।। तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥
योगदर्शन ( 2: 1)

अध्यात्म एक ऐसा विज्ञान है, जिसमें सुनिश्चित साधनात्मक विधान को अपनाया जाता हैं। आध्यात्म विज्ञान में मनुष्य के भीतर पड़ी प्रसुप्त शक्तियों को जाग्रत कर अनंत ब्रह्मांड में व्याप्त ब्राह्मी चेतना को लिंग ब्रम्हांड में स्थापित करना होता हैं। इस दिव्य यात्रा को पूर्ण करने के लिए साधक को दो कदम आगे बढ़ाने होते हैं, जिसे योग की सहायता से भीतर तपग्नी को प्रज्वलित करना होता हैं। तप में जहाँ चित्त का परिशोधन होता है तो वहीं योग में चेतना का परिष्कार परिशोधन अर्थात संचित कर्म का, दुष्कर्मों के प्रारब्ध का निराकरण होना तय माना जाता हैं। वहीं परिष्कार का अर्थ है-श्रेष्ठता का जागरण, अभिवर्द्धन इस तरह तपश्चर्या एवं योग साधना के दो चरणों को अपनाते हुए अध्यात्म का प्रयोजन पूरा किया जाता है।
तप को शरीर तक सीमित समझना गलत है। तप की इस दिव्य अग्नि की सीमा शरीर कई गुना आगे बढ़कर प्राण एवं मन तक विस्तृत है अर्थात पूरा अस्तित्व इसके कार्यक्षेत्र में आता है। तप की यह प्रक्रिया संयम, परिशोधन एवं जागरण के तीन चरणों में पूरी होती है। संयम में दैनिक जीवन की ऊर्जा के क्षरण को रोकते हुए उसे संचित किया जाता है और इसका नियोजन महत्त्वपूर्ण एवं श्रेष्ठ कार्यों में किया जाता है। यही संयम अलग अलग हिस्सों में विभाजित होता हैं,इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम. इंद्रिय संयम में पाँच ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों को पवित्र एवं सुनियोजित किया जाता है, जिससे तन-मन की सामर्थ्य भंडार के अपव्यय को रोककर प्रचंड ऊर्जा का संचय किया जा सके और इसका नियोजन आत्मबल संवर्द्धन के उच्चस्तरीय प्रयोजन के निमित्त किया जा सके। इंद्रिय संयम की परिणति अर्थ संयम के रूप में होती है। धन एक तरह की शक्ति है, जो श्रम, समय एवं मनोयोग की सूक्ष्म विभूतियों का स्थूल रूप है। इसके संयम के साथ इन सूक्ष्म का उच्चस्तरीय उपयोग संभव होता है।
परम शक्ति का उपआसन है : तप
यह सूत्र केवल चित्त की बात नही करता अपितु इसे जीवन में स्वीकार किया जाना महावत पूर्ण है, जो हमे हर समय पर शिक्षित करता है की, समय संयम-ईश्वर द्वारा मनुष्य को सौंपी गई समयरूपी विभूति के सदुपयोग का विधान है, जिसके आधार पर विभिन्न प्रकार की भौतिक एवं आत्मिक विभूतियाँ सफलताएँ-संपदाएँ अर्जित कर सकना संभव होता है। इसके सही नियोजन के अभाव में समूची जीवन-ऊर्जा इधर-उधर बिखरकर नष्ट हो जाती है। विचार संयम-मन की अपरिमित ऊर्जा के संयम एवं नियोजन का विज्ञान है, जिसके अभाव में इसकी अद्भुत क्षमता बिखरकर यों ही नष्ट होती रहती है। अनैतिक विचार न केवल मन को बहुत खोखला बनाते हैं, बल्कि ऐसी मनोग्रंथियों को जन्म देते हैं, जिनसे आत्मविकास का मार्ग सदा-सदा के लिए अवरुद्ध हो जाए। विचारशक्ति को भी औषधि माना जाए और चिंतन की एक-एक लहर को रचनात्मक दिशाधारा में प्रवाहित करने का जी-तोड़ परिश्रम किया जाए तो हम उस आत्मसाक्षात्कार के दूर नहीं।
संयम के बाद तप के अंतर्गत परिशोधन का महत्त्वपूर्ण चरण आता है। जीवन-ऊर्जा की आवश्यक मात्रा को संचित किए बिना इसे कर पाना संभव नहीं होता। स्टोरेज कि हुई प्राण ऊर्जा के द्वारा अचेतन मन की ग्रंथियों को खोलना तथा जन्म-जन्मांतर के कर्मबीजों को दग्ध करना इस प्रक्रिया में सम्मिलित हैं। मानवीय व्यक्तित्व को व्याधि की तरह शारीरिक और मानसिक परेशानियों का कारण अवचेतन मन की ये ग्रंथियाँ ही होती हैं, जिनमें नकारात्मक ऊर्जा विकास के स्थान पर विनाश के दृश्य उपस्थित कर रही होती है। अनेकों शारीरिक एवं मानसिक रोग इनके कारण व्यक्ति के जीवन को आक्रांत किए रहते हैं।
चित्त की इन ग्रंथियों के परिशोधन के लिए अनेक तरह की तपश्चर्याओं का विधान है। जिनको अपनाने पर अंतःकरण में जड़ जमाए कुसंस्कारों का नाश होता है तथा इसमें छिपी हुई सुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती हैं व दिव्य सतोगुण का विकास होता है।
ते प्रतिप्रसवहेया: सूक्ष्माः
योगदर्शन (2 10)

आध्यात्म विज्ञान में साधना अर्थात् संध्या को भी तप रूप में स्वीकार किया है। अपने भीतर की इस तपग्नि को स्वीकार कर तन-मन के मल-विकारों की सफाई होती है; जिससे नस-नाड़ियों में रक्त का नया संचार होने लगता है एवं शारीरिक तंत्र नई स्फूर्ति से काम करने लगता है। साथ ही सूक्ष्मनाड़ियों में नव-प्राण का संचार होने लगता है। तप के अंतर्गत परिशोधन के बाद फिर जागरण की प्रक्रिया आती है। अवचेतन ग्रंथियों में नकारात्मक ऊर्जा मुक्त होने पर अंतर्निहित क्षमताओं के जागरण का क्रम शुरू होता है। इसके प्रथम चरण में प्रतिभा, साहस, आत्मबल जैसी अदभूत शक्तिया जाग्रत होने लगती हैं। साथ ही मानवीय अस्तित्व के उन शक्ति संस्थानों के जाग्रत होने का क्रम प्रारंभ हो जाता है, जिनके द्वारा मनुष्य अनंत ब्राह्मीचेतना के प्रवाह को स्वयं में धारण करने में सक्षम होने लगता है। मानवीय चेतना में निहित ऋद्धि-सिद्धि के रूप में वर्णित अतींद्रिय शक्तियाँ एवं अलौकिक क्षमताएँ प्रकट होने लगती हैं।
तप के साथ योग का समन्वय जीवन-साधना को पूर्णता देता है। तप एक तरह के अर्जन की प्रक्रिया है तो योग समर्पण और विसर्जन का विधान है। तप में व्यक्ति की प्रसुप्त शक्तियों के जागरण एवं ऋद्धि सिद्धियों के अर्जन के साथ अहंकार बढ़ सकता है, अध्यात्म पथ में विचलन आ सकता है, लेकिन योग इस दुर्घटना से बचाता है; क्योंकि इसमें अहंकार का समर्पण एवं विसर्जन होता है। यह अहं तक सीमित आत्मसत्ता के संकीर्ण दायरे को विराट अस्तित्व से जोड़ने व आत्मविस्तार की प्रक्रिया है। यही इश्वर प्राणिधान है। भक्तियोग में जहाँ साधक अपने इष्ट-आराध्य एवं भगवान से जुड़कर इस स्थिति को पाता है, वहीं ज्ञानी आत्मा और ब्रह्म की एकता को स्थापित करते हुए अद्वैत की अवस्था को प्राप्त होता है। वहीं कर्मयोगी विराट ब्रह्म को सृष्टि में निहारते हुए निष्काम कर्म के साथ जीवन की व्यापकता को साधता है। ध्यानयोगी अष्टांगयोग की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए समाधि की अवस्था को प्राप्त होता है तथा जीवन का कायाकाल्प की प्रक्रिया अहम के समर्पण से होती है। इस तरह तप जहाँ जीवन-साधना का प्राथमिक आधार रहता है तो वहीं योग इसको निष्कर्ष तक ले जाने वाला अंतिम सोपान है। दोनों मिलकर जीवन-साधना को पूर्णता देते हैं और व्यक्ति को आत्मसिद्धि एवं मुक्ति के चरम उत्कर्ष तक ले जाते हैं। इस तरह तप और योग से युक्त पथ आध्यात्मिक जीवन का सुनिश्चित विज्ञान है, जो सकल सृष्टि के और मानव विकास अंतिम सत्य है।