश्यकता होती है, उस रंग की कांच की बोतल या बर्तन में पानी को निश्चित विधि तथा धूप में रखने से पानी में उस रंग के गुण आ जाते हैं। ऐसा पानी पीने से रोगों में राहत मिलती है तथा यदि स्वस्थ व्यक्ति पीये तो रोग होने की संभावना नहीं रहती। पानी को आवश्यकतानुसार चुम्बक पर रखने से उसमें चुम्बकीय ऊर्जा संचित होने लगती है। उस पानी का उपयोग चुम्बकीय चिकित्सक विभिन्न रोगों के उपचार में करते हैं।
सूर्य किरण एवं चुम्बक की भांति पिरामिड के अन्दर अथवा पिरामिड के ऊपर पानी रखने से उसमें स्वास्थ्यवर्धक गुण उत्पन्न हो जाते हैं, जिसका सेवन करने से रोगों में राहत मिलती है और स्वस्थ व्यक्ति रोग मुक्त रहता है। पानी को विभिन्न रत्नों मंत्रों अथवा आवश्यकतानुसार स्वर तथा विभिन्न रंगों के बिजली के प्रकाश को तरंगों से भी अर्जित किया जा सकता है। जिसके सेवन से असाध्य एवं संक्रामक रोगों का उपचार किया जा सकता है। पानी को जैसे बर्तन अथवा धातु के सम्पर्क में रखा जाता है, उसमें उस धातु के गुण उत्पन्न होने लगते हैं। प्रत्येक धातु का स्वास्थ्य की दृष्टि से अपना अलग-अलग प्रभाव होता है। सोने से ऊर्जित जल पीने से श्वसन प्रणाली के रोग, जैसे दमा, श्वास फूलना, फेफड़े संबंधी रोगों, हृदय और मस्तिष्क संबंधी रोगों में लाभ होता है। चांदी से पाचन क्रिया के अवयव आमाशय, लीवर, पित्ताशय, आंतों के अनेक रोगों एवं मूत्र प्रणाली के रोगों में आराम मिलता है। अन्य ऊर्जा से परिपूर्ण जल के सेवन से जोड़ों के रोग, पोलियों, कुष्ठरोग, रक्त चाप, घुटनों का दर्द, मानसिक तनाव आदि में काफी लाभ होता है। जल की महिमा जितनी करे उतनी कम है। क्यूकि आखिर में जल ही जीवन है। जल को सुरक्षित रखना और योग्य उपयोग में लेना आज की जरुरत है। भविष्य में चिंता है , नया युद्ध वार जल के लिए ही होगा। जहां जल है वह जीवन है। बिना जल के जीवन नही जिया जाता है। जल और प्रकृति का सम्मान आवश्यक है।
जीते हुए अपने जीवन लक्ष्य को पाएं, यह सर्व मनुष्यात्माओं का परम कर्तव्य है। स्वस्थ रहना शरीर का नैसर्गिक स्वभाव एवं हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। कहा भी गया है पहला सुखनिरोगी काया । वास्तव में स्वास्थ्य जीवन की सबसे पहली आवश्यकता है। इसके बिना विपुल सम्पदा एवं वैभव सभी निरर्थक हैं। एक अस्वस्थ व्यक्ति स्वयं दुखी एवं दूसरों पर बोझ होता है। वह आत्म निर्माण का न तो प्रयास कर पाता है न ही परिवार समाज व राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान दे सकता है।
जब हम नैसर्गिक संसार को देखते हैं तो पाते हैं कि स्वस्थ रहने के नियम बहुत ही सरल हैं। प्रकृति का अनुसरण कर हर कोई सहज ही स्वस्थ जीवन जी सकता है। प्रकृति के पंचतत्वों से निर्मित शरीर जितना प्रकृति के नजदीक रहेगा, वह उतना ही स्वस्थ रहेगा। व्यक्ति का रहना, खाना जितना सात्विक व सादगी भरा होगा वह उतना ही प्रकृति के करीब व स्वस्थ होगा।
संपूर्ण स्वास्थ्य अर्थात् रोग रहित शरीर व प्रसन्नता से भरा मन। अच्छी भूख लगना, गहरी नींद आना, मीलों पैदल चलने व वजन उठाने की शक्ति होना, उदार व सकारात्मक विचार व चिंतन की गहराई, उदारता, उमंग उत्साह, क्षमाशीलता, निष्काम सेवा भावना आदि संपूर्ण स्वास्थ्य की निशानी हैं। “दिनचर्या को व्यवस्थित बना लेना आरोग्य रक्षा की गारंटी है। प्रातः उठने से लेकर रात्रि सोने तक की क्रमबद्ध विधि – व्यवस्था बनायें। समय का विभाजन व निर्धारित कार्य पद्धति का फिर कड़ाई से पालन किया जाय। इससे शरीर की आंतरिक प्रणाली भी व्यवस्थित व क्रियाशील हो जाती हैं। जिन नियमों को तोड़ ने से बीमारियां होती हैं उनसे सावधान रहें। स्वस्थ रहने के जो नियम हम जानते हैं, और कर सकते हैं उनका तो अवश्य ही पालन करें। जब हम बीमार पड़ते हैं तो ठीक होने के लिए अपना सब-कुछ दांवपर लगा देते हैं, लेकिन बड़ा आश्चर्य यह है कि, ठीक रहने के लिए हम कुछ नहीं करते।
लेकिन आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में हालात बदल गये हैं। पढाई, ट्यूशन, गृहकार्य के अलावा T.V.. Computer, Internet, social media मैली संस्कृति आदि के जंजाल में मनुष्य जीवन उलझ सा गया है। इन बदली हुई परिस्थितियों में मनुष्य को जीने की नयी कला सीखनी होगी। ऐसी कला जिसमें वह वर्तमान परिस्थितियों का सामना करते हुए अपने जीवन लक्ष्य को पा सके। जीने की कला आपको चुनने होगी। लेकिन यह अच्छी आदतें आपको जीवन भर साथ देगी।ये बातें नहीं बल्कि आपके अनन्य मित्र हैं। अन्य मित्र तो मुसीबत में साथ छोड़ भी सकते हैं, तथा गलत मार्ग पर भी ले जा सकते हैं, लेकिन ये आपकी अच्छी आदतें आपका साथ कभी नहीं छोड़ेंगे तथा आपको सदा उन्नति के मार्ग पर ही ले जायेंगे। आशा है आप इन अच्छी आदतो का स्वीकार कर उन्हे अपना बनाकर स्वयं को सम्पन्न व धन्य अनुभव करेंगे तथा जीवन को सफल करेंगे।
स्वस्थ जीवन की सबसे पहली आवश्यकता है। एक स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन का सच्चा आनंद ले सकता है; पढ़ाई की गहराई में जा सकता है; अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु त्याग, तपस्या व मेहनत कर सकता है। एक रोगी व्यक्ति स्वयं ही दुखी तथा दूसरों पर बोझ होता है स्वस्थ रहने के नियमों का पालन करें। जल-उपवास करें अथवा रसाहार लें। दवाओं से बचें। दवाओं से प्राप्त किया गया स्वास्थ्य सच्चा स्वास्थ्य नहीं है। संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए प्राकृतिक नियमों का पालन करें। प्रकृति से बड़ा डॉक्टर, उपवास से बड़ा इलाज एवं उषा: पान से बडी दवा इस संसार में कोई नहीं।
स्वस्थ रहने के नियम बहुत सरल हैं। जल्दी सोयें, जल्दी उठें। रात को सोने से पहले एक ग्लास व सुबह उठकर दो ग्लास पानी पीयें। नित्य आसन-प्राणायाम व ध्यान करें। प्रतिदिन पसीना आये ऐसा श्रम अथवा खेलकूद अवश्य करें। भूख से कम भोजन लें, चौथाई पानी व चौथाई हवा के लिये पेट खाली रखें। भोजन अच्छी तरह चबाकर शांतिपूर्वक करें। पानी भोजन के एक घंटे बाद पीयें। सादा सात्विक भोजन लें। बहुत गर्म व बहुत ठंडे पदार्थों, पेप्सी, कोलों आदि से बचें। कहा भी गया है – जैसा खायें अन्न वैसा बने मन, अतः केवल पवित्र व ईमानदारी की कमाई का भोजन ही स्वीकार करें। व्यसनों से मुक्त रहें।
स्वस्थ नेत्र : आज मानसिक तनाव व दबाव,अनियमित जीवन, अप्राकृतिक खानपान के कारण छोटे बच्चे भी नेत्र-रोगों के शिकार हैं। आँखें हमे प्रभु की दी हुई अनमोल देन हैं। इनकी रक्षा करें। नेत्र रोगों के उपरोक्त कारणों को दूर करें। हरी सब्जियाँ, फलों आदि का अधिक प्रयोग करें। सूर्य-स्नान, नेत्र-स्नान, जल-नेति, पॉमिंग, आँखों तथा गर्दन के व्यायाम आदि सीखें व नियमित अभ्यास करें। तनाव से बचें। बहुत कम या बहुत अधिक प्रकाश में पढ़ाई न करें। ज्योति बिंदु या काले बिंदु पर त्राटक का अभ्यास करें। अपनी अनमोल आँखों का ख्याल रखेंगे तो ये आपकी जीवन भर सेवा करेंगी एवं साथ निभायेंगी।
इस संसार में प्राणीमात्र के लिए आँखें भगवान की एक अनुपम देन हैं। आँखें स्वस्थ रहें एवं आजीवन साथ निभायें, यह प्रत्येक जीवधारी की अभिलाषा रहती है। बिना आँखों के संसार मात्र अंधकार है। कहा भी है – आँख है तो जहान है। स्वस्थ आँखों के बिना जीवन अधूरा है। ऐसी उपयोगी आँखो के स्वास्थ्य के लिए हम बहुत कम ध्यान देते हैं। यदि कुछ सरल सी बातों को अपने दैनिक जीवन में उतार लिया जाय तो ईश्वर की ये अनुमोल देन जीवनभर हमारा साथ निभायेंगी।
पढ़ते समय प्रकाश सामने व थोड़ा बांयी ओर से आये ऐसी व्यवस्था करें। पुस्तक को लगभग एक फिट दूर रखकर पढ़ें अथवा लिखें।
बहुत तेज प्रकाश और बहुत कम प्रकाश में पढ़ाई न करें। बहुत झुककर या लेटकर पढ़ाई न करें। बिजली या धूप की तेज रोशनी में पढ़ना ठीक नहीं। चूल्हे पर, धुँए में या चकाचौंध रोशनी में कभी कार्य न करें। इससे Vitamin “A” की कमी हो जाती है। कार में बैठकर यात्रा करते हुए पढ़ने से और भोजन के तत्काल बाद पढ़ने से नेत्रों को हानि पहुँचती है।
बिना दबाव व तनाव के स्वाभाविक रूप से देखने की आदत डालें। घूर घूर कर नहीं देखें। बीच-बीच में पलकें झपकातें रहें। T. V. कार्यक्रम, फिल्म, कम्प्यूटर कार्य में स्क्रीन की ओर लगातार न देखें। इनके एकदम
सामने न बैठ थोड़ा दूर व तिरछा बैठें। बीच-बीच में Palming व गर्दन का व्यायाम करें, व आँखों पर ठंडे पानी के छींटे डालकर धोयें।
अनुचित आहार व दोषपूर्णरक्त संचार भी नेत्र रोगों के प्रमुख कारण है। आँखों के रोगों से बचने व मुक्त होने के लिए आहार विहार के संयम द्वारा शरीर शुद्धि व कब्ज से मुक्ति एक प्रमुख आधार है। आहार में फल व हरी सब्जियों व सलाद की मात्रा अधिक रखें। अंकुरित मूंग व चने भी उत्तम हैं। गाजर, चुकन्दर व आंवलों का रस नेत्र ज्योति हेतु उत्तम है।
फल, हरी सब्जियां,सलाद आदि का अप्राकृतिक आहार जैसे डिब्बाबंद (Packed), परिरक्षित (Preserved), परिष्कृत (Refined) व तले हुए (Deep Fried) खाद्यों से दूर रहें।लगातार मानसिक दबाव व तनाव बने रहने से गर्दन के पीछे की रीढ़ की हड्डी कड़ी हो जाती है व आसपास की मांसपेशियां सिकुड़ जाती हैं, जो कि नेत्र दोषों का प्रमुख कारण हैं। चिंता, नकारात्मक विचार, भय, घृण, मानसिक तनाव, किसी दबाव आदि से मुक्त रहने का प्रयास करें।
पॉमिंग (Palming) : नेत्रों को सहज ही ठंडक व विश्राम देने की यह एक सर्वश्रेष्ठ विधि है। इसमें आँखों को बिना स्पर्श किये हथेलियों से ढका जाता है तथा उसमें आँख खोलकर अंधकार का दर्शन किया जाता
मस्तिष्क व आँखों को शिथिलीकरणतथा पॉमिंग द्वारा कार्यों के बीच में विश्राम देते रहना उत्तम है। नेत्र-स्नान कागासन की स्थिति में बैठकर अथवा वॉश बेसिन पर सहब झुककर मुँह में पानी भर ले। तत्पश्चात् आँखों पर ठंडे पानी के १०-१५ चार छींटे मारे। फिर मुँह से पानी छोड़ दें। पुनः मुँह में पानी भरकर क्रिया दोहरायें। ऐसी ३ क्रियायें करें। इस क्रिया से नेत्र ज्योति बढ़ती है। मस्तिष्क की गर्मी दूर होने से सिरदर्द, आँखों की थकान व जलन दूर होती है। रात्रि विश्राम के पहले इस क्रिया को करने से नींद अच्छी आती है। सावधानियाँ – जिन्हें मोतियाबिन्द हो, हाल ही में आँखों का ऑपरेशन हुआ हो या आँखें सदैव लाल रहती हों, वे कृपया यह नेत्र-स्नान क्रिया न करें। 1 लिटर पानी में 50gm त्रिफला, मिट्टी के बर्तन में रात को भिगोयें व प्रातःमसल कर छानकर नेत्र स्नान करें। अथवा हरी बोतल में रखें पानी से आँखें धोयें।
सूर्य स्नान सूर्योदय व सूर्यास्त की किरण का (Visible rays का) 5 मिनट तक बंद नेत्रों से धूप-स्नान लेना भी दृष्टिदोषों को दूर करने में सर्वोत्तम है। इसके बाद पॉमिंग व ठंडे पानी के छीटों द्वारा नेत्र स्नान करें। जल-नेति: नेत्रों की ज्योति व स्वास्थ्य के लिये यह सर्वोत्तम है। इसे सीखें व करें। सप्ताह में एक बार करना पर्याप्त है।आँखों के तथा गर्दन के विभिन्न व्यायाम सीखें व नियमित करें।
आसन : नेत्र रोगों को दूर करने में सर्वांगासन, योगमुद्रासन, हस्तपाद चक्रासन, शीर्षासन, भूमिपाद शिरासन आदि बहुत उपयोगी आसन हैं।
नियमित धूप स्नान, वायु स्नान, उषा: पान, व्यायाम, उपवास आदि से नेत्र जीवन भर आपका साथ निभायेंगे।
प्राणायाम : नाडी शोधन व भस्त्रिका प्राणायाम उपयोगी हैं। इन्हें सीखें व करें। त्राटक : किसी ज्योति बिंदु या काले बिंदु पर नेत्रों को स्थिर करें। पांच मिनट से प्रारम्भ कर 30 मिनट तक अभ्यास बढायें। इससे नेत्र ज्योति कई गुना बढ़ जाती है। सकारात्मक विचारों द्वारा मन-मस्तिष्क को स्वस्थ व तनाव मुक्त रखें।
प्रातः हरी घास पर नंगे पैर आधा घंटा टहलें तथा हरियाली दर्शन करें। रोज प्रातः व रात्रि में पावों के तलवों की तिल या सरसों के तेल से मालिश करें। मैले हाथों या गंदे कपड़े से आँखों को कभी पोछें या मलें नहीं। दाँतों के स्वास्थ्य व सफाई पर भी ध्यान दें। दाँत मजबूत होंगे तो नेत्र ज्योति भी तेज होगी। यथासम्भव ठण्डे जल से स्नान करें। नेत्रों हेतु लाभकारी है। सौंफ का बारीक चूर्णकर उसमें बराबर भाग मिश्री या चीनी पाउडर मिलाकर रख लें। रात्रि सोने से पहले एक चम्मच लें। यह नेत्र ज्योति के लिए उत्तम है।
यह सब उपाय करते हुए सकारात्मक चिंतन करना मुख्य अंग है। यह अनुभव सिद्ध बात है कि व्यक्ति जैसा सोचता है व करता है, वह वैसा ही बन जाता है। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक शक्तियां अनंत है। वह इनका साधारणत: ६ से १०% ही उपयोग कर पाता है, शेष शक्तियां सुप्त पड़ी रहती है। इन शक्तियों के जागरण का प्रमुख आधार है सकारात्मक चिन्तन सकारात्मक चिंतन के अभ्यास की साधना सर्व साधनाओं है। सर्व साधनाओं का लक्ष्य है जीवन में सकारात्मक चितन का विकास। इसके बिना कोई भी साधना अधूरी ही कही जायेगी। निरंतर रचनात्मक कार्यों में लगे रहने का फल सदा शहद जैसा मीठा ही होता है। सर्व महापुरूष एवं जीवन के सर्व अनुभव हमें सकारात्मक व रचनात्मक चिन्तन की ओर ईशारा करते हैं। एक सकारात्मक चिन्तन वाला व्यक्ति यमराज का भी मुस्कराते हुए नए जन्म के रूप में स्वागत करता है, अंधकार की शिकायत करने के बजाय वह सितारों का आनंद लेता है। जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी वह करूणामय ईश्वर की करूणा एवं कल्याण के दर्शन करता है। वह नम्र व विनयशील अवश्य रहता है लेकिन कायर या निर्बल नहीं होता। वह आत्मबल से सम्पन्न एवं आत्मविश्वास से भरपूर होता है। वह मानता है कि संसार में कोई भी व्यक्ति, वस्तु, वैभव, परिस्थिति किसी को दु:ख व कष्ट नहीं दे सकते। अच्छी-बुरी सर्व परिस्थितियों को वह अपने ही पूर्व में बोये कर्म रूपी बीजों के फल मान सहर्ष स्वीकार करता है। कर्मफल धूप छाँव की तरह जीवन में आकर विदा हो जाते हैं, सकारात्मक चिंतनयुक्त व्यक्ति स्वयं साक्षी रहते हुए, जीवन रूपी नाटक के इन दृष्यों को देखते सदा हर्षित व रहता है।
सकारात्मक चिंतन का अभ्यास करते वह अखिल ब्रह्माण्ड के प्राकृतिक व शाश्वत सिद्धांतों, कर्मफल के अटल विधान तथा ईश्वरीय न्याय पर पूर्ण श्रद्धा व निष्ठा रखता है। वह सदा अपने विचारों को पवित्र, वाणी को शहद जैसी मीठी व रत्नों से अनमोल तथा कर्मों को श्रेष्ठ, दिव्य गुणों से महकता रखता है। धन्य हैं वे जो जीवन में सकारात्मक चिंतन का अभ्यास करते हैं। धन्य है वे माँ-बाप जो अपने बच्चों को सकारात्मक चिंतन के संस्कार विरासत में देकर जाते हैं। आइए! जीवन में सकारात्मक चिंतन के विकास हेतु हम आज से व अभी से ही प्रयास प्रारम्भ करें एवं इनके द्वारा जीवन में सच्ची सुख-शांति, आनंद, प्रेम की प्राप्ति हेतु श्रेष्ठ कर्मों के बीजों को बोयें।
मनुष्य के शरीर का विज्ञान अदभूत हैं। मनुष्य के शरीर का हर एक अवयव अपने योग्य स्थान पर अपना कार्य सुचारू रूप से करता है। मानव शरीर यह वह मशीन है, जो आपका हर समय में आपका साथ निभाती है। हमारे शरीर के प्रत्येक क्रिया का वैज्ञानिक आधार होती है।अगर शरीर पर कुछ घाव हो जाए तो शरीर अपने आप उस घाव को ठीक करता है। शरीर में अशुद्धि जमा होने पर उस टॉक्सिन को शरीर के बाहर निकले की क्रिया भी अपने आप शरीर करता है। इंटेलेंजेंस का खज़ाना है, मानव शरीर। हमे ध्यान देकर प्रत्येक क्रिया को समझना है। पूर्ण स्वस्थता को प्राप्त होना हमारा मूल कर्तव्य है। स्वास्थ को आकर्षित किया जाए तो हमे स्वास्थ निरोगी होने से कोई नही रोक सकता। मनुष्य शरीर इस अखिल ब्रह्माण्ड का छोटा स्वरूप है। इस शरीर रूपी काया को व्यापक प्रकृति की अनुकृति कहा गया है। विराट् का वैभव इस पिण्ड के अन्तर्गत बीज रूप में प्रसुप्त स्थिति में विद्यमान है। कषाय-कल्मषों का आवरण चढ़ जाने से उसे नर पशु की तरह जीवनयापन करना पड़ता है। यदि संयम और निग्रह के आधार पर इसे पवित्र और प्रखर बनाया जा सके, तो इसी को ऋद्धि-सिद्धियों से ओत-प्रोत किया जा सकता है । कोयला ही हीरा होता है। पारे से मकरध्वज बनता है। यह अपने आपको तपाने का तपश्चर्या का चमत्कार है।
जीवात्मा परमात्मा का अंशधर ज्येष्ठ पुत्र, युवराज है। संकीर्णता के भव-बन्धनों से छूटकर वह “आत्मवत् सर्व भूतेषु” की मान्यता परिपुष्ट कर सके, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना परिपक्व कर सके, तो जीवन में स्वर्ग और मुक्ति का रसास्वादन कर सकता है। जीव को ब्रह्म की समस्त विभूतियाँ हस्तगत करने का सुयोग मिल सकता है। हम काया को तपश्चर्या से तपायें और चेतना को परम सत्ता में योग द्वारा समर्पित करें तो नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम, क्षुद्र महान् बनने का सुयोग निश्चित रूप से मिल सकता है।
सृष्टि की रचना में सूर्य और चन्द्र का महत्वपूर्ण स्थान होता है। हमारा जीवन अन्य ग्रहों की अपेक्षा सूर्य और चन्द्र से अधिक प्रभावित होता है उसी के कारण दिन-रात होते हैं तथा जलवायु बदलती रहती है। समुद्र में तेज बहाव भी सूर्य एवं चंद्र के कारण आता है। हमारे शरीर में भी लगभग दो तिहाई भाग पानी होता है। सूर्य और चन्द्र के गुणों में बहुत विपरीतता होती है। एक गर्मी का तो दूसरा ठण्डक का स्रोत माना जाता है। सर्दी और गर्मी सभी चेतनाशील प्राणियों को बहुत प्रभावित करते हैं। शरीर का तापमान 98.4 डिग्री फारेनाइट निश्चित होता है और उसमें बदलाव होते ही रोग और अशुद्धि होने की संभावना होने लगती है।
मनुष्य के शरीर में भी सूर्य और चन्द्र की स्थिति शरीरस्थ नाड़ियों में मानी गई है। मूलधार चक्र से सहस्रार चक्र तक शरीर में 72000 नाड़ियों का हमारे पौराणिक ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है। स्वर विज्ञान सूर्य, चन्द्र आदि यहाँ को शरीर में स्थित इन सूक्ष्म नाड़ियों की सहायता से अनुकूल बनाने का विज्ञान है। स्वर क्या है ? नासिका द्वारा श्वास के अन्दर जाने और बाहर निकालते समय जो अव्यक्त ध्वनि होती है, उसी को स्वर कहते हैं। नाड़ियाँ क्या है ? नाडियाँ चेतनशील प्राणियों के शरीर में वे मार्ग हैं, जिनमें से होकर प्राण ऊर्जा शरीर के विभिन्न भागों तक प्रवाहित होती है। हमारे शरीर में तीन मुख्य नाडियाँ होती है। ये तीनों नाडियाँ मूलधार चक्र से सहस्रार चक्र तक मुख्य रूप से चलती है। इनके नाम ईंडा, पिंगला और सुषुम्ना है। इन नाड़ियों का सम्बन्ध संपूर्ण शरीर से नहीं होता। अतः आधुनिक यंत्रों, एक्स, सोनोग्राफी आदि यंत्रों से अभी तक उनको प्रत्यक्ष देखना संभव नहीं हो सका है। जिन स्थानों पर ईडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियाँ आपस में मिलती है, उनके संगम को शरीर में ऊर्जा चक्र अथवा शक्ति केन्द्र कहते हैं।
ईडा और पिंगला नाड़ी तथा दोनों नासिका रंध्र से प्रवाहित होने वाली श्वास के बीच सीधा संबंध होता है, सुषुम्ना के बांयी तरफ ईंडा और दाहिनी तरफ पिंगला नाड़ी होती है। ये दोनों नाड़ियाँ मूलधार चक्र से उगम होकर अपना क्रम परिवर्तित करती हुई षटचक्रों का भेदन करती हुई कपाल तक बढ़ती हैं। प्रत्येक चक्र पर एक दूसरे को काटती हुई आगे नाक के नथुनों तक पहुंचती है। उनके इस परस्पर सम्बन्ध के कारण ही व्यक्ति नासिका से प्रवाहों को प्रवाहित करके अत्यन्त सूक्ष्म स्तर पर ईंडा और पिंगला नाड़ी में संतुलन स्थापित कर सकता है। श्वसन में दोनों नथूनों की भूमिका जन्म से मृत्यु तक हमारे श्वसन की क्रिया निरन्तर चलती रहती है। यह क्रिया दोनों नथुने से एक ही समय समान रूप से प्राय: नहीं होती। श्वास कभी बाये नथुने से, तो कभी दाहिने नथुने से चलता है। कभी-कभी थोड़े समय के लिए दोनों नथुने से समान रूप से चलता है।
बांये नथूने से जब श्वास प्रक्रिया होती है तो चन्द्र स्वर का चलना, दाहिने नथूने में जब श्वास की प्रक्रिया मुख्य होती है तो उसे सूर्य स्वर का चलना तथा जब श्वास दोनों नथूने के समान रूप से चलता है तो उस अवस्था को सुषुम्ना स्वर का चलना कहते हैं। एक नथुने को दबाकर दूसरे नथूने के द्वारा श्वास बाहर निकालने पर यह स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है कि एक नथूने से जितना सरलतापूर्वक श्वास चलता है उतना उसी समय प्रायः दूसरे नथूने से नहीं चलता। जुकाम आदि न होने पर भी मानों दूसरा नथूना प्रायः बन्द है, ऐसा अनुभव होता है। जिस नथूने से श्वास सरलतापूर्वक चलता है, उसी समय उसी स्वर से सम्बन्धित नाड़ी में श्वास का चलना कहा जाता है तथा उस समय अव्यक्त स्वर को उसी नाड़ी के नाम से पहचाना जाता है। अतः ईडा नाड़ी के चलने पर ईंडा स्वर, पिंगला नाड़ी के चलने पर पिंगला स्वर और सुषुम्ना से श्वसन होने पर सुषुम्ना स्वर प्रभावी होता है।
ईडा और पिंगला श्वास प्रवाह का सम्बन्ध सिम्पथेटिक और पेरासिम्पथेटिक स्नायु संस्थान से होता है, जो शरीर के विभिन्न क्रिया कलापों का नियन्त्रण और संचालन करते हुए उन्हें परस्पर संतुलित बनाए रखता है। ईडा और पिंगला दोनों स्वरों का कार्य क्षेत्र कुछ समानताओं के बावजूद अलग-अलग होता है। ईडा का संबंध ज्ञानवाही धाराओं, मानसिक क्रिया कलापों से होता है। पिंगला का संबंध क्रियाओं से अधिक होता है। अर्थात् इडा शक्ति का आन्तरिक रूप से होती है, जबकि पिंगला शक्ति का बाह्य रूप से होता है। तथा सुषुम्ना केन्द्रीय शक्ति होती है, उसका संबंध केन्द्रीय नाड़ी संस्थान (Central Nervous System) से होता है। जब पिंगला स्वर प्रभावी होता है, उस समय शरीर की बाह्य क्रियाएँ सुगमता से होने लगती है। शारीरिक ऊर्जा दिन के समान सजग, सक्रिय और जागृत होने लगती है। अतः पिंगला नाड़ी को सूर्य नाड़ी एवं उसके स्वर को सूर्य स्वर भी कहते हैं। परन्तु जब ईडा स्वर सक्रिय होता है तो उस समय शारीरिक शक्तियाँ सुषुप्त अवस्था में विश्राम कर रहीं होती है। अतः आन्तरिक कार्यों हेतु अधिक ऊर्जा उपलब्ध होने से मानसिक सजगता बढ़ जाती है। चन्द्रमा से मन और मस्तिष्क अधिक प्रभावित होता है क्योंकि चन्द्रमा को मन का स्वामी भी कहते हैं। अतः ईडा नाड़ी को चन्द्र नाड़ी और उसके स्वर को चन्द्र स्वर भी कहते हैं। चन्द्र नाड़ी शीतलता प्रधान होती है, जबकि सूर्य नाड़ी उष्णता प्रधान होती है। सुषुम्ना दोनों के बीच संतुलन रखती है। सूर्य स्वर मस्तिष्क के बायें भाग एवं शरीर में मस्तिष्क के नीचे के दाहिने भाग को नियन्त्रित करता है, जबकि चन्द्र स्वर मस्तिष्क के दाहिने भाग एवं मस्तिष्क के नीचे शरीर के बायें भाग से संबंधित अंगों, में अधिक प्रभावकारी होता है जो स्वर ज्यादा चलता है, शरीर में उससे संबंधित भाग को अधिक ऊर्जा मिलती है। तथा बाकी दूसरे भागों को अपेक्षित ऊर्जा नहीं मिलती। अतः जो अंग कमजोर होता है, उससे संबंधित स्वर को चलाने से रोग में लाभ होता है।
स्वस्थ मनुष्य का स्वर प्रकृति के निश्चित नियमों के अनुसार चला करता है। उनका अनियमित प्रकृति के विरूद्ध चलना शारीरिक और मानसिक रोगों के आगमन और भविष्य में अमंगल का सूचक होता है। ऐसी स्थिति में स्वरों को निश्चित और व्यवस्थित ढंग से चलाने के अभ्यास से अनिष्ट और रोगों से न केवल रोकथाम होती है, अपितु उनका उपचार भी संभव है। शरीर में कुछ भी गड़बड़ होते ही गलत स्वर चलने लग जाता है। नियमित रूप से सही स्वर अपने निर्धारित समयानुसार तब तक नहीं चलने लगता, जब तक शरीर पूर्ण रूप से रोग मुक्त नहीं हो जाता। स्वर नियन्त्रण स्वास्थ्य का मूलाधार स्वर विज्ञान भारत के ऋषि मुनियों की अद्भुत खोज है। उन्होंने मानव शरीर की प्रत्येक क्रिया प्रतिक्रिया का सूक्ष्मता से अध्ययन किया, देखा, परखा तथा श्वास-प्रश्वास की गति, शक्ति, सामर्थ्य के सम्बन्ध में आश्चर्य चकित कर देने वाली जो जानकारी हमें दी उसके अनुसार मात्र स्वरों को आवश्यकतानुसार संचालित नियन्त्रित करके जीवन की सभी समस्याओं का समाधान पाया जा सकता है। जिसका विस्तृत विवेचन “शिव स्वरोदय शास्त्र” में किया गया है। जिसमें योग के जनक आदियोगी शिव ने स्वयं पार्वती को स्वर के प्रभावों से परिचित कराया हैं।
मां प्रकृति ने हमें अपने आपको स्वस्थ और सुखी रहने के लिए सभी साधन और सुविधाएँ उपलब्ध करा रखी है, परन्तु हम प्रायः मां प्रकृति की भाषा और संकेतों को समझने का प्रयास नहीं करते। हमारे नाक में दो नथुने क्यों ? यदि इनका कार्य मात्र श्वसन ही होता तो एक छिद्र में भी कार्य चल सकता है। दोनों में हमेशा एक साथ बराबर श्वास प्रश्वास की प्रक्रिया क्यों नहीं होती? कभी एक नथुने में श्वास का प्रवाह सक्रिय है तो कभी दूसरे में क्यों ? क्या हमारी गतिविधियों और श्वास का आपसी तालमेल होता है। हमारी क्षमता का पूरा उपयोग क्यों नहीं होता? कभी-कभी कार्य करने में मन लग जाता है, तो कभी बहुत प्रयास करने के बावजूद हमारा मन क्यों नहीं लगता? ऐसी समस्त समस्याओं का समाधान स्वर विज्ञान में मिलता है। शरीर की बनावट में प्रत्येक भाग का कुछ न कुछ महत्व पूर्ण कार्य अवश्य होता है। कोई भी भाग अनुपयोगी अथवा पूर्णतया व्यर्थ नहीं होता। स्वरों और मुख्य नाड़ियों का आपस में एक दूसरे से सीधा सम्बन्ध होता है। ये व्यक्ति के सकारात्मक और नकारात्मक भावों का प्रतिनिधित्व करती है, जो उसके भौतिक अस्तित्व से सम्बन्धित होते हैं। उनके सम्यक संतुलन से ही शरीर के ऊर्जा चक्र जागृत रहते हैं। ग्रन्थियाँ क्रियाशील होती है। चन्द्र नाड़ी और सूर्य नाड़ी में प्राणवायु का प्रवाह नियमित रूप से बदलता रहता है।
सामान्य परिस्थिति मे यह परिवर्तन प्रायः प्रति घंटे के लगभग अन्तराल में होता है। परन्तु ऐसा भी होना अनिवार्य नहीं होता। यह परिवर्तन हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है। जब हम अन्तर्मुखी होते हैं, उस समय प्रायः चन्द्र स्वर तथा जब हम बाह्य प्रवृत्तियों में सक्रिय होते हैं तो सूर्य स्वर अधिक प्रभावी होता है। यदि चन्द्र स्वर की सक्रियता के समय हम शारीरिक श्रम के कार्य करें तो उस कार्य में प्राय: मन नहीं लगता। उस समय मन अन्य कुछ सोचने लग जाता है। ऐसी स्थिति में यदि मानसिक कार्य करें तो बिना किसी कठिनाई के वे कार्य सरलता से हो जाते है। ठीक जब सूर्य स्वर चल रहा हो और उस समय यदि हम मानसिक करते हैं तो उस कार्य में मन नहीं लगता,और एकाग्रता नहीं आती। इसके बावजूद भी जबरदस्ती कार्य करते हैं तो सिर दर्द होने लगता है। कभी-कभी सही स्वर चलने के कारण मानसिक कार्य बिना किसी प्रयास के होते चले जाते हैं तो, कभी कभी शारीरिक कार्य भी पूर्ण रुचि और उत्साह के साथ होते हैं।
यदि सही स्वर में सही कार्य किया जाए तो हमें प्रत्येक कार्य में अपेक्षित सफलता सरलता से प्राप्त हो सकती है। जैसे अधिकांश शारीरिक श्रम वाले साहसिक कार्य जिसमें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, सूर्य स्वर में ही करना अधिक लाभदायक होता है। सूर्य स्वर में व्यक्ति की शारीरिक कार्य क्षमता बढ़ती है। ठीक उसी प्रकार जब चन्द्र स्वर चलता है, उस समय व्यक्ति में चिन्तन, मनन और विचार करने की क्षमता बढ़ती है। स्वर द्वारा ताप संतुलन जब चन्द्र स्वर चलता है तो शरीर में गर्मी का प्रभाव घटने लगता है। अतः गर्मी सम्बन्धित रोगों एवं बुखार के समय चन्द स्वर को चलाया जाये तो बुखार शीघ्र ठीक हो सकता है। ठीक उसी प्रकार भूख के समय जठराग्नि,उत्तेजना के समय प्रायः मानसिक गर्मी अधिक होती है। अतः ऐसे समय चन्द्र स्वर को सक्रिय रखा जाये तो उन पर सहजता से नियन्त्रण पाया जा सकता है।
शरीर में होने वाले जैविक रासायनिक परिवर्तन जो कभी शान्त और स्थिर होते हैं तो कभी तीव्र और उम्र भी होते हैं। जब शरीर में उष्णता का असंतुलन होता है, तो शरीर में रोग होने लगते हैं। अतः यह प्रत्येक व्यक्ति के स्व विवेक पर निर्भर करता है, कि उसके शरीर में कितना उष्णता असंतुलन है। उसके अनुरूप अपने स्वरों का संचालन कर अपने आपको स्वस्थ रखें। जब दोनों स्वर बराबर चलते हैं, शरीर की आवश्यकता के अनुरूप चलते है, तो व्यक्ति स्वस्थ रहता है। दिन में सूर्य के प्रकाश और गर्मी के कारण प्राय: शरीर में गर्मी अधिक रहती है। अतः सूर्य स्वर से सम्बन्धित कार्य करने के अलावा जितना ज्यादा चन्द्र स्वर सक्रिय होगा उतना स्वास्थ्य अच्छा होता है। इसी प्रकार रात्रि में दिन की अपेक्षा ठण्डक ज्यादा रहती है। चांदनी रात्रि में इसका प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है। श्रम की कमी अथवा निद्रा के कारण भी शरीर में निष्क्रियता रहती है। अतः उसको संतुलित रखने के लिए सूर्य स्वर को अधिक चलाना चाहिए। इसी कारण जिन व्यक्तियों के दिन में चन्द्र स्वर और रात में सूर्य स्वर स्वभाविक रूप से अधिक चलता है ये मानव प्रायः दीर्घायु होते हैं।
चन्द्र और सूर्य स्वर का असन्तुलन ही थकावट, चिंता तथा अन्य रोगों को जन्म देता है। अतः दोनों का संतुलन और सामन्जस्य स्वस्थता हेतु अनिवार्य है। चन्द्र नाड़ी का मार्ग निवृत्ति का मार्ग है, परन्तु उस पर चलने से पूर्व सम्यक् सकारात्मक सोच आवश्यक है। इसी कारण “पतंजली योग” और “कर्म निर्जरा” के भेदों में ध्यान से पूर्व स्वाध्याय की साधना पर जोर दिया गया है। स्वाध्याय के अभाव में नकारात्मक निवृत्ति का मार्ग हानिकारक और भटकाने वाला हो सकता है। आध्यात्मिक साधकों को चन्द्र नाड़ी की क्रियाशीलता का विशेष ध्यान रखना चाहिये। लम्बे समय तक रात्रि में लगातार चन्द्र स्वर चलना और दिन में सूर्य स्वर चलना, रोगी को अशुभ स्थिति का सूचक होता है, और उसका आयुष्य कम होता चला जाता हैं। सूर्य नाड़ी का कार्य प्रवृत्ति का मार्ग है। यह वह मार्ग है जहां भीतर का गौण होता है। व्यक्ति अपने व्यक्तिगत लाभ तथा महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु कठिन परिश्रम करता है। कामनाओं और वासनाओं की पूर्ति हेतु प्रयत्नशील होता है। इसमें चेतना अत्यधिक बहिर्मुखी होती है। अतः ऐसे व्यक्ति आध्यात्मिक पथ पर सफलता पूर्वक आगे नहीं बढ़ पाते।
चन्द्र और सूर्य नाड़ी के क्रमशः प्रवाहित होते रहने के कारण ही व्यक्ति उच्च सजगता में प्रवेश नहीं कर पाता। जब तक ये क्रियाशील रहती है, योगाभ्यास में अधिक प्रगति नहीं हो सकती। जिस क्षण ये दोनों शांत होकर सुषुम्ना के केन्द्र बिन्दु पर आ जाती है तभी सुषुम्ना की शक्ति जागृत होती है और यहीं से अन्तर्मुखी ध्यान का प्रारम्भ होता है। चन्द्र और सूर्य नाड़ी में जब श्वांस का प्रवाह शांत हो जाता है तो सुषुम्ना में प्राण प्रवाहित होने लगता है। इस अवस्था में व्यक्ति की सुप्त शक्तियाँ सुव्यवस्थित रूप से जागृत होने लगती है। अतः वह समय अन्तर्मुखी साधना हेतु सर्वाधिक उपर्युक्त होता है। व्यक्ति में अहं समाप्त होने लगता है। अहं और आत्मज्ञान उसी प्रकार एक साथ नहीं रहते, जैसे दिन के प्रकाश में अन्धेरे का अस्तित्व नहीं रहता। अपने अहंकार को न्यूनतम करने का सबसे उत्तम उपाय सूर्य नाड़ी और चन्द्र नाड़ी के प्रवाह को संतुलित करना है। जिससे हमारे शरीर, मन और भावनायें कार्य के नये एवं परिष्कृत स्तरों में व्यवस्थित होने लगती है। चन्द्र और सूर्य नाड़ी का असंतुलन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करता है। जीवन में सक्रियता व निष्क्रियता में इच्छा व अनिच्छा में सुसुप्ति और जागृति में, पसन्द और नापसन्द में, प्रयत्न और प्रयत्नशीलता में, पुरुषार्थ और पुरुषार्थ हीनता में, विजय और पराजय में, चिन्तन और निश्चितता में तथा स्वछन्दता और अनुशासन में दृष्टिगोचर होता है।
जब चन्द्र नाड़ी से सूर्य नाड़ी में प्रवाह बदलता है तो इस परिवर्तन के समय एक सौम्य अथवा संतुलन की अवस्था आती है। उस समय प्राण ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी से प्रवाहित होती है। अर्थात् यह कहना चाहिये कि सुषुम्ना स्वर चलने लगता है। यह तुरीया अवस्था मात्र थोड़ी देर के लिए ही होती है। यह समय ध्यान के लिए सर्वोत्तम होता है। ध्यान की सफलता के लिए प्राण ऊर्जा का सुषुम्ना में प्रवाह आवश्यक है। इस परिस्थिति में व्यक्ति न तो शारीरिक रूप से अत्यधिक क्रियाशील होता है और न ही मानिसक रूप से विचारों से अति विक्षिप्त प्राणायाम एवं अन्य विधियों द्वारा इस अवस्था को अपनी इच्छानुसार प्राप्त किया जा सकता है। यही कारण है कि योग साधना में प्राणायाम को इतना महत्व दिया जाता । प्राणायाम को औषधि माना गाय है। कपाल भाति प्राणायाम करने से सुषुम्ना स्वर शीघ्र चलने लगता है।
नथुने के पास अपनी अंगुलियाँ रख श्वसन क्रिया का अनुभव करें। जिस समय जिस नथुने से श्वास प्रवाह होता है, उस समय उस स्वर की प्रमुखता होती है। बाए नथुने से श्वास चलने पर चन्द्र स्वर, दाहिने नथूने से श्वास चलने पर सूर्य स्वर तथा दोनों नथून से श्वास चलने को सुषुम्ना स्वर का चलना कहते है।स्वर को पहचानने का दूसरा तरीका है कि हम बारी-बारी से एक नथूना बंद कर दूसरे नबूने से श्वाल लें और छोड़े। जिस नथुने से श्वसन सरलता से होता है, उस समय उससे सम्वन्धित
स्वर प्रभावी होता है। स्वर बदलने के नियम अस्वभाविक अथवा प्रवृत्ति की आवश्यकता के विपरीत स्वर शरीर में अस्वस्थता का सूचक होता है। निम्न विधियों द्वारा स्वर को सरलतापूर्वक कृत्रिम ढंग से बदला जा सकता है, ताकि हमें जैसा कार्य करना हो उसके अनुरूप स्वर का संचालन कर प्रत्येक कार्य को सम्यक् प्रकार से पूर्ण क्षमता के साथ कर सके।
1.जो स्वर चलता हो, उस नथुने को अंगुलि से या अन्य किसी विधि द्वारा थोड़ी देर तक दबाये रखने से, विपरीत इच्छित वर चलने लगता है।
2. चालू स्वर वाले नथूने से पूरा श्वास ग्रहण कर बन्द नथूने से श्वास छोड़ने की क्रिया बार-बार करने से बन्द जो स्वर चालू करना हो, शरीर में उसके विपरीत भाग की तरफ करवट लेकर सोने से स्वर चलने लगता है।
3. जिस तरफ का स्वर बंद करना हो उस तरफ की बगल में दबाब देने से चालू स्वर बंद हो जाता है तथा इसके विपरीत दूसरा स्वर चलने लगता है। जो स्वर बंद करना हो, उसी तरफ के पैरों पर दबाव देकर थोड़ा झुककर उसी तरफ खड़ा रहने से उस तरफ का स्वर बन्द हो जाता है।
4. जो स्वर बंद करना हो, उधर गर्दन को घुमाकर ठोड़ी पर रखने से कुछ मिनटों में वह स्वर बन्द हो जाता है। चलित स्वर में स्वच्छ रुई डालकर नथुने में अवरोध उत्पन्न करने से स्वर बदल जाता है।
5. कपाल भाति और नाड़ी शोधन प्राणायाम से सुषुम्ना स्वर चलने लगता है।
निरन्तर चलते हुए सूर्य या चन्द्र स्वर के बदलने के सारे उपाय करने पर भी यदि स्वर न बदले तो रोग असाध्य होता है। उस व्यक्ति की मृत्यु समीप होती है। मृत्यु के उक्त लक्षण होने पर भी स्वर परिवर्तन का निरन्तर अभ्यास किया जाय तो मृत्यु को कुछ समय के लिए टाला जा सकता है। वैसे तो शरीर में चन्द्र स्वर और सूर्य स्वर चलने की अवधि व्यक्ति की जीवनशैली और साधना पद्धति पर निर्भर करती है। परन्तु जनसाधारण में चन्द्र स्वर और सूर्य स्वर 24 घंटों में बराबर चलना अच्छे स्वास्थ्य का सूचक होता है। दोनों स्वरों में जितना ज्यादा असंतुलन होता है उतना ही व्यक्ति अस्वस्थ अथवा रोगी होता है। संक्रामक और असाध्य रोगों में यह अन्तर काफ़ी बढ़ जाता है। लम्बे समय तक एक ही स्वर चलने पर व्यक्ति की मृत्यु शीघ्र होने की संभावना रहती है। अतः सजगता पूर्वक स्वर चलने की अवधि को समान कर असाध्य एवं संक्रामक रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है। सजगता का मतलब जो स्वर कम चलता है उसको कृत्रिम तरिकों से अधिकाधिक चलाने का प्रयास किया जाए तथा जो स्वर ज्यादा चलता है, उसको कम चलाया जाये कार्यों के अनुरूप स्वर का नियन्त्रण और संचालन किया जाये। स्वस्थ जीवन का लक्षण हैं।
एक स्वर ज्यादा और दूसरा स्वर कम चले तो शरीर में असंतुलन की स्थिति बनने से रोग होने की संभावना रहती है। हम स्वर के अनुकूल जितनी ज्यादा प्रवृत्तियां करेंगे, उतनी अपनी क्षमताओं का अधिकाधिक लाभ अर्जित कर सकेंगे। “स्वरोदय विज्ञान” के अनुसार व्यक्ति प्रातः निद्रा त्यागते समय अपना स्वर देखें जो स्वर चल रहा है, धरती पर पहले वही पैर रखे बाहर अथवा यात्रा में जाते समय पहले वह पैर आगे बढ़ाये, जिस तरफ का स्वर चल रहा है। साक्षात्कार के समय इस प्रकार बैठे की साक्षात्कार लेने वाला व्यक्ति बन्द स्वर की तरफ हो, तो सभी कार्यों में इच्छित सफलता अवश्य मिलती है।
पंच महाभूत तत्त्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) तथा ज्योतिष के नवग्रह की स्थिति का भी हमारे स्वर से प्रत्येक परोक्ष सम्बन्ध होता है। शरीर में प्रत्येक समय अलग-अलग तत्वों की सक्रियता होती है। शरीर की रसायनिक संरचना में भी पृथ्वी और जल तत्त्व का अनुपात अन्य तत्त्वों से अधिक होता है। सारी दवाईयां प्रायः इन्हीं दो तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती है। अतः जब शरीर में पृथ्वी तत्त्व प्रभावी होता है, उस समय किया गया उपचार सर्वाधिक प्रभावशाली होता है। उससे कम जल तत्व की सक्रियता पर प्रभाव पड़ता है।
शरीर में किस समय कौनसा तत्त्व प्रभावी होता है, उनको निम्न प्रयोगों द्वारा मालूम किया जा सकता है। दोनों कान, दोनों आँखें, दोनों नथूने और मुंह बंद करने के पश्चात् यदि पीला रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में पृथ्वी तत्त्व प्रभावी होता है। सफेद रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में जल तत्त्व प्रभावी होता है। लाल रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में अग्नि तत्त्व प्रभावी होता है। काला रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में वायु तत्त्व प्रभावी होता है। मिश्रीत (अलग-अलग ) रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में आकाश तत्व प्रभावी होता है।
मुख का स्वाद मधुर हो, उस समय पृथ्वी तत्त्व सक्रिय होता है। जब
मुख का स्वाद कसैला हो, उस समय जल तत्व सक्रिय होता है। अब मुख का स्वाद तीखा हो, उस समय अग्नि तत्व सक्रिय होता है। जब मुख का स्वाद खट्टा हो, उस समय वायु तत्त्व सक्रिय होता है। मुख का स्वाद कड़वा हो, उस समय आकाश तत्व सक्रिय होता है। स्वच्छ दर्पण पर मुह से श्वांस छोड़ने पर (फूक मारने पर ) जो आकृति बनती है, वे उस समय शरीर में प्रभावी तत्त्व को दर्शाती है।
(a) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से चौकोन का आकार बनता हो तो, पृथ्वी तत्व की प्रधानता हैं।
(b ) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से त्रिकोण आकार बनता हो तो, अग्नि तत्त्व की प्रधानता।
(c) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से अर्द्ध चंद्राकार आकार बनता हो तो जल तत्व की प्रधानता। यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से वृत्ताकार (गोल) आकार बनता हो तो, वायु तत्त्व की प्रधानता है।
(d) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से मिश्रीत आकार बनता हो तो, आकाश तत्व की प्रधानता समझे। जिज्ञासु व्यक्ति अनुभवी जिज्ञासु “स्वरोदय विज्ञान” का अवश्य गहन अध्ययन करें। क्योंकि स्वर विज्ञान से न केवल रोगों से बचा जा सकता है, अपितु प्रकृति के अदृश्य रहस्यों का भी पता लगाया जा सकता है।
मानव देह में स्वर चिकित्सा ऐसी आश्चर्यजनक, सरल, स्वावलम्बी प्रभावशाली बिना किसी खर्च वाली चमत्कारी प्रणाली होती है, जिसका ज्ञान और सम्यक पालन होने पर किसी भी सांसारिक कार्यों में असफलता की प्रायः संभावना नहीं रहती। स्वर विज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति करने से साक्षात्कार ‘सफलता, भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वाभ्यास, सामने वाले व्यक्ति के अन्तरभावों को सहजता से समझा जा सकता है। जिससे प्रतिदिन उपस्थित होने वाली अप्रतिकूल परिस्थितियों से सहज बचा जा सकता है। अज्ञानवश स्वरोदय की जानकारी के अभाव से ही हम हमारी क्षमताओं से अनभिज्ञ होते हैं। रोगी बनते हैं तथा अपने कार्यों में असफल होते हैं। स्वरोदय विज्ञान प्रत्यक्ष फलदायक है, जिसको ठीक-ठीक लिपीबद्ध करना संभव नहीं।
फूल की सुन्दरता और महक उसकी किसी पंखुड़ी तक सीमित नहीं है। वह उसकी समूची सत्ता के साथ हुई है। आत्मिक प्रगति के लिए कोई योगाभ्यास विशेष करने से हो सकता है कि स्थूल शरीर या सूक्ष्म शरीर के कुछ क्षेत्र अधिक परिपुष्ट प्रतीत होने से और कई प्रकार की चमत्कारी सिद्धियां प्रदर्शित की जा सकें। आत्मा की महानता के लिए इतने भर से काम नहीं चलता। उसके के लिए जीवन के हर क्षेत्र को समर्थ, सुन्दर एवं सुविकसित होना चाहिए। दूध के कण-कण में घी समाया होता है। हाथ डालकर उसे किसी एक जगह से नहीं निकाला जा सकता। इसके लिए उस समूचे का मन्थन करना पड़ता है।
जीवन एकांगी नहीं है। उसके किसी अवयव विशेष को या प्रकृति विशेष करे उभारने से काम नहीं चल सकता है। आवश्यक है कि, अन्तरंग और बहिरंग जीवन के हर पक्ष में उत्कृष्टता का समावेश किया जाए। ईश्वर का निवास किसी एक स्थान पर नहीं है। वह सत्प्रवृत्तियों को समुच्चय समझा जाता है। ईश्वर की आराधना के लिए आवश्यक है। कि व्यक्तित्व के समग्र पक्ष को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाया जाय। स्वयं में सत्प्रवृत्तियों का समावेश कर उसके समकक्ष बनने का प्रयास किया जाए।
भारत की वह अनोखी धरती जिसका स्वयं सुर्य परिचय देता हों। जिसका बहता हुआ जल भी किसी कवि की प्रेरणा बनता हो, जहां उगता हर अन्न का कण ऊर्जा का रोम रोम में देश भक्ति का संचार कराता हो। भारत की भूमि शौर्य का परिचय देती है, तो विशाल हृदय का दर्शन कराती है। भारत को जानना हैं, तो भारत के आध्यात्म के ज्ञान को आत्मसात् करना होगा। तब जाकर आप भारत को समझ पाएंगे। भारत केवल देश नहीं अपितु जीवन जीने तरीका है, जो मानव निर्माण का कार्य करता है, योग का संदेश देकर समस्त संसार को मार्ग दिखाने का कार्य करता है। भारत जगद्गुरू है। भारत को गुरू की नजरिया से देखने का प्रयास तो करो! अपने जीवन की समस्या का सुलझते पाएंगे। भारत की वह दिव्य ज्ञान गाथा हमे बोध कराती है, अनंत की शक्ति का। वह भारत भूमि जिसकी धरा पर निरंतर ब्रम्ह अवतरण का प्राकट्य होता हो। भारत को समझना और गर्व करना किसी दिव्य अनुभूति से कम नहीं है। जहां की सत्ता राम की उपासक हो, वेद जहां पूजे जातें हो, गुरुकुलो की शिक्षा अपने आप में स्वयं का बोध कराती हो, यह स्वरुप भारत माता हो। आज़ादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य पर हमे भारत की पहचान उसे लौटानी है। दिव्य संकल्प गूंज रहा है, जहां की संस्कृती हमे बुला रही है।
हमारा देश भारत हजारों वर्षों से आध्यात्मिक जगदगुरु रहा है। चार धामों की अवधारणा भारत में ही है। नौ बार इस भूमि पर भगवान ने जन्म लिया हैं। सैकड़ों ऋषि-मुनियों ने क्यों वेद-पुराणों की रचना भारत की धरती पर की हैं। और हजारों साधु-संतों ने अपनी वाणी से इस देश की धरती को गुंजायमान किया। यह सबकुछ क्या मात्र एक संयोग है या फिर इनके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण हैं? यह एक विचारणीय विषय है।अध्ययन करने से पता चलता है कि यह कोई संयोग नहीं है, बल्कि इसके पीछे कई वैज्ञानिक कारण हैं। सबसे मुख्य कारण भारत की भौगोलिक स्थिति है। भारत पृथ्वी के उस विशिष्ट भू-भाग पर स्थित है जहाँ सूर्य और बृहस्पति ग्रह का विशेष प्रभाव पड़ता खगोल व ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य और बृहस्पति मनुष्य की आध्यात्मिकता के कारक माने जाते हैं। सूर्य व बृहस्पति से आनेवाली विशेष तरंगों का विकिरण भारत के भूभाग को गहन रूप से प्रभावित करता है। इस कारण भारत में आध्यात्मिकता का वातावरण बना रहता है। ऐसे में प्रेम, दया, सहिष्णुता यदि भारत की भूमि में कूट-कूटकर भरी है तो आश्चर्य कैसा?
विश्व अधिकतर देशों में तीन या चार ऋतुएँ होती हैं, पर भारत एक ऐसा देश है जहाँ छह ऋतुएँ-ग्रीष्म, वर्ण, शरद, शीत, वसंत व पतझड़ संभवतः इतनी ऋतुएँ अन्य किसी देश में नहीं होतीं। (पाकिस्तान, बंगलादेश भी कभी इसी भूभाग के अंग थे) ऋतुओं का सीधा संबंध सूर्य और पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति से होता है। यह तथ्य वैज्ञानिक भी मानते हैं। ऋतु परिवर्तन का प्रभाव मनुष्य के मन, मस्तिष्क व शरीर तीनों पर पड़ता है। ऋतु परिवर्तन के साथ प्रकृति अपनी लय बदलती है और हमारे ऋषि-मुनियों ने प्रकृति की परिवर्तित लय से कैसे अपने तन-मन की लय को जोड़कर रखना है, यह विज्ञान जान लिया था। वे जानते थे कि ऋतु बदलने के साथ मनुष्य के शरीर का रसायन भी बदल जाता है। इसलिए उन्होंने ऋतु परिवर्तन के साथ कई पर्व और त्योहार जोड़ दिए, जिनके दौरान मनुष्य उपवास रखकर अपने शरीर के रसायन पर नियंत्रण रखता था। यही नहीं, उपवास के बाद क्या खाना चाहिए, इसका भी उन्होंने प्रावधान किया। इन सबके पीछे वैज्ञानिक तथ्य यह था कि मनुष्य अपने शरीर की लय को प्रकृति की लय से जोड़कर रखे ध्यान देनेवाली बात है कि हिंदू पर्व और त्योहार प्रायः विशेष दिनों पूर्णिमा, अमावस्या या शुक्ल पक्ष के दौरान ही मनाए हैं।
हमारे ऋषि-मुनियों ने एकादशी के दिन उपवास रखने पर बहुत जोर दिया है। इसके पीछे एक बड़ा वैज्ञानिक कारण है। मनुष्य के शरीर में एक महीने के दौरान लगभग दो बार उसका रसायन प्रभावित होता है। दस दिन भोजन करने से जो पौष्टिक रस शरीर में बनता है, एकादशी के दिन मानव शरीर उसे अपने अलग-अलग अंगों को बाँटता है। शरीर उस रस को सुचारू रूप से बाँट सके, इसलिए एकादशी के दिन उपवास की मान्यता है शरीर का इतना बारीक अध्ययन अभी तक आधुनिक वैज्ञानिकों ने नहीं किया है, इसलिए वे उपवास के पीछे जो वैज्ञानिक गहराई है, उसे नहीं समझते और इस प्रकार की बातों को ‘व्यर्थ’ की संज्ञा दे देते हैं। उपवास की विधि केवल भारत में ही हैं।
प्राचीन काल में ऋतु-फल के सेवन पर सनातन पद्धति में बहुत बल दिया जाता था। इसके पीछे का विज्ञान यह था कि प्रकृति ऋतु परिवर्तन के समय जो फल देती है, उसमें पैदा होनेवाले फल व सब्जियों में विशेष प्रकार का रसायन होता है, जो वे सूर्य से लेते हैं, वह रसायन मनुष्य के शरीर और स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक एवं महत्व पूर्ण होता हैं।
ऋतु काल में यदि कोई मनुष्य पंद्रह दिन लगातार १०-१२ जामुन का सेवन करे तो उसके अग्न्याशय को शक्ति मिलती है और वह डायबिटीज का रोगी नहीं बनेगा। इसी प्रकार, ऋतुकाल में यदि कोई व्यक्ति दिन में पीपल के वृक्ष के ५ फल नित्य खाए तो उसकी स्मरण शक्ति तीव्र हो जाती हैं। ये सब बातें अंधविश्वास नहीं अपितु वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं। आयुर्वेद यह परीक्षण हजारों वर्ष पूर्व कर चुका था भारत!!
खेद की बात तो यह है कि आजकल तो ऋतु-फल का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है, क्योंकि कृत्रिम खाद व इंजेक्शनों द्वारा पूरे साल मौसम-बेमौसम की सब प्रकार की फल-सब्जियाँ उपलब्ध रहती हैं। पहले प्राकृतिक खाद का इस्तेमाल होता था और ऋतु व प्रकृति दोनों का स्वाभाविक प्रभाव फल-सब्जियों पर पड़ता था। इसलिए उनके सेवन से ही लाभ होता था। यह एक वैज्ञानिक सत्य है, कोई अंधविश्वास नहीं। यही कारण है कि फिर से आर्गेनिक फल-सब्जियाँ उगाई जाने लगी हैं, पर वे इतनी महंगी हैं कि आम आदमी की पहुँच से दूर हैं।
ऋतु परिवर्तन के समय मनुष्य के शरीर के रसायन बदलते हैं, साथ ही उसके शरीर में स्थित विशेष सूक्ष्म शरीर के चक्रों पर भी असर होता है। इसलिए ऋषि-मुनि उन दिनों उसी चक्र पर अधिक ध्यान देते थे जिस पर ऋतु विशेष का प्रभाव पड़ता था और वे इस प्रकार अपना आध्यात्मिक विकास करते थे। इस प्रकार भारत की छह ऋतुएँ हमारे आध्यात्मिक विकास में सहयोगी रही हैं। भारत को समझना हैं तो भारत को जीना होगा।
भारत की आध्यात्मिकता के पीछे एक और बड़ा कारण यह है कि यहाँ दो महत्त्वपूर्ण पर्वत श्रृंखलाएँ हैं- एक अरावली और दूसरी हिमालय यह एक अनुमोदित सत्य है कि अरावली विश्व की प्राचीनतम पर्वत श्रृंखला है और हिमालय विश्व की सबसे तरुण यह कोई मात्र संयोग नहीं है कि दुनिया की प्राचीनतम व तरुण दोनों श्रृंखलाएं भारत में ही हैं। इसके पीछे भी प्रकृति का अपना प्रयोजन है।
अरावली संसार १ की सबसे परिपक्व पर्वत श्रृंखला होने के कारण प्रकृति के ‘अग्नि-तत्त्व’ का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि ‘हिमालय’ प्रकृति के जल तत्त्व का द्योतक है। मनुष्य शरीर के लिए ये दोनों तत्त्व अति आवश्यक हैं। दोनों पर्वत शृंखलाओं ने भारत की संस्कृति को अपनाने में अपना विशेष योगदान दिया है। जिन लोगों ने अपने आध्यात्मिक विकास के लिए जल तत्व को प्रधानता दी, वे जीवन के रहस्यों की खोज में हिमालय की गोद में चले गए और वहाँ प्रकृति के रहस्यों को खोजा व जाना। जिन जिज्ञासुओं ने अग्नि तत्त्व को प्रधानता दी, ये अरावली के आँचल में चले गए और तपस्या की हिमालय के मनीषी ऋषि कहलाए और अरावली के मुनि पर दोनों ने ही जीवन के रहस्यों का विज्ञान खोजा और जाना।
अरावली और हिमालय के अतिरिक्त भारत की सप्त नदियों ने यहाँ के जनमानस को बड़ा प्रभावित किया है। इन सप्त नदियों में अलग-अलग देवताओं के तत्त्व प्रधान हैं, जैसे गंगा में शिव, गोदावरी में राम, यमुना में कृष्ण, सिंधु में हनुमान, सरस्वती में गणेश, कावेरी में दत्तात्रय और नर्मदा में माँ दुर्गा के तत्व विद्यमान हैं। सप्त नदियों में गंगा सबसे विशिष्ट है, जिसकी महत्ता विस्तार शिव की जटा कराती है। एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय इन नदियों में स्नान करना आध्यात्मिक दृष्टि से उत्तम माना गया है, क्योंकि उस समय सूर्य व चंद्रमा का पृथ्वी पर विशेष गुरुत्व आकर्षण होता है हिंदू मनीषियों ने उस समय विशेष मंत्रों का जाप भी बताया है।
भारत के कुछ पेड़-पौधों ने भी भारत की आध्यात्मिकता में बड़ा योगदान दिया है। तुलसी का पौधा भारत के घर आँगन का एक अभिन्न अंग रहा है। वैज्ञानिक भी अब इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि तुलसी एक बहुत हो संवेदनशील पौधा है। यदि तुलसी के आस-पास थोड़ी सी भी नकारात्मक या तीव्र गंध हो तो यह पौधा मुरझा जाता है। जिन घरों में तुलसी का पौधा नहीं लगता या पनपता या मुरझा जाता है तो समझ लीजिए कि उस घर का वातावरण दूषित है। इस दृष्टि से तुलसी का पौधा घर की आध्यात्मिकता का मापदंड भी है नीम का वृक्ष भी घर के आस-पास की नकारात्मकता को दूर करने में सहायक होता है। पीपल के वृक्ष की तो बात ही निराली है। यह वृक्ष भारतीय संस्कृति और इतिहास दोनों का अभिन्न अंग है। संभवतः इसीलिए भारत के सर्वोत्तम पुरस्कार ‘भारत रत्न’ को काँस्य से बने पीपल के पत्ते के रूप में प्रदान किया जाता है। यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि वातावरण की शुद्धि के लिए ऑक्सीजन बहुत आवश्यक है, पर शायद हममें से कई यह नहीं जानते कि पीपल एक ऐसा वृक्ष है जो चौबीसों घंटे प्राणदायी ऑक्सीजन छोड़ता है। संसार की समस्त वनस्पतियों की बात करें तो वृक्षों में पीपल और पौधों में केवल तुलसी ही ऐसे हैं जो रात-दिन ऑक्सीजन देते हैं। भारत के प्राचीन मनीषियों ने इसीलिए इन दोनों को चुनकर समाज का अंग बनाया यह चयन कोई संयोग नहीं था, अपितु वैज्ञानिक कारणों से उन्होंने ऐसा किया। यह बात अलग है कि आज हम इनके महत्त्व को किताबो में रखा है।कहते हैं, इन दोनों वनस्पतियों का आध्यात्मिक दृष्टि से भी काफी महत्त्व है। तुलसी के सतत उपयोग और पीपल के आस-पास रहने तथा उसके स्पर्श से मनुष्य के सात्त्विक गुणों का विकास होता है और शारीरिक व मानसिक क्षमता भी बढ़ती है। इस प्रकार भारत की आध्यात्मिकता के पीछे उसकी भौगोलिक विशिष्ट स्थिति, अरावली व हिमालय पर्वत शृंखलाओं सप्त नदियों, छह ऋतुओं तथा विशेष वनस्पतियों का बहुत बड़ा हाथ है। इन्हीं कारणों से भारत में आध्यात्मिकता सदा से बनी रही है। वर्तमान समय में भी अन्य देशों की अपेक्षा भारत में आध्यात्मिकता अधिक है। ऐसे में यदि अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान आदि से लोग शांति की खोज में भारत आ रहे है तो आश्चर्य कैसा? भारत की जनता निरंतर भारत माता की उपासक हैं, शक्ति नवरात्र का दर्शन भी भारत की शक्ति है। इस लिए भारत विश्वगुरु हैं। भारत माता का निरंतर गुनगान हो।
नमो नमो हे भारत माता।
नमो नमो हे भारत माता।
नमो नमो हे भारत माता।।
प्राची से उगता हुआ नारायण आदित्य भास्कर हो,
धरती का चुम्बन लेती हुई प्रकाशपुंज की लालिमा हो
भारत के भोर का प्रथम स्वर हो,
कण कण में ऊर्जा सा “राम राम राम ” हो।।
नमो नमो हे भारत माता।
नमो नमो …
अखंड भारत का प्रचंड संकल्प
शिव की जटाओं में समाया उत्तर भारत हो।
महाकाल को समर्पित दक्षिण भारत
वेद की ऋचाओं से अलंकृत मंत्र भारत माता हो।।
नमो नमो हे भारत माता।
नमो नमो…
मातृशक्ति उपासक नमो भारत,
लक्ष्मी अन्नपूर्णा नमो भारत।
काली दुर्गा स्वरूप नमो भारत,
शक्ति कुण्डलिनी आध्यात्म नमो भारत।।
नमो नमो हे भारत माता।
नमो नमो…
प्रताप सा शौर्य हो,संभाजी जैसा पुत्र हो,
प्रचंड आभा सा तिलक विट्ठल विट्ठल हो।
प्रणव से मंत्रमुद्ध हो, ऋषियों के तेज सा सूर्य हो
आव्हान तुम्हारा ओ भारत माता,
अभय हस्त मेरे शीश पर हो।
नमो नमो हे भारत माता।
नमो नमो…
मेरुदंड में प्राण प्रवाहित हो,
चेतनाशक्ति रूपी भारत माता ऊर्ध्वरेता हो।
साधना हो अखंडित बीज मंत्रों से अनुष्ठान हो,
ओ भारत माता आपसे ही पूर्ण आपमें पूर्णाहुति हो।।
नमो नमो हे भारत माता ।
नमो नमो…
यज्ञकुंड जैसा समर्पित जीवन हो,
प्राणों की मंत्रयुक्त आहुति हो।
अग्नि सा तेज समाया,
ओ भारत माता तुम्हारी साधना हो।
नमतैस्ये नमतैस्ये भारत माता हो ,
नमतैस्ये नमतैस्ये भारत माता हो।।
यही दिव्य भाव भारत माता को समर्पित हो।
हमारा एक पल कुछ ही देर में मिनटों का स्वरूप ले लेता है। मिनटों से घंटो का, वही घंटे दिन और रात में परिवर्तित हो जाते है। दिन और रातों का यह समय साल बनकर उभर कर आता हैं। कुछ साल बीतते है, वह आयुष्य का रूप साकार करने लगते हैं। मानव का आयुष्य काल चक्र में बंधा हुआ है। कल यही नियम परिवर्तन है।मानव जाति विनाश की ओर अग्रसर हो रही है। मानव जीवन एक व्यस्त रोगी सा प्रतित होता नजर आता है। यह विश्व की सुन्दर रचना सर्व शक्तिमान प्रभु ने की हैं। वही हमारा निर्माता है तो विनाश कर्ता भी वही है। हमे समझना है, मानव का अस्तित्व क्या है? मनुष्य जन्म का प्रयोजन क्या है?
किसी वस्तु के संबंध में विचार करने के लिए यह आवश्यक है। कि उसकी कोई मूर्ति हमारे मनःक्षेत्र में हो। बिना कोई प्रतिमूर्ति बनाये मन के लिए किसी भी विषय में सोचना असम्भव है। मन की प्रक्रिया ही यही है कि पहले वह किसी वस्तु का आकार निर्धारित कर लेता है, तब उसके बारे में कल्पना शक्ति काम करती है। समुद्र भले ही किसी ने न देखा हो, पर जब समुद्र के बारे में कुछ सोच-विचार किया जाएगा, तब एक बड़े जलाशय की प्रतिमूर्ति मनःक्षेत्र में अवश्य रहेगी। भाषा-विज्ञान का यही आधार है। प्रत्येक शब्द के पीछे आकृति रहती है। ‘कुत्ता’ शब्द जानना तभी सार्थक है, जब ‘कुत्ता’ शब्द उच्चारण करते ही एक प्राणी विशेष की आकृति सामने आ जाए। न जानी हुई विदेशी भाषा को हमारे सामने कोई बोले तो उसके शब्द कान में पड़ते हैं, पर वे शब्द चिड़ियों के चहचहाने की तरह निरर्थक जान पड़ते हैं। कोई भाव मन में उदय नहीं होता कारण यह है कि शब्द के पीछे रहने वाली आकृति का हमें पता नहीं होता। जब तक आकृति सामने न आए, तब तक मन के लिए असम्भव है कि उस संबंध में कोई सोच विचार करे।
ईश्वर या ईश्वरीय शक्तियों के बारे में भी यही बात है। चाहे उन्हें सूक्ष्म माना जाए या स्थूल, निराकार माना जाए या साकार, इन दार्शनिक और वैज्ञानिक मामलो में पड़ने से मन को कोई प्रयोजन नहीं। उससे यदि इस दिशा में कोई सोच-विचार का काम लेना है, तो कोई आकृति बनाकर उसके सामने उपस्थित करनी पड़ेगी। अन्यथा वह ईश्वर या उसकी शक्ति के बारे में कुछ भी न सोच सकेगा। जो लोग ईश्वर को निराकार मानते हैं, वे भी ‘निराकार’ का कोई न कोई आकार बनाते हैं। आकाश जैसा निराकार, प्रकाश जैसे तेजोमय, अग्नि जैसा व्यापक, परमाणुओं जैसा अदृश्य। आखिर कोई न कोई आकार उस निराकार का भी स्थापित | करना ही होगा। जब तक आकार की स्थापना न होगी, मन, बुद्धि और चित्त से उसका कुछ भी संबंध स्थापित न हो सकेगा।
इस सत्य को ध्यान में रखते हुए निराकार, अचिन्त्य बुद्धि से अलभ्य, वाणी से अतीत, परमात्मा का मन से संबंध स्थापित करने के लिए भारतीय आचार्यों ने ईश्वर की आकृतियाँ स्थापित की हैं। इष्टदेवों के ध्यान की सुन्दर दिव्य प्रतिमाएँ गढ़ी हैं। उनके साथ दिव्य वाहन, दिव्य गुण, स्वभाव एवं शक्तियों का संबंध किया है। ऐसी आकृतियों का भक्तिपूर्वक ध्यान करने से साधक उनके साथ एकीभूत होता है, दूध और पानी की तरह साध्य और साधक का मिलन होता है। भृङ्गी, झींगुर को पकड़ कर ले जाती है और उसके सामने भिनभिनाती है, झींगुर उस गुंजन को सुनता है और उसमें इतना तन्मय हो जाता है कि उसकी आकृति बदल जाती है और झींगुर भृङ्गी बन जाता है। दिव्य कर्म स्वभाव वाली देवाकृति का ध्यान करते रहने से साधक में भी उन्हीं दिव्य शक्तियों का आविर्भाव होता है। जैसे रेडियो यन्त्र को माध्यम बनाकर सूक्ष्म आकाश में उड़ती फिरने वाली विविध ध्वनियों को सुना जा सकता है, उसी प्रकार ध्यान में देवमूर्ति की कल्पना करना आध्यात्मिक_रेडियो स्थापित करना है, जिसके माध्यम से सूक्ष्म जगत् में विचरण करने वाली विविध ईश्वर शक्तियों को साधक पकड़ सकता है। इसी सिद्धान्त के अनुसार अनेक इष्टदेवों की अनेक आकृतियाँ, साधकों को ध्यान करने के लिए बताई गई हैं। जहाँ अन्य प्रयोजनों के लिए अन्य देवाकृतियाँ हैं वहाँ इस विश्व ब्रह्माण्ड को ईश्वरमय देखने के लिए ‘विराटरूप’ परमेश्वर की प्रतिमूर्ति विनिर्मित की गई है। मनुष्य की सारी आत्मोन्नति और सुख-शान्ति इस बात पर निर्भर है कि उसका आन्तरिक और बाह्य जीवन पवित्र एवं निष्पाप हो, समस्त प्रकार के क्लेश, दुःख, अभाव एवं विक्षोभों के कारण मनुष्य के शारीरिक और मानसिक पाप हैं। यदि वह इन पापों से बचता जाता है तो फिर और कोई कारण ऐसा नहीं जो उसकी ईश्वर प्रदत्त अनन्त सुख-शान्ति में बाधा डाल सके। पापों से बचने के लिए ईश्वरीय भय की आवश्यकता होती है। ईश्वर सर्वत्र व्यापक है इस बात को जानते तो सब हैं, पर अनुभव बहुत कम लोग करते हैं। जो मनुष्य यह अनुभव करेगा कि, ईश्वर मेरे चारों ओर छाया है और वह पाप का दण्ड अवश्य देता है। जिसके यह भावना अनुभव में आने लगेगी, वह पाप न कर सकेगा। जिस चोर के चारों ओर सहस्र पुलिस घेरा डाले खड़ी हो और हर तरफ से उस पर आँखें गड़ी हुई हों, वह ऐसी दशा में भला किस प्रकार चोरी करने का साहस करेगा ?
परमात्मा की आकृति चराचरमय ब्रह्माण्ड में देखना ऐसी साधना है, जिसके द्वारा परमात्मा के अनुभव करने की चेतना जागृत हो जाती है। यही विश्वमानव की पूजा है, इसे ही विराट् दर्शन कहते हैं। रामायण में भगवान् राम ने अपने जन्म-काल में कौशल्या को विराट् रूप दिखलाया था। उत्तराखण्ड में काकभुशुण्ड जी के संबंध में वर्णन है कि वे भगवान् के मुख में चले गये तो वहाँ सारे ब्रह्माण को देखा। भगवान कृष्ण ने भी इसी प्रकार कई बार विराट् रूप दिखाये। मिट्टी खाने के अपराध से मुँह खुलवाते समय यशोदा को विराट् रूप दिखाया, महाभारत के उद्योग पर्व में दुर्योधन ने भी ऐसा ही रूप देखा। अर्जुन को भगवान् ने युद्ध के समय विराट्रूप दिखाया, जिसका गीता के ११ वें अध्याय में सविस्तार वर्णन किया गया है।
इस विरारूप को देखना हर किसी के लिए सम्भव है। अखिल (विश्व ब्रह्माण्ड में परमात्मा की विशालकाय मूर्ति देखना और उसके अन्तर्गत उसके अङ्ग-प्रत्यङ्गों के रूप में समस्त पदार्थों को देखने, प्रत्येक स्थान को ईश्वर से ओत-प्रोत देखने की भावना करने से भगवद् बुद्धि जागृत होती है। और सर्वत्र प्रभु की सत्ता से व्याप्त होने का सुदृढ़ विश्वास होने से मनुष्य पाप से छूट जाता है। फिर उससे पाप कर्म नहीं बन सकते। निष्पाप होना इतना बड़ा लाभ है कि उसके फलस्वरूप सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा मिल जाता है। अन्धकार के अभाव का नाम है प्रकाश और दुःख के अभाव का नाम है- आनन्द । विराट् दर्शन के फलस्वरूप निष्पाप हुआ व्यक्ति सदा अक्षय आनन्द का उपभोग करता है।
मनुष्य वह है, जो सर्व शक्तिमान परमपिता परमात्मा के तेज और वैभव का सर्वोच्च प्रतीक है। परम पिता परमात्मा ने अपना सभी कौशल्य शक्ति को एक जगह क्रेंद्रित कर के इस बड़े ब्रम्हांड की रचना की हैं। ईश्वर हमारे लिए ही है, और यह रचना हम सभी के लिए है। वही मनुष्य आज आत्महत्या का आश्रय लेता प्रतीत होता है। नकारात्मकता मनुष्य को निरूत्तसाह बना रही है। यही विनाश का कारण है। यही विचार संस्कृति का अपहरण कर रहा हैं। शिव रूप साकार इस सृष्टि को नष्ट करने का कुचलने का प्रयास मानव द्वारा हो रहा हैं। इस समय निर्माण कर्ता परमात्मा कैसे शांत रहे? इस समय भगवान श्रीकृष्ण की वो, “यदा यदा हि धर्मस्य” प्रतिज्ञा की पुनः वृत्ति तो होकर रहेगी। कालचक्र अपने परिवर्तन में मग्न है, परिवर्तन ही अखंड है। परिवर्तन ही नियम हैं। भगवान सही समय पर युग अवतरण की बेला को जाग्रत करते रहते हैं। जिस समय परेशानी के बादल मंडराते रहते है, उस समय भगवंत किसी ना किसी रूप में हमारी मदद करने के लिए आते है, और अवतार धारण करते है। यह संतुलन संभालने के सुक्ष्म सृष्टि में दिव्य चेतना का निर्माण होना संभव होता है। सृष्टि निर्माण के आदि काल में केवल पानी ही था। इसका उल्लेख कुछ ग्रंथो ,पुराणों में मिलता है। उस समय मत्स्यावतार का अवतरण हुआ था। उसके बाद अनेकों अवतारो की श्रृंखला का अवतरण इस धरा पर निरन्तर चलता आ रहा हैं। जब जब इस धरा पर हलचल बढ़ती हैं, तो उस उग्ररूप धरि भगवान नृसिंह को कैसे भुल सकते है? उनका पराक्रम अपने ही चरम स्थान पर मंडराता हुआ प्रतित होता हैं। उस समय संस्कृती की आदिम अवस्था को ध्यान में रखते हुए मानव और सिंह का जो समन्वय रूप नृसिंह अवतार हुआ था। दृष्टता को कुचलने के लिए यह अवतार धारण हुआ हैं। जब पशुसुलभ प्रवृत्ति बढ़ती है,और स्वार्थ की भावना बढ़ती हैं,अंहकार का नाश करने के लिए दान शुरो को प्रवृत्त करने के लिए वामन अवतार का आगमन इस धरती पर हुआ। भगवान परशुराम ,मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम प्रभु, श्रींकृष्ण, बुद्ध इन महापुरुषों के अवतार इसी क्रम में हुए हैं। इन भगवतीय सत्ता का पुनः अवतरण अत्याचार का समूल नाश करने के लिए हुआ था,और यही उद्देश रहा होगा। भगवान् परशुराम ने सामंतवादी राजेशाही को घुटने टेकने पर मजबूर किया तो , प्रभू श्रीरामचंद्र जी ने मर्यादा का पालन करते हुए अनीति का विरोध किया। धर्मतत्व में अनेक विकृति को देखते हुए भगवान बुद्ध ने धर्म व्यवस्था को महत्व देकर ” धम्म शरणम् गच्छामि” का अहसास समस्त मानव जाति को करवाया।
इन सभी अवतारों का प्रयोजन एक ही है, दृष्टो का सर्वनाश और धर्म की स्थापना।आज की स्थिति कुछ भिन्न दिखाई पड़ती है। यह काल दृष्ट असुरो का नही है। यह काल भ्रष्ट लोगों का दिखाई पड़ता है। इस लिए शस्त्र युक्त भगवान् की अवतरण का समय नहीं अपितु दृष्टो के नाश के लिए युगचण्डी का साक्षात्कार होना अनिवार्य है। विकारों को जीतकर भावना में अंश मात्र रहे हुए भ्रष्ट वृत्ति का नाश करना महत्व पूर्ण है। यह जटिल कार्य संपन्न करने के लिए भगवती आद्यशक्ति को अवतरित होना होगा। यह समय युगपरिवर्तन के रणांगन में जो “धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे” इस विशाल भूभाग पर है, उसी का दूसरा नाम है “जनमानस”। इसी क्षेत्र में परिष्कार, परिवर्तन, शुद्धिकरण की आवश्यकता होगी। यह क्षेत्र सेनापति का होगा। सेनापति का ध्येय होगा, जनमानस ,समष्टि मन अंत कारण की शुद्धता और विकास। आज की समस्या का समाधान बाहरी खोज के ऊपर नहीं हो सकता है। वैचारिक और भावनीक प्रवाह को बदलकर उनको सही दिशा देना ही यही विकल्प सही होगा। तभी विचारो की उच्च श्रृंखला ओ का नया परिवर्तन संभव होगा। बुद्धि में सदबुद्धि का विकास बीज अंकुर लेगा यही आध्यात्म का जीवन लक्ष्य हैं। आध्यात्म विकास में मुख्य तत्व जो कार्य करता है, वो है “गायत्री”। गायत्री मंत्र दिव्य शक्तियों से ओतप्रोत हैं। गायत्री मंत्र के चौबीस रूप चौबीस अक्षरों में मिले हुए हैं। आध्यात्म का वह प्राण उदगम मेरुदंड हैं। यज्ञोंपवित भी गायत्री हैं। “ब्रम्हविद्या” तत्वज्ञान और ब्रम्हवर्चस के तपविधान का उगम केंद्र है गायत्री।
इस महाशक्ति का उदगम विश्व पटल पर भारत भूमि है सामान्यत इसी क्षेत्र पर उसका सर्वाधिक प्रभाव देखा गया हैं।अन्य क्षेत्र पर उसका प्रभाव कम अधिक प्रमाण में देखा जाता है। आध्यात्म के अधिक प्रभाव उसके उच्च भाव में देखा जाता है। परमाणु कितना भी सुक्ष्म रहता है, पर उसकी भीतर रहने वाली शक्ति की गति उससे भिन्न होती हैं। गायत्री मंत्र भी परमाणु की तरह ही हैं।गायत्री मंत्र केवल 24 अक्षरों का प्रतित होता हुए भी,उस मंत्र का अतुल्य सामर्थ्य उसके भीतर मौजूद है।
इस मंत्र के दो पक्ष है।
1. ज्ञान
2. विज्ञान
ब्राम्ही चेतना इसी दो रूपों में प्रकट हुई हैं। ज्ञान पक्ष उच्च कोटि का तत्त्वज्ञान, ब्रह्मविद्या, ॠतंभरा प्रज्ञा के नामों से प्रसिद्ध है। मानव की ईच्छा ,आकांक्षा, श्रद्धा भावना इनको उत्कृष्ट गति देने के लिए ज्ञान पक्ष का उपयोग होता है। मानवी IQ का विकास भी इसी आधार पर होता है। गायत्री के दूसरे विज्ञान पक्ष उपासना और साधना की अनेकों विधियो से भरा हुआ है। ऐरोस्पेस में मानवी सत्ता की महान संभावना प्रसूप्त स्थिति में हैं। जिनको एक तरीके से “टू कॉपी” कहना पड़ेगा। इसी प्रसुप्त सामर्थ्य को जाग्रत कर अनेक चमत्कार करना संभव हैं। मनुष्य सामान्यता 5 फिट, 6 फिट और 50 kg और 60 kg के आसपास खतापिता रहता प्रतित होता हैं और जीवन जीता हैं। पर उसकी चेतना, उसकी मूलसत्ता उसके अंतः करण में गुप्त तरीके से निवास करती है। उस चेतना के विकास के लिए जिस तरीके का वातावरण ,संस्कार रहते है, उसी स्वरूप में चेतना धारण करती है। व्यक्ति की गति और अधोगति उसके अंतः करण की चेतना पर आधारभूत होते है। चेतना विकास के लिए केवल भौतिक वस्तुओं से उसका विकास संभव नहीं है।चेतना विकास के लिए सचेतन उपचार ही सफल है। इसे “आध्यात्म विज्ञान” कहते है। उपासना का अर्थ है, मनुष्य की महानता इंद्रिय नियंत्रण अर्थात प्रत्याहार में हैं। तभी उपासना फलद्रूप और परिपक्व होती है। यही शक्ति अवतरण की कल्याणी वेला त्रिपदा नाम से तीन धाराओं के स्वरूप में प्रवाहित होगी। जो महास्वरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली के रूप में उदय होगी। तिन्ही शक्तियों की उपस्थिति में मंत्ररूप में अंतः करण का विकास और आध्यात्म नवस्फूरण का अंकुर उगेगा। आज विकृति अपने चरम स्थान पर मंडराती हुई है। अनास्था, अश्रद्धा को खत्म करने के लिए चेतना विकास और जनमानस परिष्कार यही उत्तम उपाय है। यही उज्ज्वल भविष्य का केंद्र है। यही ब्राम्ही चेतना का अवतरण श्रद्धा और सद्भावना की प्रतिस्थपना के रूप में दिखाई पड़ रही है। यही कोलाहल ब्रम्ह अवतरण का सही समय है। यही युगशक्ति प्रथम ब्रम्ह रूप में अवतरित हुई हैं। यह ब्रम्ह शक्ति आगे भावना के स्तर पर विभाजित हुई जिसे सात ऋषियों के नामों से पहचाना जाता हैं। वही सप्तश्री सृष्टि के परम वैदिक वैज्ञानिक के रूप में सिद्ध हुए। प्रस्तुत गायत्री मंत्र में विनियोग उदघोष गायत्री छंद, सविता देवता और विश्वामित्र ऋषि का उल्लेख मिलता है। यह युग अवतरण की श्रृंखला अपितु भिन्न दिखाई पड़ती है, परंतु अलंकारिक दृष्टि से यही मुख्य संदर्भ है। अध्यात्म और विज्ञान के विग्रह जिस सर्वनाशी संभावना का सूत्र पात किया है। उसकी प्रथम झाँकी आस्था संकट के रूप में सामने है। आदर्शवादी मूल्यों के गिर जाने से मनुष्य विलासी, स्वार्थी ही नहीं अपराधी बनता और गरिमा को निरन्तर खोता चला जा रहा है। उसके पतन-पराभव तो हुआ ही है, समूचे समाज को समस्याओं, विपत्तियों और बिभीषिकाओं का सामना करना पड़ रहा है। अभी पानी गुनगुना भर हुआ है, अगले दिनों जब वह उबलेगा, भाप बनेगा और बन्द बर्तन को फाड़ कर विस्फोटक रौद्र रूप का परिचय देगा तो दिल दहलाने वाली आशंकायें सामने आ खड़ी होंगी। आवश्यकता है कि समय रहते समाधान सोचा जाय और विपन्न वर्तमान के भयानक भविष्य का रूप धारण करने से पूर्व ही स्थिति को संभाल लिया जाय ।
अध्यात्म की अपनी शाश्वत सत्ता है किन्तु विज्ञान ने भी अपनी सामयिक प्रौढ़ता उत्पन्न कर ली है। दोनों लड़ेंगे तो सुन्द-उपसुन्द दैत्य बन्धुओं की तरह एक दूसरे का विनाश करके अन्ततः ऐसी रिक्तता उत्पन्न करेंगे जिसे फिर से भर सकना असम्भव नहीं तो अत्यधिक कठिन अवश्य होगा। विग्रह को सहयोग में बदल देना है, तो कठिन काम, पर उसे किसी न किसी प्रकार करना ही होगा। इसके अतिरिक्त महामरण ही एकमात्र विकल्प है। अस्तु उसे किया ही जाना चाहिए, करना ही चाहिए। देव और दैत्य मिलकर समुद्र मन्थन करने में तत्पर हुए और चौदह बहुमूल्य रत्न उपलब्ध करने के अधिकारी बने। उसी उपाख्यान की पुनरावृत्ति के रूप में अध्यात्म और विज्ञान को परस्पर सहयोग करने और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनायें साकार करने पर सहमत किया जा सकता है।
मानव जीवन में समय का अलग ही महत्व है। समय किसी के भी वश में नहीं है। समय का चक्र निरंतर चलता रहता है। समय के साथ जीवन को जीना ही सफल माना जाता है। भारत के प्राचीन वैदिक काल की संस्कृती अपने चरम पर ज्ञान का प्रवाह करती प्रतित होती है। जिस संस्कृती ने समय को ही साधना अभिन्न अंग मानकर संध्या का दर्जा दिया हुआ है। समय का सद्पुयोग कैसे किया जाता है ? यह संस्कृति समस्त मानव जाति को परिचय देती है।
सायंकाल की संध्या और प्रातःकाल की संध्या में क्या करें? क्या करना चाहिए, क्या विचार करना चाहिए? आपको इन दोनों समयों में आत्मबोध और तत्त्वबोध की साधना करनी चाहिए। प्रातः काल जब आप उठा करें, तो एक नए जीवन का अनुभव किया करें। यह अनुभव किया कीजिए कि रात को सोने का अर्थ है-‘पिछले जन्म की समाप्ति और उस दिन की मौत’। सवेरे उठने का अर्थ है ‘नया जन्म’। ‘जब आँख खुली तब नया जन्म’ आप यह अनुभव कर लिया करें, तो मजा आ जाए। आप हर दिन सवेरे यह अनुभव किया कीजिए कि हमारा नया जन्म हो गया। अब नए जन्म में क्या करना चाहिए? आपकी सारी बुद्धिमानी इस बात पर टिकीहुई है कि आपने अपनी जीवन-संपदा का किस तरीके से उपयोग किया? यह मानना सही नहीं है कि ,यह जन्म केवल सोशल मीडिया के लिए मिला हुआ है। नहीं! यह जीवन फ्री में नहीं मिला हुआ है, इसलिए मिला हुआ है कि आप इस जीवन की संपदा को ठीक तरीके से इस्तेमाल करें। यह आपकी परीक्षा है। परीक्षा में जो पास हो जाते हैं, अगली कक्षा में उनके नाम चढ़ा दिए जाते हैं। फिर पास हो जाते हैं, तो और अगली क्लास में प्रवेश दिए जाते हैं।
यह जो पहली परीक्षा भगवान ने आपको मनुष्य का जीवन देकर ली है, उसमें आपका एक ही फर्ज हो जाता है कि आप इसका अच्छे से अच्छा उपयोग करके दिखाएँ। बस भगवान ने यही अपेक्षा की है आप से, यही उम्मीद है और यही वह चाहता है। आप लोग विश्वास रखें, इससे भगवान कभी प्रसन्न नहीं हो सकता।
इससे आपको जीवन-संशोधन करने में कार्य-निवारण करने में तो सहायता मिल सकती है, लेकिन जहाँ तक भगवान की प्रसन्नता का ताल्लुक है, वहाँ सिर्फ एक बात है कि आपको जो बहुमूल्य मनुष्य का जीवन दिया गया था, उस जीवन का आपने किस तरीके से और कहाँ उपयोग किया? बस यही एक प्रश्न है, दूसरा कोई प्रश्न नहीं है। जब आपको यह दिया गया है, तो विश्वास रखें कि भगवान ने अपनी बहुमूल्य संपत्ति आपके हाथ कर दी। इससे बड़ी संपत्ति भगवान के खजाने में और कोई नहीं है। मनुष्य के जीवन से बढ़कर और क्या हो सकता है ? आप दूसरे प्राणियों पर नजर डालिए । किसी के भी खाने का ठिकाना नहीं है, कोई कहीं है, तो कोई कहीं है, न बोल सकता है, न लिख सकता है। किंतु आपको सारी सुविधाओं से भरा हुआ जीवन इसलिए दिया गया है कि आप उसका अच्छे से अच्छा उपयोग करके दिखाएँ। क्या अच्छा उपयोग हो सकता है जीवन का ? इसके दो ही अच्छे उपयोग हैं, एक आप स्वयं को ऐसा बनाएँ, जिसको कि आदमी कहा जा सकता है। दूसरों के सामने आपका उदाहरण इस तरीके से पेश होना चाहिए कि जिसको देख करके दूसरे आदमियों को प्रकाश मिले, रोशनी मिले या पीछे चलने का मौका मिले और आपकी अंतरात्मा का कायाकल्प करती हुई साफ और स्वच्छ बनती चली जाए। यह आपका स्वार्थ है। और परमार्थ ? परमार्थ यह है कि भगवान की इस विश्ववाटिका में, जिसमें आपको काम करने के लिए भेजा गया है, उसमें आप एक अच्छे तरीके से काम करें। भगवान को साथियों की जरूरत है, इंजीनियरों की जरूरत है, ताकि उनके इतने बड़े बगीचे, इतने बड़े कारखाने की सुव्यवस्था करने में वे हाथ बँटा सकें। आपको हाथ बँटाने के लिए पैदा किया गया है, खुशामदें करने के लिए नहीं, नाक रगड़ने के नहीं, चापलूसी करने के लिए नहीं,मिठाई, उपहार भेंट करने के लिए नहीं पैदा किया गया। आपको सिर्फ इसलिए पैदा किया गया है कि बेहतरीन जिंदगी जिएँ और भगवान के काम में हाथ बंटाएँ।
आमतौर से आदमी काम की बातें भूल जाते हैं और बेकार को बातें, सब याद रखते हैं। आपको सवेरे उठते ही प्रातःकाल बेड पर पड़े-पड़े यह ध्यान करना चाहिए कि आज हमारा नया जन्म हुआ है और हमको इतनी बड़ी कीमत मिली, संपत्ति मिली कि जिसकी तुलना में और किसी प्राणी को कोई चीज नहीं मिली। आप अपने आप को सौभाग्यवान महसूस कीजिए, भाग्यशाली अनुभव कीजिए। यह अनुभव कीजिए कि हमारे बराबर भाग्यशाली कोई नहीं। अभावों की बात, चिंता की बात, कठिनाइयों की बात आप सोचते रहते हैं, लेकिन यह क्यों नहीं सोचते कि आप कितने शक्तिशाली हैं कि इतना बड़ा जीवन आपको भगवान ने दिया। आप अपने भाग्य को सराहें और सराहना के साथ-साथ एक और बात ध्यान में रखें। आप एक ऐसी ‘स्कीम’ बनाएँ, ‘योजना’ बनाएँ, जिससे इस जीवन का अच्छे से अच्छा उपयोग करना संभव हो सके।
जीवन सँवारने के सूत्र
यह प्रयोग एक दिन के जीवन से करना चाहिए। जिस दिन आप सोकर उठें, उसी दिन आप यह याद रखिए कि बस हमारे लिए एक ही दिन जिंदगी का है और इस आज के दिन को अच्छे से अच्छा बनाकर दिखाएँ। बस, इतने क्रम को दैनिक जीवन में सम्मिलित कर लें, तो इसे रोज-रोज अपनाते हुए आप अपनी सारी जिंदगी को अच्छा बना सकते हैं। एक-एक दिन को हिसाब से जोड़ देने का मतलब होता है, सारे समय और सारी जिंदगी को ठीक तरह सुव्यवस्थित बना देना। आप प्रातः काल उठा कीजिए और यह ध्यान किया कीजिए कि हर दिन नया जन्म और हर दिन नई मौत’ को आप प्रातः काल से सायंकाल तक कैसे प्रयोग करेंगे? इसके लिए सुबह से ही उठकर टाइमटेबिल बना लेना चाहिए कि आज आप क्या करेंगे, कैसे करेंगे और क्यों करेंगे ? क्रिया के साथ में आप चिंतन को जोड़ दीजिए। चिंतन और क्रिया को जोड़ देते हैं, तो दोनों से एक समग्र स्वरूप बन जाता है। आप शरीर से काम करते रहें, मगर कोई उद्देश्य न हो अथवा अगर आप उद्देश्य ऊँचे रखें, लेकिन उसे क्रियान्वित करने का कोई मौका न हो, तो दोनों ही बातें बेकार हो जाएँगी।
इसलिए, सवेरे उठते ही जहाँ आप अपने मनुष्य जीवन पर गौरव का अनुभव करें, वहाँ एक बात और साथ-साथ में चालू कर दें, सुबह प्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक का एक ऐसा टाइमटेबिल बनाएँ जिसकी कि सिद्धांतवादी कहा जा सके, आदर्शवादी कहा जा सके। इसमें भगवान की हिस्सेदारी रखिए। शरीर के लिए भी गुजारे का समय निकालिए, भगवान के लिए भी गुजारे का समय निकालिए। आपके जीवन में भगवान भी तो हिस्सेदार है, उसके लिए भी तो कुछ करना है। आपका शरीर ही सब कुछ थोड़े ही है, आत्मा भी तो कुछ है। आत्मा के लिए भी तो कुछ किया जाना चाहिए। सब कुछ शरीर को ही खिलाने पिलाने के लिए करेंगे क्या ? ऐसा क्यों करेंगे ? आत्मा का कोई औचित्य नहीं है क्या? आत्मा की कोई इज्जत नहीं है क्या? आत्मा का कोई मूल्य नहीं है क्या? आत्मा से आपका कोई संबंध नहीं है क्या ? अगर है तो फिर आपको ऐसा करना पड़ेगा कि साथ-साथ दिनचर्या में आदर्शवादी सिद्धांतों को मिलाकर रखना पड़ेगा।
अपनी दिनचर्या ऐसी बनाइए जिसमें आपके पेट भरने की भी गुंजाइश हो और अपने कुटुंब के, परिवार के लोगों के लिए भी गुंजाइश हो। लेकिन साथ-साथ में एक और गुंजाइश होनी चाहिए कि अपनी आत्मा को संतोष देने के लिए और परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए कार्यों का और विचारों का भी समावेश हो। आप स्वाध्याय का दैनिक जीवन में स्थान रखिए। आप सेवा का दैनिक जीवन में स्थान रखिए, आप उपासना का दैनिक जीवन में स्थान रखिए। इन सब बातों का समन्वित जीवन का अभ्यास कर लें, तो वह प्रातः काल वाला संध्यावंदन पूरा हो
जाएगा। जीवन की अनुभूति, जीवन की महत्ता की अनुभूति के साथ-साथ में सोते समय तक की सारी कार्यविधि का निर्धारण अगर आप कर लेते हैं, तो फिर आपकी उन-उन खुराफातों से बचत हो जाएगी, जो कि आप व्यवस्थित जीवन के अभाव में करते रहते हैं। जो आदमी व्यस्त है, वह एक निर्धारित लक्ष्य में लगा रहता है। जो आदमी खाली है अर्थात जो शरीर से खाली होगा, तो उसका दिमाग भी खाली होगा और दिमाग का खाली होना शैतान की दुकान है। इसलिए अपना दिमाग शैतान की दुकान न होने पाए और आपका शरीर खाली रहने की वजह से दुष्प्रवृत्तियों में न लगने पाए, इसके लिए बहुत अधिक आवश्यक है कि आप व्यस्तता से भरा हुआ टाइमटेबिल और कार्यक्रम बना लें और उस पर चलें। न केवल टाइमटेबिल बना लें, वरन यह भी हर समय ध्यान रखें कि जो सवेरे कार्यपद्धति बनाई गई थी, वह ठीक तरीके से प्रयोग होती भी है कि नहीं।
आप अपने टाइमटेबिल में विश्राम का समय भी नियत रखें। यह कोई नहीं कहता कि विश्राम मत रखिए, लेकिन विश्राम भी एक समय से होना चाहिए, टाइम से होना चाहिए और एक विधि से होना चाहिए। चाहे जरा सा काम किया और फिर विश्राम, जरा सा काम और फिर विश्राम, ऐसे कोई काम होते हैं क्या ? काम करने की शैली ही कर्मयोग है। कर्मयोग को अगर आप ज्ञानयोग में मिला दें, संध्यावंदन में मिला दें, तो मजा आ जाए, सारी की सारी दिनचर्या को आप भगवान का कार्य मानकर चलें, तो फिर समझिए आपकी प्रातःकाल की संध्या पूर्ण हो गई। इसके बाद अब सायंकाल की संध्यावंदन का नंबर आ गया। आप सायंकाल की संध्या उस समय किया कीजिए, जब आप सोया करें। जब भी सोएँ नौ बजे, ग्यारह बजे, बारह बजे, सोना तो आखिर है ही आपको। जब सोएँगे, तो यह बात भी सही है कि आप नींद की गोद में अकेले ही जाएँगे। ठीक है, बच्चे बगल में सोते हों तो क्या और कोई सोता हो तो क्या, परंतु नींद तो आपको अकेले ही को आएगी न दो को तो एक साथ नहीं आ सकती? आप सुबह उठेंगे, तो अकेले उठेंगे न, दो तो एक साथ नहीं उठ सकते? यह आपका एकांत जीवन है। सायंकाल को सोते समय आप उस एकांत जीवन में ऐसे विचार किया कीजिए कि हमारे जीवन का अब समाप्ति का समय आ गया है, अंत आ गया। अंत को लोग भूल जाते हैं। आदि को भूल जाते हैं बस मध्य में ही उलझे रहते हैं।
यदि आपको मनुष्य जन्म का सौभाग्य मिला हुआ हैं, और उसको ठीक तरीके से उपयोग करने का निर्धारण और अंत ? अंत वह है जिसमें भगवान के दरवाजे पर जाना ही पड़ेगा, भगवान की कोर्ट में पेश होना ही पड़ेगा, इससे कोई बचत नहीं हो सकती। आपको भी दूसरों की तरह मरना ही पड़ेगा और मरना भी चाहिए। यह नहीं हो सकता कि आपके मरने का कोई दिन न आए, जरूर आएगा, निश्चित आएगा। जब आपके मरने का दिन आएगा, तो फिर क्या होगा? तब आपको यहाँ से जाने के बाद में सीधे भगवान के दरबार में जाना पड़ेगा और सिर्फ एक बात का जवाब देना पड़ेगा कि आपने इस जिंदगी का कैसे इस्तेमाल किया? अगर आपने ठीक तरीके से इस्तेमाल नहीं किया है, तो भगवान आपसे बेहद नाराज होंगे, भले ही आपने अनुष्ठान किया हो,
इसलिए रात्रि को सोते समय यह ख्याल किया कीजिए कि अब हमारे जीवन का अंत है और अंत को अगर आप ध्यान कर लें तब ? तब फिर आप चौंक पड़ेंगे। जिंदगीभर आदमी न जन्म को याद करता है, न मौत को याद करता है। अगर मौत को याद करे, तो मजा आ जाए। सिकंदर जब मरने को हुआ, तो उसने सब लोगों को बुलाया और कहा कि हमारा सब माल-खजाना हमको दीजिए, हम साथ लेकर के जाएँगे। क्योंकि बड़ी मेहनत से भी कमाया है और बड़ी बेईमानी से भी कमाया है। उसने जो कमाया था, लोगों ने वह सब उसके सामने रख दिया। सिकंदर कहने लगा कि इसे हमारे साथ भेजने का इंतजाम करो। लोगों ने कहा, यह कैसे हो सकता है? यह सब चीजें तो यहीं की थीं और यहीं पड़ी रह जाएँगी। आप तो बेकार ही कहते हैं कि यह हमारे साथ जाएगा। आपके साथ तो आपका पुण्य और पाप जाएगा और कुछ नहीं जा सकता। काश! हमें हर पल मौत याद रहे।
सिकंदर फूट-फूटकर रोने लगा। उसने कहा कि अगर मुझे यह मालूम होता कि मेरे साथ में केवल पुण्य-पाप ही जाने वाला है, तो मैं इस छोटीसी जिंदगी को गुनाहों से भरी हुई न बनाता। फिर मैं भगवान बुद्ध के तरीके से जिया होता, सुकरात के तरीके से जिया होता, ईसा के तरीके से जिया होता। ऐसी गलती क्यों कर डाली? इस संपदा को, जिसकी मुझे जरूरत नहीं थी, उसी को मैं इकट्ठा करता रहा। यह क्यों करता रहा? मौत तो होनी ही है। उसको जब मौत याद आई, तो वह बार-बार यही बोला, मरते वक्त मेरे दोनों हाथ ताबूत से बाहर निकालकर रखना। उसने अपने सैनिकों से कहा कि आप लोग जब हमें दफनाने के लिए जाएँ, तो हमारे दोनों हाथ हमारे जनाजे से बाहर निकाल देना, ताकि लोग यह देखें कि सिकंदर खाली हाथ आया था और खाली हाथ चला गया। यह वैराग्य श्मशान घाट में ही बन सकता है। श्मशान घाट की एवं मौत की याद आपको आ जाए, तो आप निश्चित ही जो घिनौनी जिंदगी जी रहे हैं, उसकी कतई इच्छा नहीं होगी। फिर आप यह कहेंगे कि इस नए मौके का अच्छे से अच्छा उपयोग क्यों न कर लिया जाए।
फिर आप क्या करेंगे? फिर आप अपना टाइमटेबिल और अपनी नीति ऐसी बनाएँगे जैसे कि राजा परीक्षित ने बनाई थी। राजा परीक्षित को मालूम पड़ गया था कि आज से सातवें दिन साँप काट खाएगा। उसने यह निश्चय किया कि इन सात दिनों का अच्छे से अच्छा उपयोग करेंगे। उन्होंने भागवत कथा का अनुष्ठान किया और दूसरे अच्छे कर्म किए। इससे उनकी मुक्ति हो गई।
सात दिन में तो सबको ही साँप काटने वाला है। आपको भी सात दिन में ही काटेगा। कुल सात ही दिन तो होते हैं न, मौत का साँप इन्हीं दिनों में तो काटता है। सातवें दिन के बाद आठवाँ दिन कहाँ है? इसलिए आप भी राजा परीक्षित के तरीके से विचार कर सकते हैं कि हमारी बची हुई जिंदगी, जो मौत के दिनों के बीच में बाकी रह गई है, इसका हम अच्छे से अच्छा कैसे उपयोग कर सकते हैं? सायंकाल को आप विचार किया कीजिए कि उसका कैसे अच्छे से अच्छा उपयोग किया जाए। सायंकाल को दिनभर के कार्यों की समीक्षा किया कीजिए और समीक्षा करने के बाद में यदि लगे कि हमने गलती की या नहीं की। यदि की है, तो उसके लिए अपने को तुच्छ नहीं समझे, धमकाइए नहीं, वरन अपने आपको इस बात के लिए रजामंद कीजिए कि जो कुछ आज कमियाँ रह गईं अथवा गलतियाँ हो गईं, वह कल नहीं रहेंगी। कल हम उसी कमी को पूरा कर लेंगे, गलती को सुधार लेंगे। फिर क्या हो जाएगा? कमी की पूर्ति हो जाएगी। अगली बार गलती नहीं होगी, काम बहुत अच्छा हो जाएगा। गलतियों से सीखें, आत्मचिंतन करते रहें।
इस तरह प्रातःकाल जिस तरीके से आपने आज की नीति का निर्धारण किया था, उसी तरीके से आज की गलतियों का और आज की सफलताओं का अनुमान लगाते हुए कल की बात की आप तैयारी कर सकते हैं कि कल हमको कैसे जीना है? यह सब आप रात को सोने से पहले तय कर लेंगे, तो दूसरे दिन आपको सफलता मिलेगी, चिंतन करेंगे, तो थोड़ा कठिन पड़ेगा। इसलिए हर दिन सोते समय में, मौत की गोद में, नींद की गोद में जाते समय यह विचार लेकर जाया करें कि अब हम इस संसार से चले और भगवान के यहाँ गए। ऐसी स्थिति में फिर आपको क्या करना चाहिए? लगाव को कम करना चाहिए। लोगों से, वस्तुओं से आपका लगाव जितना ज्यादा होगा, आप उतना ही ज्यादा कष्ट पाएँगे। आप लगाव को कम कीजिए। लगाव ही ज्यादा कष्टकारक है, जिम्मेदारियों का निभाना ज्यादा कष्टकारक नहीं है। जिम्मेदारियाँ तो आपको निभानी ही चाहिए। आप अपनी जिम्मेदारी माता के प्रति निभाइए, पत्नी के प्रति निभाइए, बच्चों के प्रति निभाइए और समाज के प्रति निभाइए, लेकिन लगाव आपको बहुत हैरान कर देगा। हमारा ही बच्चा है, यह आप क्यों कहते हैं? यह क्यों नहीं सोचते और कहते कि भगवान का बच्चा है।
आप रात्रि को जब सोया करें और मौत को जब याद किया करें, तो साथ में दो बातें और भी याद कर लिया करें कि हम खाली हाथ जा रहे हैं। लालच हमारे साथ जाने वाला नहीं है और मोह भी हमारे साथ जाने वाला नहीं है। हर प्राणी अपने संस्कार लेकर आया है और अपने संस्कार लेकर चला जाएगा। फिर आप उनके मालिक कैसे हुए? संपत्ति जितनी आप खा सकते हैं और जितनी इस्तेमाल कर सकते हैं, उतनी ही तो ले सकते हैं। बाकी जमीन पर ही छोड़नी पड़ेगी, चाहे संबंधियों के लिए छोड़ें, चाहे उत्तराधिकारियों के लिए छोड़ें और चाहे पुलिस वालों के लिए छोड़ें। तो जब छोड़नी ही पड़ेगी, तो आप उन लोगों के लिए क्यों नहीं छोड़ते, जो कि इसके हकदार हैं। आप उतना ही क्यों न कमाएँ, जिससे कि आप ईमानदारी के साथ अपने लोक और परलोक को बनाए रखें। आप अपने खर्चे उतने ही क्यों न रखें, जिससे कि सीमित आजीविका में ही आदमी का गुजारा चल सकता है।
त्याग, वैराग्य, भक्ति तब आती है, जब आदमी मृत्यु का स्मरण करता है। आप मृत्यु का स्मरण कीजिए। मृत्यु का स्मरण करना बहुत जरूरी है। ॐ कृतो स्मरः…..। किसको याद करो, मौत को याद करो। ‘भस्मीभूतमिदं शरीरं’ अर्थात यह शरीर भस्मीभूत होने वाला है।
आप इस मरने वाले शरीर के बारे में ध्यान रखें कि यह कल या परसों मिट्टी में मिलने वाला है। फिर हम क्यों ऐसे गलत काम करें, जिससे हमारी परंपरा बिगड़ती हो, पीछे वालों को कहने का मौका मिलता हो, धिक्कारने का मौका मिलता हो और आपकी आत्मा को असंतोष की आग में जलने का मौका मिलता हो। आप मत कीजिए ऐसा काम। ये दोनों शिक्षाएँ आपको नया जीवन और नई मौत के स्मरण करने से मिल सकती हैं और कोई तरीका नहीं है। आप इन दो संध्यावंदन को भूलिए मत। दूसरे समय पर कीजिए। प्रातः काल तो यह चिंतन और मनन कीजिए–’नया जन्म नई मौत’ ‘और हर दिन को नया जन्म और हर रात को नई मौत।’ इस मौत और जिंदगी के झूले में आप झूलते हुए अपने, कर्त्तव्य और बुद्धिमत्ता के बारे में विचार करेंगे, तो ऐसी हजारों बातें मालूम पड़ेंगी, जिसके आधार पर आपका जन्म सार्थक हो सके और आप अध्यात्मवाद के सच्चे अनुयायी और उत्तराधिकारी बन सकें।
‘हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत’ की मान्यता लेकर जीवनक्रम बनाकर चला जाए तो वर्तमान स्तर से क्रमश: ऊँचे उठते चलना सरल पड़ेगा। मस्तिष्क और शरीर की हलचलें अंतःकरण में जड़ जमाकर बैठने वाली आस्थाओं की प्रेरणा पर अवलंबित रहती हैं। आध्यात्मिक साधनाओं का उद्देश्य इस संस्थान को प्रभावित एवं परिष्कृत करना ही होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति में वही साधना बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती है, जिसमें उठते ही नए जन्म की और सोते ही नई मृत्यु की मान्यता को जीवंत बनाया जाता है।
प्रातः बिस्तर पर जब आँख खुलती है तो कुछ समय आलस को दूर करके शय्या से नीचे उतरने में लग जाता है। प्रस्तुत उपासना के लिए यही सर्वोत्तम समय है। मुख से कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं पर यह मान्यता चित्र मस्तिष्क में अधिकाधिक स्पष्टता के साथ जमाना चाहिए कि “आज का एक दिन पूरे जीवन की तरह है, इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग किया जाना चाहिए। समय का एक भी क्षण न तो व्यर्थ गँवाया जाना चाहिए और न अनर्थ कार्यों में लगाना चाहिए।” सोचा जाना चाहिए कि “ईश्वर ने अन्य किसी जीवधारी को वे सुविधाएँ नहीं दीं जो मनुष्य को प्राप्त हैं। यह पक्षपात या उपहार नहीं, वरन विशुद्ध अमानत है, जिसे उत्कृष्ट आदर्शवादी नीति अपनाकर पूर्णता प्राप्त करने, स्वर्ग और मुक्ति का आनंद इसी जन्म में लेने के लिए दिया गया है। यह प्रयोजन तभी पूरा होता है, जब ईश्वर की इस सृष्टि को अधिक सुंदर, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए उपलब्ध जीवन-संपदा का उपयोग किया जाए। उपयोग के लिए यह सुर-दुर्लभ अवसर मिला है।
नींद का त्यागकर नित्य कर्म में लग जाना चाहिए। थोड़ी गुंजाइश हो तो उठने से लेकर सोने के समय तक की दिनचर्या इसी समय बना लेनी चाहिए। यों नित्य कर्म करते हुए भी दिनभर का समय विभाजन कर लेना कुछ कठिन नहीं है। ऊर्जा के साथ काम निपटाए जाएँ तो कम समय में अधिक काम हो सकता है। उदासी से ही समय का भारी अपव्यय होता है, योजनाबद्ध दिनचर्या बनाई जाए और उसका मुस्तैदी से पालन किया जाए तो ढेरों समय बच सकता है। एक काम के साथ दो काम हो सकते हैं। जैसे आजीविका उपार्जन के बीच खाली समय में स्वाध्याय तथा मित्रों से परामर्श हो सकता है। परिवार व्यवस्था में मनोरंजन का पुट रह सकता है। निद्रा, नित्य कर्म, स्वाध्याय, उपासना, आदि कार्यों में कौन, कब, किस प्रकार कितना समय देगा? यह हर व्यक्ति की अपनी परिस्थिति पर निर्भर है, पर समन्वय इन सब बातों का रहना चाहिए। दृष्टिकोण यह रहना चाहिए कि आलस्य-प्रमाद में एक क्षण नष्ट नहीं करना चहिए, और सारी गतिविधियाँ इस प्रकार चलती रहें, जिनमें आत्मकल्याण, परिवार निर्माण एवं लोकमंगल के तीनों तथ्यों का समुचित समावेश बना रहे।
जल्दी सोने और जल्दी उठने का नियम जीवन-साधना में रुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को बनाना ही चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त का समय अमृतोपम है, उस समय किया गया हर कार्य बहुत ही सफलता पूर्वक संपन्न होता है। जो भी अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य प्रतीत होता हो, उसे उसी समय में करना चाहिए। सवेरे जल्दी उठना उन्हीं के लिए संभव है जो रात्रि को जल्दी सोते हैं। इस मार्ग में जो अड़चनें हों उन्हें बुद्धिमत्तापूर्वक हल करना चाहिए, किंतु जल्दी सोने और जल्दी उठने की परंपरा तो अपने लिए ही नहीं पूरे परिवार के लिए बना ही लेनी चाहिए। रात्रि को सोते समय वैराग्य एवं संन्यास जैसी स्थिति बनानी चाहिए। बिस्तर पर जाते ही यह सोचना चाहिए कि निद्राकाल एक प्रकार का मृत्यु विश्राम है। आज का नाटक समाप्त, कल दूसरा खेल खेलना है। परिवार ईश्वर का उद्यान है उसमें अपने को कर्त्तव्यनिष्ठ वक्ति की भूमिका निभानी थी। शरीर, मन, ईश्वरीय प्रयोजनों को पूरा करने के लिए मिले जीवन-रथ के दो पहिये हैं, इन्हें सही राह पर चलाना था।
प्रातः उठते समय नए दिन की मान्यता जीवनोद्देश्य की स्पष्टता तथा सुव्यवस्थित दिनचर्या बनाने का कार्य संपन्न करना चाहिए। रात्रि को सोते समय मृत्यु का चिंतन, आत्मनिरीक्षण, पश्चात्ताप और कल के लिए सतर्कता, वैरागी एवं संन्यासी जैसी मालिकी त्यागने की हलकी-फुलकी मनःस्थिति लेकर शयन किया जाए। दिनभर हर घड़ी ऊर्जा और आनंद के साथ प्रस्तुत कार्यों को निपटाया जाए। भीतरी दुर्भावनाओं और बाहरी दुष्प्रवृत्तियों के उभरने का अवसर आते ही उनसे जूझ पड़ा जाए और निरस्त करके ही दम लिया जाए। यह है वह जीवन-साधना जिसमें चौबीसों घंटे निमग्न रहकर इसी जीवन में स्वर्ग जैसे उल्लास, आनंद और मुक्ति जैसे आनंद का हर घड़ी अनुभव करते रहा जा सकता है।
आज की पीढ़ी अनेक समस्या से घिरी हुई है। आज की जनरेशन रोगों से , मानसिक तनाव, शारीरिक समस्या में जकड़ी हुई हैं। सामाजिक मूल्य को खत्म किया जा रहा हैं। जीवन को भौतिक सुख के नज़रिए से देखा जा रहा है। जिस कारण वश प्राकृतिक आपदा, समस्या, तापमान में बढ़ोतरी, मानसिक विकृति से भरा आज समाज नजर आता हैं। जिसके परिणाम स्वरूप कही जगह पर बादल फटने का प्रकार होता है, तो कही जगह पर सुखा पड़ा रहता है। जैसे मानो प्रतीत होता है प्रकृति ने अपना बैलेंस खो दिया। मानव कुदरत के सामने उंगली खड़ी कर उसे चुनौती दे रहा है। पर्यावरण दिवस सिर्फ कागज पर मनाए जाता है। मां प्रकृति हमे हर समय हमारी मदद करती है। हम उसे धन्यवाद देने की जगह उसे समस्या देने का काम आज मानव जाति के द्वारा हो रहा है। ग्लोबल वार्मिग यह कोई सामान्य समस्या नहीं है। यह बड़ी आपदा के रूप में सामने आई है, इसे सावधान रहकर निपटना चाहिए।
संसार में एक ओर जनसंख्या की वृद्धि हो रही है, दूसरी और कारखाने और उद्योग-धंधे बढ़ रहे हैं। इन दोनों ही अभिवृद्धियों के लिए पेयजल की आवश्यकता भी बढ़ती चली जा रही है। पीने के लिए, नहाने के लिए, कपड़े धोने के लिए, रसोई एवं सफाई के लिए हर व्यक्ति को, हर परिवार को पानी चाहिए। जैसे-जैसे स्तर ऊँचा उठता जाता है, उसी मात्रा से पानी की आवश्यकता भी बढ़ती है। खाते-पीते आदमी अपने निवास स्थान में पेड़-पौधे, फल-फूल, घास-पात लगाते हैं, पशु पालते हैं। इन सबके लिए पानी की माँग और बढ़ती है। गर्मी के दिनों में भी ज्यादा छिड़काव के लिए पानी चाहिए।
कारखाने निरंतर पानी माँगते हैं। जितना बड़ा कारखाना उतनी बड़ी पानी की माँग । भाप पर चलने वाले थर्मल पॉवर प्लांट तथा दूसरी मशीनें पानी की अपेक्षा करती हैं। संशोधन और शोध संस्थान में भी ढेरों पानी की मात्रा का उपयोग प्रयोग के लिए होता है। शहरों में फ्लश , सीवर लाइनें तथा नाली आदि की सफाई के लिए अतिरिक्त पानी की जरूरत पड़ती है। कृषि और बागवानी का सारा दारोमदार ही पानी पर ठहरा हुआ हरियाली एवं वन संपदा पानी पर ही जीवित हैं। पशु पालन में बिना पानी के चल नही सकता। चारा-पानी अनिवार्य रूप में चाहिए और भी न जाने कितने ज्ञात-अज्ञात आधार हैं, जिनके लिये पानी की निरंतर जरूरत पड़ती हैं।
यह सारा पानी बादलों से मिलता है। पहाड़ों पर जमने वाली बर्फ, जिसके पिघलने से नदियाँ बहती हैं, वस्तुतः बादलों का ही अनुदान है। सूर्य की गर्मी से समुद्र द्वारा उड़ने वाली भाप बादलों के रूप में भ्रमण करती है। उनकी वर्षा से नदी-नाले, कुएँ, तालाब, झरने-बहने लगते है। उन्हीं से उपरोक्त आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ वृक्ष वनस्पतियों की, अन्न, शाक, पशु वंश की जो वृद्धि होती चली जा रही है, उसने पानी की माँग को पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ा दिया है। यह माँग दिन-दिन अधिकाधिक उग्र होती जा रही है। बादलों के अनुदान से ही अब तक सारा काम चलता रहा है। सिंचाई के साधन नदी, तालाब, कुँओं से ही पूरे किये जाते हैं। इनके पास जो कुछ है, बादलों की ही देन है। स्पष्ट है कि बादलों के द्वारा जो कुछ दिया जा रहा है, वह आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कम पड़ता है। संसार भर में पेयजल अधिक मात्रा में प्राप्त करने की चिंता व्याप्त है, ताकि मनुष्यों की पशुओं की, वनस्पतियों की, कारखानों की आवश्यकता को पूरा करते रहना संभव बना रहे।
बादलों पर किसी का नियंत्रण नहीं। वे जब चाहें जितना पानी बरसायें। उन्हें आवश्यकता पूरी करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। वे बरसते भी हैं, तो अंधाधुंध बेहिसाब। वर्षा में वे इतना पानी फैला देते हैं कि पृथ्वी पर उसका संग्रह कर सकना संभव नहीं होता और वह बहकर बड़ी मात्रा में समुद्र में जा पहुँचता है। इसके बाद शेष आठ महीने आसमान साफ रहता है। गर्मी के दिनों में तो बूँद-बूँद पानी के लिए तरसना पड़ता है। इन परिस्थितियों में मनुष्यों को जल के अन्य साधन-स्रोत तलाश करने के लिए विवश होना पड़ रहा है, अन्यथा कुछ ही दिनों में जल संकट के कारण जीवन दुर्लभ हो जायेगा। गंदगी बहाने, हरियाली उगाने और स्नान-रसोई के लिए भी जब पानी कम पड़ जायेगा, तो काम कैसे चलेगा ? कारखाने किसके सहारे अपनी हलचल जारी रखेंगे ?
अमेरिका की आबादी लगभग तीस करोड़ है। वहाँ कृषि एवं पशुपालन में खर्च होने वाले पानी का खर्च प्रति मनुष्य के पीछे प्रतिदिन तेरह हजार गैलन आता है। घरेलू कामों में तथा उद्योगों में खर्च होने वाला पानी भी लगभग इतना ही बैठता है। इस प्रकार वहाँ हर व्यक्ति के पीछे २६ हजार गैलन पानी की नित्य जरूरत पड़ती है। यहाँ की आबादी विरल और जल स्रोत बहुत हैं, तो भी चिंता की जा रही है, कि आगामी शताब्दी में पानी की आवश्यकता एक संकट के रूप में सामने प्रस्तुत होगी। भारत की आबादी अमेरिका की तुलना में लगभग तीन गुनी अधिक है, किंतु जल साधन कहीं कम हैं। बड़े शहरों में अकेले मुंबई को ही लें, तो वहाँ की जरूरत 40 करोड़ गैलन हो पाती है। यही दुर्दशा न्यूनाधिक मात्रा में अन्य शहरों की है। देहाती क्षेत्र में अधिकांश कृषि उत्पादन वर्षा पर निर्भर है। जिस साल वर्षा कम होती है, उस साल भयंकर सूखे का सामना करना पड़ता है। मनुष्यों और पशुओं की जान पर बन आती है। यदि इन क्षेत्रों में मानव उपार्जित जल की व्यवस्था हो सके, तो खाद्य समस्या का समाधान हो सकता है।
नये जल-आधार तलाश करने में दृष्टि समुद्र की ओर ही जाती है। धरती का दो-तिहाई से भी अधिक भाग समुद्र से डूबा पड़ा है; किंतु वह है खारा। जिसका उपयोग उपरोक्त आवश्यकताओं में से किसी की भी पूर्ति नहीं कर सकता। इस खारे जल को पेय किस प्रकार बनाया जाय, इसी केंद्र पर भविष्य में मनुष्य जीवन की आशा इन दिनों केंद्रीभूत हो रही है। इस संदर्भ में राष्ट्रसंघ ने एक आयोग नियुक्त किया था, जिसने संसार के ४६ प्रमुख देशों में दौरा करके जल समस्या और उसके समाधान के संबंध में विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इस रिपोर्ट का सारांश राष्ट्रसंघ ने प्रगतिशील देशों में खारे पानी का शुद्धीकरण’ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है, जिसमें प्रमुख सुझाव यही है कि समुद्री जल के शुद्धीकरण पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। यो वर्षा के जल को समुद्र
रोकने के लिए तथा जमीन की गहराई में बहने वाली अदृश्य नदियों का पानी ऊपर खींच लाने को भी महत्त्व दिया गया है और कहा गया है कि बादलों के अनुदान तथा पर्वतीय बर्फ के रूप में जो जल मिलता है, उसका भी अधिक सावधानी के साथ सदुपयोग किया जाना चाहिए।
उत्तर और दक्षिण ध्रुव-प्रदेशों के निकटवर्ती देशों के लिए एक योजना यह है कि उधर समुद्र में सैर करते-फिरने वाले हिम पर्वतों को पकड़ कर पेय जल की आवश्यकता पूरी की जाए, तो यह अपेक्षाकृत सस्ता पड़ेगा और सुगम रहेगा। संसार भर में जितना पेयजल है, उसका ८० प्रतिशत भाग ध्रुव-प्रदेश एंटार्कटिक के हिमावरण (आइसकैप) में बँधा पड़ा है। इस क्षेत्र में बर्फ के विशालकाय खंड अलग होकर समुद्र में तैरने लगते हैं और अपने ही आकार मे हिम द्वीप जैसा बना लेते हैं। वे समुद्री लहरों और हवा के दबाव से इधर-उधर सैर-सपाटे करते रहते हैं। दक्षिण ध्रुव के हिम पर्वतों को गिरफ्तार करके दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका में पानी की आवश्यकता पूरी करने के लिए खींच लाया जा सकता है। इसी प्रकार उत्तर ध्रुव के हिम पर्वत एक बड़े क्षेत्र की आवश्यकता पूरी कर सकते हैं, यद्यपि उसमें संख्या कम मिलेगी।
अमेरिका के वैज्ञानिक डॉ० विलियम कैंबेल और डॉ० विल्फर्ड वीकस ने इसी प्रयोजन के लिए कैंब्रिज, इंग्लैंड में बुलाई गई एक इंटरनेशनल सिंपोजियम आन दि हाइड्रोलॉजी ऑफ ग्लेशियर्स में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए कहा था—हिम पर्वतों को पकड़ने की योजना को महत्त्व दिया जाना चाहिए, ताकि पेयजल की समस्या को एक हद तक सस्ता समाधान मिल सके। भू-उपग्रहों की सहायता से फोटो लेकर यह पता लगाया जा सकता है, कि किस क्षेत्र में कैसे और कितने हिम पर्वत भ्रमण कर रहे हैं ? इन पर्वतों का 85 प्रतिशत भाग पानी में डूबा रहता है और शेष 20 प्रतिशत सतह से ऊपर दिखाई पड़ता है। इन्हें पाँच
एवं हजार मील तक घसीटकर लाया जा सकता है। इतना सफर करने में उन्हें चार-पाँच महीने लग सकते हैं। यह खर्चा और सफर की अवधि में अपेक्षाकृत गर्म वातावरण में बर्फ पिघलने लगना यह दो कारण यद्यपि चिंताजनक हैं, तो भी कुल मिलाकर वह पानी उससे सस्ता ही पड़ेगा, जितना कि हम जमीन पर रहने वालों को औसत हिसाब से उपलब्ध होता है।
हिसाब लगाया गया है कि ऐमेरी से आस्ट्रेलिया तक ढोकर लाया गया हिम पर्वत दो-तिहाई गल जायेगा और एक-तिहाई शेष रहेगा। रास से दक्षिण अमेरिका तक घसीटा गया हिम पर्वत 15 प्रतिशत ही शेष रहेगा। धीमी चाल से घसीटना अधिक लाभदायक समझा गया है, ताकि लहरों का प्रतिरोध कम पड़ने से बर्फ की बर्बादी अधिक न होने पाये। ७८ हजार हार्सपावर का एक टग जलयान आधा नाट की चाल से उसे आसानी के साथ घसीट सकता है। अपने बंदरगाह से चलकर हिम पर्वत तक पहुँचने और वापस आने में जो खर्च आयेगा और फिर उस बर्फ को पिघलाकर पेयजल बनाने में जो लागत लगेगी, वह उसकी अपेक्षा सस्ती ही पड़ेगी, जो म्युनिसपेलिटियाँ अपने परंपरागत साधनों से जल प्राप्त करने में खर्च करती हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि बर्फ का जल, डिस्टिल्ड वाटर स्तर का होने के कारण स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी, स्वच्छ और हानिकारक तत्त्वों से सर्वथा रहित होगा। उसके स्तर को देखते हुए यदि लागत कुछ अधिक हो, तो भी उसे प्रसन्नतापूर्वक सहन किया जा सकता है। दूसरा उपाय यह सोचा गया है कि समुद्र के किनारे अत्यंत विशालकाय अणु भट्टियाँ लगाई जाएँ, उनकी गर्मी से कृत्रिम बादल उत्पन्न किये जाएँ, उन्हें ठंडा करके कृत्रिम नदियाँ बहाई जायें और उन्हें रोक-बाँधकर पेयजल की समस्या हल की जाए।
तीसरा उपाय यह है कि वर्षा का जल नदियों में होकर समुद्र में पहुँचता है, उसे बाँधों द्वारा रोक लिया जाए और फिर उनसे पेय जल की समस्या हल की जाए।दूसरे और तीसरे नंबर के उपाय जोखिम भरे हैं। अत्यधिक गर्मी पाकर समुद्री जलचर मर जायेंगे, तटवर्ती क्षेत्रों का मौसम गरम हो उठेगा और ध्रुव प्रदेशों तक उस गर्मी का असर पहुँचने से जल प्रलय उत्पन्न होगा और धरती का बहुत बड़ा भाग जलमग्न हो जायेगा। इतनी बड़ी अणु भट्टियाँ अपने विकरण से और भी न जाने क्या-क्या उपद्रव खड़े करेंगी ? तीसरे उपाय से यह खतरा है कि जब समुद्रों में नदियों का पानी पहुँचेगा ही नहीं, तो वे सूखने लगेंगे। खारापन बढ़ेगा और उस भारी पानी से बादल उठने ही बंद हो जायेंगे, तब नदियों का पानी रोकने से भी क्या काम चला ? ध्रुवों के घुमक्कड़ हिम द्वीप भी बहुत दूर तक नहीं जा सकते। उनका लाभ वे ही देश उठा सकेंगे, जो वहाँ से बहुत ज्यादा दूर नहीं हैं।
उपरोक्त सभी उपाय अनिश्चित एवं अधूरे हैं; पर इससे क्या ? पेय जल की बढ़ती हुई माँग तो पूरी करनी ही पड़ेगी। अन्यथा पीने के लिए, कृषि के लिए, कारखानों के लिए, सफाई के लिए भारी कमी पड़ेगी और उस अवरोध के कारण उत्पादन और सफाई की समस्या जटिल हो जाने से मनुष्य भूख, गंदगी और बीमारी से त्रसित होकर बेमौत मरेंगे।
यह सारी समस्याएँ बढ़ती हुई आबादी पैदा कर रही है। मनुष्य में यदि दूरदर्शिता होती, तो वह जनसंख्या बढ़ाने की विभीषिका अनुभव करता और उससे अपना हाथ रोकता; पर आज तो न यह होता दीखता है और न पेय जल का प्रश्न सुलझता प्रतीत होता है। मनुष्य को अपनी मूर्खता का सर्वनाशी दंड, आज नहीं तो कल भुगतना ही पड़ेगा। अनुमान है कि यह विषम परिस्थिति अगले दशक के अंत तक संसार के सामने गंभीर संकट के रूप में उपस्थित होगी।
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