Shiv Sutra : Power to choose !!

शुक्लं यजुर्वेद के रुद्राष्टाध्यायी सुत्र में उल्लेख है,

तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु

इस सुत्र को हमे समझना होगा, शाब्दिक अर्थ को तो आप जानते ही होंगे। पर इस सुत्र को महाशिवरात्री के शुभ अवसर पर जिवन में पिरोना होगा। यह सुत्र हमे बताता है, और सिखाता है,अगर आप किसी हाथी पर बैठना चाहते हो तो उस हाथी के संपर्क में आपको आना होगा उसे सिखाना होगा। अगर आपके जिवन मे वह गुरु शक्ती नहीं है। तो आप उसे शिक्षा के पाठ पढ़ा सकते हैं, परंतु समय आने पर वह हाथी आपको पटक देना! अगर गुरु है, संकल्प है तो आप अवश्य विजयी होंगे। यह हाथी का संदर्भ मन से है। यही शिव सूत्र हमे ज्ञान प्रदान करता है।

यह सुत्र सिखाता है, हमारा मन शुभ संकल्प से युक्त हो। संकल्प शक्ती बहुत प्रचण्ड है। इसी सृष्टी का निर्माण भी संकल्प शक्ती के द्वारा ही हुआ है। कोई भी शुभ कार्य करने से पहले संकल्प का आव्हान होता है। फिर वह संकल्प शक्ती उस कार्य में अपने प्राण शक्ति का हुंकार करती है। अगर मन मे संशय है तो, संकल्प शक्ती कमजोर होती है। और कार्य अपूर्ण होता है। संकल्प शक्ती के व्दारा मनुष्य मे बड़े स्तर पर उत्साह, धैर्य, का आगमन होता है। संकल्प शक्ती दृढ़ संकल्प में परिवर्तित होती है। दृढ़ संकल्प की अदभुत शक्ती निश्चिय की सवारी पर सवार होती हुई अपने परम लक्ष्य तक पहुंचती है, इसलिए मन स्थिर, और एकाग्र रखना महत्वपूर्ण हैं। यही मन चुनाव करता है, की आप चाहते क्या हो? भगवान शिव शिवरात्रि की आराधना हमे जीवन को योग्य दिशा सिखाती है।

एकाग्रता की दिव्य ऊर्जा से से संकल्प शक्ती दृढ़ होती जाती है। मन अगर अस्थिर है, तो आप लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकते हैं। यहाँ योग दर्शन के वह सूत्र का आधार लेना आवश्यक होता है,

अभ्यासवैराग्याभ्याम् तन्निरोध” अभ्यास और वैराग्य से चंचलता को कम कर सकते हैं, अर्थात अच्छी चिजो के अभ्यास की हमे तैयारी करनी होगी। इस मन को योग्य अभ्यास में लगाना होगा। आज कि परिस्थिती कुछ अलग है। हमने अपने मन को नकारात्मक चीजों मे लगाया है। मन को अभ्यास हुआ है, डिप्रेशन, छोटी असफलता पर शोक करना, रोगी बनना। इसी कारणवश जिवन को देखने का दुष्टीकोन नैराश्य लेकर आता है। जिवन रोगी बनता व्यतिथ होता है। हर कर्म असफलता को प्राप्त होता है। इस लिए हमे अपने मन पर काम करना होगा। उसे योग्य अभ्यास में लगाना होगा। संकल्प शक्ती को हमें उच्च रखना होगा। यही संकल्प शक्ती आपको “तीव्रसंवेगामासन्न” से आप लक्ष्य को जल्दी वेग पूर्ण गति के साथ हासिल कर सकते हो। असामान्य परिस्थितीयो मे भी मन घबराने नही लगेगा। विलक्षण प्रयत्नो के जोड़ से हम अपनी यात्रा पुर्ण करने में सफल होंगे। प्रयासो से क्रांती आने में विलंब नहीं है। महामना मालवीय जी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए कृत संकल्पित थे। इसी संकल्प का परिणाम स्वरूप आपके सामने हैं, यही विश्वविद्यालय संपूर्ण जगत्‌ मे अपनी पहचान लेकर खड़ा है।

संकल्प शक्ति के आधार पर आप बड़ी से बड़ी चट्टानों को पार कर सकते हो। अर्थात् जीवन की समस्या आपको रोक नहीं सकेगी। अगर संकल्प शक्ति कमजोर है तो, यह स्वयं ही सर्वनाश है। मनुष्य का आध्यात्मिक जिवन और विकास इसी संकल्प शक्ती पर आधारित है। यही आत्मनिर्भर होने का राजमार्ग है। आध्यात्मिक उपलब्धी भी उस मनुष्य से दूर नहीं।

अथर्व वेद मे यही आशय पर आधारित सूत्र है,

यो वः शुष्पो हृदयेष्वंतराकृतिर्या वो मनसि प्रविष्टा । तान्त्सीवयामिहविषाघृतेन मयि सजाता रमतिर्वो अस्तु ॥

हृदय का बल और मन की संकल्पशक्ती अगर एक दिशा में आगे बढ़े तो आपको आपके परम् लक्ष्म पाने में सफलता ही प्राप्त होंगी। इसी संकल्पशक्ती के आधार पर व्यक्ती, जाती, और संस्कृती अजेय बनती जाती है। जीवात्मा से परमात्मा की यात्रा का सुगम अवसर की प्राप्ती होता है। “यथा पिण्डे तथा ब्रम्हाण्डे” । पिण्ड मे ब्रम्हाण्ड समाया है। पिण्ड का अर्थ होता शरिर, स्थुल शरिर और सुक्ष्म शरिर। ब्रम्हाण्ड का मतलब होता है “अनंत”। यह अनंत की सत्ता बाहर नहीं हमारे भीतर है। यह वो साक्षी काल होता, जो रात्रि काल भी शिव के अलंकार से श्रृंगार किया करती हैं । काल भी शिव उपासक बनकर शिव ही शिव को जपता चला जाता है, शान्ति और शक्ति का अदभूत मिलन का वह पर्व है, ‘महाशिवरात्री ”। चेतना विकास का यह अदभुत संगम है, जिसमे शांति, तेज और शक्ति संचार होता हैं।

यही जीवात्मा वह द्वार बनता जो रास्ता आपको परम् शिव तक आपको पहुंचाता है। यहां तक पहुंचने के लिए आपको जरूरत होती है, दिशा का चुनाव करने की। चुनाव करना अर्थात् “मन”। यही मन सबसे महत्वपूर्ण है, और शक्तीशाली भी। इसी मन के व्दारा मनुष्य अपनी इच्छा, संकल्प को साकार करता हैं। अर्थात पूर्ण करता है। मन शक्ती आपको (आत्मा) को इच्छाओं ‍मे जकड़ कर रखती है। हमारा जीवन इसी भ्रम जाल मे जकड़ा रहता है। अविद्या का उद्गम यहाँ से शुरू होता है। वृत्तीयाँ भी शुरू होती है। इसी लिए हमारा स्वरुप वृत्ति के सामान एक रुप होता है। इसलिए महर्षि पतंजलि सूत्र का आधार देकर सूत्र बताते है” वृत्तिसारुप्यमितरत्र’ सा होता है। हम माया के जाल में फँसते चले जाते हैं। इसलिए महत्वपूर्ण है, मन पर नियंत्रण अथवा चंचलता को क्षीण करना। यहाँ आपको समझना है, श्वास का सबन्ध मन से होता है, और मन का सीधा संबन्ध संकल्प से होता है। संकल्प शक्ती आत्मा की शक्ती कही जाती है, संकल्प से युक्त मनुष्य सत्य का आचरण कर आत्मा तक साधना के माध्यम परम् गति को प्राप्त होता है। पुर्णत्व का दिव्य अनुभव साधक को प्राप्त होता है। श्रद्धा साधक की मानस अलंकार होती हैं

संशयात्मा विनश्यति”

जिसका मन संशय रूपी असुर से ग्रसित है, वह मनुष्य दृढ़ संकल्प को छू नहीं सकता। इसी में अपना विनाश को पात्र होता चला जाता है।

सामान्य मनुष्य काम को पूर्ण करने के लिए अपने 100% नही लगाता। अर्थात् मन लगाकर वह कार्य नही करता है। काम को पूर्ण करने में वह अपनी चंचलता का प्रदर्शन करता है। यही कारण है, उसके जिवन मे निराशा, निरुत्साह, असफलता आती है। यही नकारात्मकता की जड़ है। यही निराशा विचारों को नकारात्मक पोषण देती है। इसी आधार पर जीवन की दिशा धारा तय होती है। इसके विपरित आप अगर हर एक कार्य को अपने 100% लगाकर करते हो तो आपको सफलता मिलेगी। इसके साथ आपमें स्विकार करने की शक्ती का विकास होता है। आपका हर एक कार्य जागृती के साथ पूर्ण होता है। कार्य की गती, उत्साह को आप अनुभव कर सकने में समर्थ होंगे।

सर अडयार ने एक सिद्ध योगी से संबन्धीत अपनी किताब में लिखा है, उन दिव्य आत्मा का नाम स्वामी गोविन्ददेव था। जब इन्होंने जल से भरा हुआ घडे को आदेश दिया, उस आदेश का पालन करने के लिए वह मिट्टी का घडा जमिन से देड़ फुट तक उपर उठाता। एक समय गालव महर्षि जी के आश्रम मे अकाल पड़ा और उनके शिष्य प्यास से व्याकुल हो गए थे। इस दशा को देखने और समझने बाद महर्षि ने वहाँ के पर्वत को जल को देने का आदेश दिया। तभी वह पर्वत मे से उसी क्षण से एक जल धारा उत्पन्न हुई है। यह पावन तपोस्थली राजस्थान के जयपुर शहर के पास गलताजी नाम से प्रख्यात है। चित्रकुट पर्वतीय श्रृंखला में महर्षि अत्री जी और उनकी भार्या अनुसया माता जी के आश्रम मे विपरित समय था। कही पर भी पीने के लिए पानी नहीं था। उस समय मे तपोनिष्ठ अत्री महर्षी आश्रम मे उपस्थित नहीं थे। पर उनकी पत्नी माँ अनुसया जी ने अपनी संकल्पशक्ती और तप के बल पर माँ गंगा का ‘आव्हान किया, तभी माँ गंगा का अवतरण हुआ। यह केवल आध्यात्मिक चमत्कार नही है। भौतिक शरिर के स्तर पर संकल्प शक्ती के बल पर अनेको चमत्कार सिद्ध हुए है। झारखंड के गहलौर का रहने वाला ‘दशरथ मांझी ने पहाड़ को खोदकर अपना रास्ता बनाया था। इस काम को पूर्ण करने के लिए उसे 22 साल लगे थे। यह कार्य केवल संकल्पशक्ती का कमाल है।

शिव तत्व : शिवो भूत्वा शिवं यजेत्”

शिव नाम परमात्मा का है (शिवु कल्याणे) इस धातु से ‘शिव’ शब्द सिद्ध होता है। ‘बहुल-मेतन्निदर्शनम्’= [धातुपाठे चुरादिगणे] इससे ‘शिवु’ धातु माना जाता है, “यः मङ्गल-मयो जीवानां मङ्गलकारी च सः शिवः”= जो [स्वयं] कल्याणस्वरूप [है] और [सबके] कल्याण का करने वाला है, इसलिये उस परमात्मा का नाम ‘शिव’ है । महाशिवरात्रि पर्व भगवान् शिव की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए प्रसिद्ध है। शिव का अर्थ होता है-शुभ, भला। शंकर का अर्थ होता है- कल्याण करने वाला । निश्चित रूप से उन्हें प्रसन्न करने के लिए मनुष्य को उनके अनुरूप ही बनना पड़ता है। सूत्र है- “शिवो भूत्वा शिवं यजेत्” अर्थात्- शिव बनकर शिव की पूजा करें, तभी उनकी कृपा प्राप्त हो सकती है। यह भाव गहराई से साधकों को हृदयंगम कराया जा सके तथा शिव की विशेषताओं का सही रूप उनके ध्यान में लाया जा सके, तो वास्तव में साधना के आश्चर्यजनक परिणाम मिलने लगें।

शिवजी के प्रति जनसाधारण में बहुत आकर्षण है; किन्तु उनके सम्बन्ध में भ्रांतियाँ भी खूब हैं, इसलिए शिव की साधना के नाम पर ही अशिव आचरण होते रहते हैं। शिवरात्रि पर्व पर सामूहिक आयोजन के माध्यम से फैली हुई भ्रांतियों का निवारण करते हुए शिव की गरिमा के अनुरूप उनके स्वरूप पर जन आस्थाएँ स्थापित की जा सकती हैं। ऐसा करना व्यक्तिगत पुण्य अर्जन और लोककल्याण दोनों दृष्टियों से बहुत महत्त्व रखता है। शिव का अर्थ है- शुभ, शंकर का अर्थ है- कल्याण करने वाला। शुभ और कल्याणकारी चिन्तन, चरित्र एवं आकांक्षाएँ बनाना ही शिव आराधना की तैयारी अथवा शिव सान्निध्य का लाभ है। शिवलिंग का अर्थ होता है शुभ प्रतीक चिह्न-बीज । शिव की स्थापना लिंग रूप में की जाती है, फिर वही क्रमशः विकसित होता हुआ सारे जीवन को आवृत कर लेता है। शिवरात्रि पर साधक व्रत-उपवास करके यही प्रयास करते हैं। शिव अपने लिए कठोर दूसरों के लिए उदार हैं। यह अध्यात्म साधकों के लिए आदर्श सूत्र है। स्वयं न्यूनतम साधनों से काम चलाते हुए, दूसरों को बहुमूल्य उपहार देना, स्वयं न्यूनतम में भी मस्त रहना, शिवत्व का प्रामाणिक सूत्र है।

नशीली वस्तुएँ आदि शिव को चढ़ाने की परिपाटी है। मादक पदार्थ सेवन अकल्याणकारी है; किन्तु उनमें औषधीय गुण भी हैं। शिव को चढ़ाने का अर्थ हुआ- उनके शिव-शुभ उपयोग को ही स्वीकार करना, अशुभ व्यसन रूप का त्याग करना। ऐसी अगणित प्रेरणाएँ शिव विग्रह के साथ जुड़ी हुई हैं। त्रिनेत्र विवेक से कामदहन, मस्तक पर चन्द्रमा मानसिक संतुलन, गंगा-ज्ञान प्रवाह, का उपयोग विवेकपूर्वक प्रेरणा प्रवाह पैदा करने में किया जा सकता है।

महाभारत में भगवती में देवी उमा व भगवान् शिव के संवाद भीष्म जी ने शर शैय्या पर पड़े हुए युधिष्ठिर को सुनाए थे, उनमें से एक प्रसंग हम उद्धृत करते हैं,

उमोवाच,

भगवन् भगनेत्रघ्न मानुषाणां विचेष्टितम्।

सर्वमात्मकृतं चेति श्रुतं मे भगवन्मतम् ।।

लोके ग्रहकृतं सर्वं मत्वा कर्म शुभाशुभम् ।

तदेव ग्रहनक्षत्रं प्रायशः पर्युपासते।।

एष मे संशयो देव तं मे त्वं छेत्तुमर्हसि

अर्थात् भगवती उमा जी भगवान् महादेव जी से पूछती हैं, भगवन्! भगनेत्रनाशन! आपका मत है कि मनुष्यों की जो भली-बुरी अवस्था है, वह सब उनकी अपनी ही करनी का फल है। आपके इस मत को मैंने अच्छी तरह सुना; परंतु लोक में यह देखा जाता है, कि लोग समस्त शुभाशुभ कर्मफल को ग्रह जनित मान कर प्रायः उन उन ग्रह नक्षत्रों की आराधना करते रहते हैं। क्या उनकी यह मान्यता ठीक है? देव! यही मेरा संशय है। आप मेरे इस संदेह का निवारण कीजिए। इसपर भगवान् महादेव शिव जी उत्तर देते हैं,

श्रीमहेश्वर उवाच,

स्थाने संशयितं देवि शृणु तत्त्वविनिश्चयम् ।।

नक्षत्राणि ग्रहाश्चैव शुभाशुभनिवेदकाः।

मानवानां महाभागे न तु कर्मकराः स्वयम् ।।

प्रजानां तु हितार्थाय शुभाशुभविधिं प्रति ।

अनागतमतिक्रान्तं ज्योतिश्चक्रेण बोध्यते ।।

किंतु तत्र शुभं कर्म सुग्रहैस्तु निवेद्यते ।

दुष्कृतस्याशुभैरेव समवायो भवेदिति ।।

केवलं ग्रहनक्षत्रं न करोति शुभाशुभम् ।

सर्वमात्मकृतं कर्म लोकवादे ग्रहा इति ।।

देवि! तुमने उचित संदेह उपस्थित किया है। इस विषय में जो सिद्धांत मत है, उसे सुनो। महाभागे! “[कुछ लोग ऐसा मानते हैं] ग्रह और नक्षत्र मनुष्यों के शुभ और अशुभ की सूचनामात्र देने वाले हैं। [किंतु वास्तव में] ग्रह स्वयं कोई काम नहीं करते हैं। प्रजा के हित के लिए ज्यौतिष चक्र के भूत और भविष्य के शुभाशुभ फल बोध कराया जाता है। किंतु वहां शुभ कर्मकर्मफल की सूचना शुभ ग्रहों द्वारा प्राप्त होती है और दुष्कर्म के फल फल की सूचना अशुभ ग्रहों द्वारा ग्रहों ने कुछ किया है” – यह कथन लोगों का प्रमादि और दोष पूर्ण है। मात्र है। केवल ग्रह नक्षत्र शुभाशुभ कर्मफल को उपस्थित नहीं करते हैं अपितु सारा अपना ही किया हुआ कर्म ही शुभाशुभ फल का उत्पादक होता है।

[महाभारत शान्तिपर्व, अध्याय 145]

ॐ अमंगलानां शमनं, शमनं दुष्कृतस्य च ।

दुःस्वप्ननाशनं धन्यं, प्रपद्येऽहं शिवं शुभम्।।

अशुभ तत्त्वों का भी शुभ योग सम्भव है। कुछ ओषधियों में मादकता और विषैलापन भी होता है, उसे व्यसन न बनने दें। औषधि प्रयोग तक उनकी छूट है। व्यसन बन गये हों, तो उन्हें छोड़ें, शिवजी को चढ़ाएँ। संकल्प करें कि इनका अशिव उपयोग नहीं करेंगे। भीतर के दोषों को आज समय है उनका त्याग करने का। आज संकल्पित हो जाए, अशुभ का त्याग करने के लिए। इस महाशिवरात्री के दिव्य समय पर हमे दिक्षीत होना है। आगे बढ़ना है। शिक्षीत होकर साधना का रास्ता चुनकर जिवन को दिशा देने का यह समय है। इस समय पर ख़ुद को जकड़ो मत! आप जैसे हो? जहां हो? सब भगवान शिव को अर्पित करो! खुद को खोलने का यह समय है। जिस प्रकार एक बुंद सागर मे जिस प्रकार मिल जाती है। उसी प्रकार उस बुंद मे भी सागर मौजूद है। पर एक बुद भी उस विशाल सागर का बीज तो है। आप में भी उस अनन्त सत्ता का बीज है। आप भी उस शक्ती से परिपूर्ण हो। आप संपन्न हो। आप पुत्र हो उस अनंत सत्ता के!

यह शिवरात्री के पावन अवसर पर आदियोगी शिव हमे समझाते है, मै सर्वत्र हुँ। मेरे से सभी उत्पन्न है, और मैं प्रलय कर्ता हूं। इस शिवरात्री की पावन वेला जुड़ जाओ अपने महादेव के साथ। हर भीतर जाती हुई श्वास शिव है, तो बाहर नीकलती हुई श्वास शिव है यह समर्पन का महुर्त अपने महादेव का ही है। आपकी श्वास शिव हैं। आपका विचार शिव भी। आपका शरिर भी शिव। आपका भीतर का कण-कण शिव! स्वयं को पूर्ण शक्ती से शिव में अर्पित करना और भावना रखना शिव मेरे साथ है। वह चन्द्रशेखर आदि गुरू शिव के ज्ञान को स्वयं के पिण्ड ब्रम्हांड में प्रतिष्ठीत होता हुआ देखो इसलिए आप दिव्य हो । इस महाशिवरात्री के पावन अवसर पर एक दिव्य संकल्प व्रत धारी बनो। यही युगसुष्टा का आवहान है।

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