मैं आव्हान करता हूं, उन युवाओं का जिनके रक्त में देश भक्ति का ज्वालामुखी फूट रहा है। जिनके प्राण मातृभूमि की सेवा लिए तत्पर है। मैं आव्हान करता हूं उन सुपतो का जिनका कण कण समर्पित हैं। मैं आव्हान करता हूं जिनके भीतर ऊर्जा सा प्राण दौड़ रहा है! हो रहा है आव्हान युगपुरुष का, भारत की धरा पर प्राकट्य हो उस युग पुरुष का! धन्य है वह भारत की माटी जहां का कण कण राम है, यह का हर एक युवा प्रचंड पुरुषार्थी है।
युवाओं के संप्रेरक, भारतीय संस्कृति के अग्रदूत, विश्वधर्म के उद्घोषक, व्यावहारिक वेदांत के प्रणेता, वैज्ञानिक अध्यात्म के भविष्यद्रष्टा युगनायक भारत के अनेक युगपुरुष, गुरु जिनको शरीर त्यागे सौ वर्ष से अधिक समय हो गया है, लेकिन उनका हिमालय-सा उत्तुंग व्यक्तित्व आज भी युगाकाश पर जाज्वल्यमान सूर्य की भाँति प्रकाशमान है। उनका जीवन दर्शन आज भी उतना ही उत्प्रेरक एवं प्रभावी है, जितना सौ वर्ष पूर्व था, बल्कि उससे भी अधिक प्रासंगिक बन गया है। तब राजनीतिक पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ी माँ भारती की दोन-दुर्बल संतानों को इस योद्धा संन्यासी स्वामी विवेकानंद की हुंकार ने अपनी कालजयी संस्कृति की गौरव गरिमा से परिचय कराया था। विश्वमंच पर भारतीय धर्म एवं संस्कृति के सार्वभौम संदेश की दिग्-दिगंतव्यापी गर्जना से विश्वमनीषा चमत्कृत हो उठी थी। भारत का युवा जिसके शीश में बहती गंगा की पावन धरा, चाणक्य जैसा मेधावी हो! जिसका ह्रदय मेवाड़ी महाराणा सा प्रताप हो! जिसके मणिपुर की अग्नि धर्मप्रेम से ओतप्रोत हो, वह शंभू राजे सा प्रचंड हो। जिसकी वाणी आगम निगम शास्त्र से पूर्ण हो वह दक्षिण भारत हो।
यह वर्णन है भारत के युवा का ! जिसकी शरीर की रचना ही पूर्ण भारत हैं। उत्तराखंड जिसका शीश हैं। उत्तर प्रदेश ,और राजधानी दिल है। जिसका उदर प्रदेश महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश। जिसकी भुजाए अन्य भारत के प्रदेश है। यह भौगोलिक वर्णन है, भारत के पुत्र का। पर आज की परिस्थिति कुछ विपरित दिखाई पड़ रही है। आज हम राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होते हुए भी बौद्धिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक रूप से गुलाम हैं। देश भौतिक-आर्थिक रूप से प्रगति कर रहा है। समृद्ध होते एक बड़े वर्ग की खुशहाली को देखकर इसका आभास होता है और उभरती आर्थिक शक्ति के रूप में इसका वैश्विक आकलन और यहाँ की प्रतिभाओं का वर्चस् भी हमें आश्वस्त करता है, लेकिन प्रगतिशील इंडिया और आम इनसान के गरीब भारत के बीच विषमता की जो खाई मौजूद है, उसकी अनदेखी करना मतलब देश की समग्र प्रगति की तस्वीर अधूरी होगी। बौद्धिक एवं सांस्कृतिक पराधीनता से मुक्त युवा शक्ति ही उस स्वप्न को साकार कर पाएगी। इसके लिए आध्यात्मिक उत्क्रांति की जरूरत है। स्वामी विवेकानंद जी का जीवन अपने प्रचंड प्रेरणा प्रवाह के साथ युवाओं को इस पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। हर युग में स्वामी जी के वाक्यों को मंत्रवत् ग्रहण करते हुए कितने ही युवा अपना जीवन व्यापक जनहित एवं सेवा में अर्पित करते रहे हैं। अनेक युवा उनके सम्मोहन में बंधकर आदर्शोन्मुखी जीवनधारा की ओर मुड़ रहे हैं।
सबसे पहले हमें स्वस्थ एवं बलिष्ठ शरीर की जरूरत है व बाकी चीजें बाद में आवश्यक हैं। तुम फुटबॉल खेलने से मजबूत हुए शरीर के साथ गीता को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ पाओगे। या अन्य दुर्बल और रुग्ण शरीरवाला अध्यात्म के मर्म को क्या समझ पाएगा? अतः युवाओं को लोहे की मांसपेशियों के की जरूरत है, और साथ ही ऐसी नस-नाड़ियों की, जो फौलाद की बनी हों। शरीर के साथ नस-नाड़ियों के फौलादीपन से तात्पर्य मनोबल, आत्मवल से है, जो चरित्र का बल है। बिना इंद्रियसंयम के भला यह कैसे संभव है? साथ ही चाहिए ध्येयनिष्ठा ऐसा महान संकल्प जिसे कोई भी बाधा रोक न सके। अपने लक्ष्यसंधान हेतु ब्रह्मांड के बड़े-से-बड़े रहस्य का भेदन करने के लिए तत्पर हो, चाहे इसके निमित्त सागर की गहराइयों में हो क्यों न उतरना पड़े और मृत्यु का सामना ही क्यों न करना पड़े। इसके लिए स्वधर्म के बोध पर हमे बल देना हैं। धर्म का सार दो शब्दों का वह है, पवित्रता एवं अच्छाई। सच्चाई एवं अच्छाई का रास्ता विश्व का सबसे कठिन मार्ग है। आश्चर्य नहीं कि कितने सारे लोग इसके रास्ते में ही फिसल जाते हैं, बहक भटक जाते हैं और कुछ मुट्ठीभर इसके पार चले जाते हैं। अपने उच्चतम ध्येय के प्रति मृत्युपर्यंत निष्ठा ही चरित्र बल एवं अजेय शक्ति को जन्म देती है। यह शक्ति निस्संदेह सत्य की होती है। यही सत्य संकटों में, विषमताओं में प्रतिकूलताओं में रक्षाकवच बनकर दैवी संरक्षण देता है। इसके समक्ष धन, ऐश्वर्य, सत्ता यहाँ तक की समस्त विद्याएँ एवं सिद्धियाँ तुच्छ हैं। चरित्र की शक्ति अजेय है, अपराजेय है, लेकिन यह एक दिन में विकसित नहीं होता। हजारों ठोकरों को खाते हुए इसका गठन करना होता है।
जब यह विकासित व्यक्ति में पूरे विश्व-ब्रह्मांड के विरोध का सामना करने की शक्ति-सामर्थ्य पूर्ण प्रवाह से आ जाती है। आज जरूरत ऐसे ही चरित्रनिष्ठ युवाओं की है। ऐसे मुट्ठी भर भी युवक-युवतियाँ मिल जाएँ तो मैं समूचे विश्व को हिला देते है। ऐसे पवित्र और निस्स्वार्थ युवा ही किसी राष्ट्र की सच्ची संपत्ति हैं। आदर्श के प्रति समर्पित आत्मबलिदानी युवाओं की आज जरूरत है, जो लक्ष्यहित-हेतु बड़े-से-बड़ा त्याग करने के लिए तैयार हों। ‘मेरा जीवन एवं ध्येय’ उद्बोधन में स्वामी विवेकानंद जी ने अपनी किशोरावस्था की ऊहापोह का मार्मिक चित्रण करते हुए बताया है, युवावस्था में मैं भी निर्णायक मोड़ पर था, जब मैं महीनों निर्णय नहीं कर पा रहा था कि सांसारिक जीवनयापन करूँ या गुरु के बताए मार्ग पर चलूँ। अंत में निर्णय गुरु के पक्ष में गया, जिसमें कि राष्ट्र एवं व्यापक विश्वमानव का हित निहित था। और मैंने क्षुद्र जीवन की अपेक्षा विराट ध्येय के लिए अर्पित जीवन के पक्ष में निर्णय लिया। निस्संदेह महान कार्य महान त्याग की माँग करते हैं। खून से लथपथ हृदय को हाथ में लेकर चलना पड़ता है, तब जाकर कहीं महान कार्य सिद्ध होते हैं। बिना त्याग के किसी बड़े कार्य की आशा नहीं की जा सकती।
एक सफल जीवन का मर्म स्पष्ट करते हुए स्वामी जी मार्गदर्शन करते हैं, जीवन में किसी एक आदर्श का होना अनिवार्य है। इसी आदर्श को जीवनलक्ष्य बना दें। इस पर विचार करें, इसका स्वप्न लें, उसे अपने रोम-रोम में समाहित कर लें। जीवन का हर पल इससे ओत-प्रोत रहे। हर उसके महान विचारों में निमग्न रहें व इस पावन ध्येय का सुमिरन करते रहें। इसी के गर्भ से महान कार्य प्रस्फुटित होंगे। हमें गहराई में उतरना होगा, तभी हम जीवन का कुछ सार तत्त्व पा सकेंगे व जग का कुछ भला कर पाएँगे।
इसके लिए हमें पहले स्वयं पर विश्वास करना होगा, फिर भगवान एवं दूसरों पर अच्छाई के मार्ग पर किसी से कोई उम्मीद न रखें। अपने विश्वास पर दृढ़ रहें, बाकी सब अपने आप ठीक होता जाएगा। तुम देखोगे कि कैसे विश्व तुम्हारा अनुकरण करता है, लेकिन शुरुआत विरोध से होगी। कठिन परीक्षाओं से गुजरते हुए तुम्हें अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करनी होगी। इसके उपरांत ही तुम्हारे नेक इरादों को स्वीकृति मिलेगी। स्वधर्म के साथ युगधर्म का बोध भी आवश्यक है। अपने कल्याण के साथ राष्ट्र, पीड़ित की सेवा जीवन का अभिन्न अंग बने। ऐसा धर्म किस काम का, जो भूखों का पेट न भर सके। शिवभावे जीव सेवा का आदर्श प्रस्तुत करना होगा।
“ऐसी विषम परिस्थिति में उम्मीद है उन राष्ट्र के युवाओं से जो कुछ भी नहीं हैं। जिनकी एकमात्र पूँजी है- भाव संवेदना तथा आदर्श प्रेम और जो त्याग व सेवा के पथ पर बढ़ने के लिए तत्पर हैं। ऐसे समर्पित युवा ही ईश्वरीय योजना का माध्यम बनेंगे। उन्हें वह सूझ व शक्ति मिलेगी कि वे कुछ सार्थक कार्य कर सकें। वे ही अपने उच्च चरित्र, सेवाभाव और विनय द्वारा देश, समाज एवं विश्व का कुछ भला कर सकेंगे। मेरा आशीर्वाद ऐसे युवाओं के साथ है। जब मेरा शरीर न रहेगा तो मेरी आत्मा उनके साथ काम करेगी।” स्वामी विवेकानंद द्वारा वर्षों पूर्व कहे गए ये शब्द आज भी एक आवाहन के रूप में महसूस किए जा सकते हैं।
जन्म और मृत्यु के बीच की अवस्था का नाम जीवन है। जीवन को समझने से पूर्व जन्म और मृत्यु के कारणों को समझना आवश्यक होता है। जिसके कारण हमारा जीव विभिन्न जीव स्तर पर भ्रमण करता है। जन्म और मृत्यु क्यों? कब ? कैसे और कहाँ होती है? उसका संचालन और नियन्त्रण कौन और कैसे करता है? सभी की जीवन शैली, प्रज्ञा, सोच, विवेक, भावना, संस्कार, प्राथमिकताएँ, उद्देश्य, आवश्यकताएँ आयुष्य और मृत्यु का कारण और एक-सा क्यों नहीं होता? मृत्यु के पश्चात् अच्छे से अच्छे चिकित्सक का प्रयास और जीवन दायिनी समझी जाने वाली दवाईयाँ क्यों प्रभावहीन हो जाती हैं? मृत्यु के पश्चात् शरीर के कलेवर को क्यों जलाया, दफनाया अथवा अन्य किसी विधि द्वारा समाप्त किया जाता है ?
प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं से प्रश्न करना चाहिए कि “मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया हूँ? मुझे मानव जन्म क्यों और कैसे मिला ? मानव जीवन में भी सभी को एक-जैसी परिस्थितियाँ और वातावरण क्यों नहीं मिलते? सभी की आयु एक जैसी क्यों नहीं होती? किसी की बुद्धि, मन, इन्द्रियों और शरीर का पूर्ण विकास होता है तो कुछ जन्म से ही अविकसित, असन्तुलित, विकलांग अथवा अस्वस्थ क्यों होते हैं? जन्म के साथ परिवार, समाज, धर्म और संस्कृति, परिस्थितियाँ, कार्यक्षेत्र तथा जीवन को प्रभावित करने वाले विभिन्न प्रसंगों का संयोग अथवा वियोग क्यों मिलता है? जीवन चलाना तो प्रायः सभी जीव जानते हैं। परन्तु जीवन को सार्थक कैसे बनाना, यह केवल मानव जीवन में ही संभव होता है। सृष्टि में मानव ही एक ऐसा प्राणी है जिसको पाँचों इन्द्रियों के साथ मन, मस्तिष्क, चेतना और विवेक की सर्वोच्य अवस्था प्राप्त होती है, जिसमें जीवन का सर्वाधिक विकास सम्भव होता है। मानव इसी कारण सम्यक् चिन्तन कर अपनी क्षमताओं को पहचान, उसके अनुरूप जीवन का लक्ष्य बना जीवन जी सकता है।
इन सब प्रश्नों के जवाब आपको बाहर नहीं मिल सकते है। केवल भीतर की खोज ही एकमात्र विकल्प शेष रहता है। जीतने खोज और रिसर्च बाहर होते है उतने ही हमारे शरीर के भीतर बदलाव बनते है। इसलिए, मानव जीवन अमूल्य है। वस्तु जितनी मूल्यवान होती है, उसका उपयोग उसके अनुरूप करने वाला ही सच्चा ज्ञानी होता है। चाय की जो प्याली पाँच रुपए में मिलती है, उसके लिए हज़ार रुपए देने वाला ना समझ होता है। वे सभी व्यक्ति बुद्धिमानों की श्रेणी में नहीं आते जो जानते हैं कि अमुक प्रवृत्ति उनके स्वास्थ्य अथवा जीवन के लिए हानिकारक है, फिर भी उनसे नहीं बचते और जो यह जानते है कि अमुक प्रवृत्तियों से शांति मिलती है, तनाव दूर होता है, निर्भयता आती है, स्वास्थ्य अच्छा रहता है, फिर भी उनकी उपेक्षा करते हैं। हमें चिन्तन करना होगा कि मानव जीवन के रूप में प्राप्त हम अपनी ऐसी अमूल्य क्षमताओं का अनावश्यक कार्यों में दुरुपयोग और अपव्यय तो नहीं कर रहे हैं? मानव योनि को व्यर्थ में ही बर्बाद तो नहीं कर रहे हैं, ताकि भविष्य में अपनी मूर्खता पर पछताना पड़े? जब तक अपनी क्षमताओं का सही उपयोग नहीं होगा, दुःख और रोग के कारणों को नहीं समझा जाएगा तब तक हमारा जीवन अमर्यादित, अनियन्त्रित लक्ष्य-हीन, स्वच्छन्द, असंयमित होने से स्थायी स्वास्थ्य प्राप्त नहीं हो सकता।
स्वास्थ्य के मूल सिद्धान्तों का अध्ययन करने से पूर्व तथा स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले विभिन्न तथ्यों की चर्चा करने से पूर्व स्वास्थ्य क्या होता हैं और रोग किन-किन कारणों से हो सकते हैं? उनको जानना और समझना आवश्यक है ताकि स्वास्थ्य के अनुरूप जीवन शैली अपनायी जा सके और रोग के कारणों से यथा सम्भव बचा जा सके। मृत्यु के लिए सौ सर्पों के काटने की आवश्यकता नहीं होती। एक सर्प का काटा व्यक्ति भी कभी-कभी मर सकता है। ठीक उसी प्रकार कभी-कभी बहुत छोटी लगने वाली हमारी गलती अथवा उपेक्षावृत्ति भी भविष्य में रोग का बहुत बड़ा कारण बन जीवन की प्रसन्नता आनन्द सदैव के लिए समाप्त कर देती है।
स्वस्थ का मतलब होता है रोग-मुक्त जीवन स्वस्थता तन, मन और आत्मोत्साह के समन्वय का नाम है।
जब शरीर, मन, इन्द्रियाँ और आत्मा ताल से ताल मिला कर सन्तुलन से कार्य करते हैं, तब ही अच्छा स्वास्थ्य कहलाता है।
शरीर की समस्त प्रणालियाँ एवं सभी अवयव स्वतन्त्रतापूर्वक अपना-अपना कार्य करें।
किसी के भी कार्य में किसी भी प्रकार का अवरोध, आलस्य अथवा निष्क्रियता न हो तथा उनको चलाने हेतु किसी बाह्य दवा अथवा उपकरणों की आवश्यकता न पड़े।
मन और पाँचों इन्द्रियाँ सशक्त हो।
स्मरण शक्ति अच्छी हो।
क्षमताओं का ज्ञान हो ।
विवेक जागृत हो।
लक्ष्य सही और विकासोन्मुख हो तथा जीवन में स्थायी आनन्द, शांति, प्रसन्नता बढ़ाने वाला हो।
तनाव, चिन्ता, निराशा, भय, अनैतिकता, हिंसा, झूठ, चोरी, व्याभिचार, तृष्णा आदि दुःख के कारणों को बढ़ाने वाला प्राथमिकताएँ सही हो एवं उसके अनुरूप संयमित, नियमित नियन्त्रित जीवनचर्या हो।
आवश्यकता की क्रियान्विति और अनावश्यक की उपेक्षा का स्वविवेक हो।
मन का चिन्तन और आचरण सम्यक् एवं संयमित हो। मन में बेचैनी न हो। इन्द्रियों की विषय विकारों में आसक्ति न हो।
समस्त प्रवृत्तियाँ सहज और स्वाभाविक हो, अस्वाभाविक न हो अर्थात् जिसका पाचन और श्वसन बराबर हो, नियमित हो, सन्तुलित हो।
अनुपयोगी अनावश्यक विजातीय तत्त्वों का शरीर से विसर्जन सही हो। भूख प्राकृतिक लगती हो ।
निद्रा स्वाभाविक आती हो। पसीना गन्ध-हीन हो। त्वचा मुलायम हो, बदन गठीला हो।
सीधी कमर, खिला हुआ चेहरा और आँखों में तेज हो। नाड़ी, मज्जा, अस्थि, प्रजनन, लसिका, रक्त परिभ्रमण आदि तंत्र शक्तिशाली हो तथा अपना कार्य पूर्ण क्षमता से करने में सक्षम हो जो निस्पृही तथा निरंहकारी हो।
जो आत्मविश्वासी, दृढ़ मनोवली, सहनशील, धैर्यवान, निर्भय, साहसी और जीवन के प्रति उत्साही हो।
जिसके सभी कार्य समय पर होते हो तथा जीवन नियमबद्ध हो । वास्तव में पूर्ण स्वस्थता के मापदण्ड तो यही हैं।
प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं के स्वास्थ्य की स्थिति पर अवश्य चिन्तन करना चाहिए। जो-जो बातें उसके स्वयं के नियन्त्रण में होती हैं, उसके अनुरूप अपनी जीवनशैली बनाने का प्रयास करना चाहिए। परन्तु आज स्वास्थ्य का परामर्श देते समय अथवा रोग की अवस्था में निदान करते समय प्रायः कोई भी चिकित्सक अथवा स्वास्थ्य विशेषज्ञ व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले विविध कारणों का समग्रता से विश्लेषण नहीं करते। सत्य की पूर्णतः अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती। वह तो व्यक्ति के स्वयं की अनुभूति का विषय होता है। जो भी देखा जाता है, सुना जाता है, कथन किया जाता है, यन्त्रों अथवा परीक्षणों से पता लगाया जाता है वह सत्याश ही होता है। चिकित्सकों द्वारा किया गया ऐसा निदान और परामर्श सदैव कैसे शत-प्रतिशत सत्य और पूर्ण हो सकता है, अपने आपको स्वस्थ रखने की कामना रखने वालों से सम्यक् चिन्तन की अपेक्षा रखता है। अतः स्वस्थ रहने हेतु व्यक्ति के स्वयं की सजगता, विवेक, बुद्धि स्वावलम्बन जीवन पद्धति तथा स्वयं की स्वयं द्वारा नियमित समीक्षा, पूर्ण स्वस्थता की प्राप्ति के लिए अनिवार्य होती है। पराधीन अथवा दूसरों पर आश्रित रहने वाला व्यक्ति स्थायी स्वास्थ्य को प्राप्त नहीं कर सकता है।
आज चिकित्सा करवाते समय उपचार की प्रासंगिकता के बारे में प्रायः रोगी तनिक भी चिन्तन-मनन नहीं करते। चिकित्सक से निदान की सत्यता के संबंध में अपनी शंकाओं और उपचार से पड़ने वाले दुष्प्रभावों के बारे में स्पष्टीकरण नहीं लेते। रोग का मूल कारण जाने बिना उपचार प्रारम्भ करवा देते हैं। आज यह दवा, कल दूसरी, परसों तीसरी दवा। आज यह चिकित्सक, कल दूसरा चिकित्सक, परसों अन्य चिकित्सक कभी यह अस्पताल, कभी दूसरा अस्पताल तो कभी अन्य अस्पताल आज एक चिकित्सा पद्धति, चन्द रोज बाद दूसरी पद्धति और अगर रोग मुक्त न हो तो न जाने कितनी कितनी चिकित्सा पद्धतियाँ बदलते संकोच नहीं करते। स्वयं की असजगता, अविवेक और सही चिन्तन न होने से हमारी सोच लुभावने विज्ञापनों, डॉक्टरों के पास पड़ने वाली भीड़ से प्रभावित होती है। हम असहाय, हताश वन चिकित्सकों की प्रयोगशाला बनते तनिक भी संकोच नहीं करते। आज अधिकांश असाध्य एवं संक्रामक रोगों का एक मुख्य कारण, प्रारम्भिक अवस्था में गलत उपचार से पड़ने वाले दुष्प्रभाव होते हैं, जिसकी तरफ शायद ही किसी का ध्यान जा रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा चलाये जा रहे रोग नियन्त्रक कार्यक्रम से पड़ने वाले दुष्प्रभाव की निष्पक्ष समीक्षा आवश्यक है।
वैश्विक महामारी के बाद दवा इंजेक्शन और वैक्सीन की जबरदस्ती आने वाले दुष्प्रभाव को आमंत्रण दे रही है। जबरदस्ती टिका कारण का विरोध होना ही चाहिए। उनसे पड़ने वाले दुष्प्रभावों की क्षति पूर्ति के कारण लोग अकारण बीमार पड़ रहे है। उपचार हेतु सही दृष्टिकोण आवश्यक है। अन्यथा हमे जीवन जीने के लिए फार्मेसी कंपनी यो पर आधारित रहना होगा। यह किसी षडयंत्र से कम तो नहीं है। खुद का स्वस्थ खुद के हाथों में है।
क्या हमारा श्वास अन्य व्यक्ति ले सकता है? क्या हमारा भोजन अन्य कोई पचा सकता है? क्या दूसरों के खाने से और पानी पीने से हमारी भूख अथवा प्यास शान्त हो सकती है? दूसरों की आँखों से हम नहीं देख सकते, दूसरों के कानों से हम नहीं सुन सकते, दूसरों के पैरों से हम नहीं चल सकते अपने स्वयं की गतिविधियों के संचालन, नियन्त्रण आदि से जितने हम स्वयं परिचित होते हैं, उतना प्राय: दूसरा व्यक्ति परिचित हो नहीं सकता। हम क्यों तनावग्रस्त, चिन्तित, निराश भयभीत हैं? उनका सही विश्लेषण अन्य व्यक्ति अथवा यंत्र नहीं कर सकता। हम स्वयं अपने खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार और गलत जीवनचर्या के अप्राकृतिक तरीकों से रोगों को आमन्त्रित करते हैं, परन्तु दवा और डॉक्टर से पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्ति की कामना रखते हैं। कितना भ्रम है? डॉक्टर एवं दवा मात्र सहयोगी की भूमिका निभा सकते हैं, परन्तु जब तक हमारा शरीर उस सहयोग को स्वीकार नहीं करेगा, तब तक अच्छे से अच्छी दवा तथा बड़े से बड़ा चिकित्सक हमें पूर्ण स्वस्थ नहीं बना सकता। मात्र आंशिक राहत पहुँचा सकता है। स्वास्थ्य को बनाए रखने में स्वयं की सजगता, सम्यक् चिन्तन और सम्यक् पुरुषार्थ की सर्वाधिक आवश्यकता होती है। मानसिक असन्तुलन अथवा रोग का आभास होने की स्थिति में रोगी को पिछले 48 घंटों की अपनी गतिविधियों की समीक्षा करनी चाहिए। हमें स्वयं ही अपनी गलती का पता चल जायेगा, जिसके कारण रोग का प्रारम्भ हुआ है। रोग की प्रारम्भिक अवस्था में हमें जो संकेत मिलते हैं, उनकी समीक्षा करें तथा भोजन, पानी, हवा के ग्रहण करने में होने वाली भूलों को सुधारने हेतु आवश्यक संशोधन करें, कारण मालूम पड़ते ही समाधान ढूंढना अथवा उपचार सरल हो जाएगा। स्वस्थ रहने की कामना रखने वालों को प्रतिदिन अपने स्वास्थ्य की समीक्षा करनी चाहिए।
मानव शरीर की तुलना दुनिया के सर्वश्रेष्ठ स्वचलित यंत्रों से की जा सकती है। स्वचालित यंत्रों के साथ जितनी कम छेड़-छाड़ की जाए उतना अच्छा होता है। मनुष्य के अलावा अधिकांश चेतनाशील प्राणी में सहज जीवन जीने के कारण अपेक्षाकृत कम रोगग्रस्त होते हैं। उन्हें अपने शरीर का विशेष ज्ञान भी नहीं होता। रोजाना दांतुन न करने के बावजूद उनके दाँत मनुष्य की भांति जल्दी खराब नहीं होते। उन्हें देखने के लिए चश्में की आवश्यकता नहीं होती। नवजात बालक भी सहज जीवन जीता है। उसकी अधिकांश शारीरिक बाह्य क्रियाएँ स्वाभाविक और प्राकृतिक होती है। उससे भी हम स्वस्थ रहने की काफी बाते सीख सकते हैं। उसमें किसी के प्रति न राग होता है और न द्वेष, इसी कारण बच्चा सभी को प्यारा लगता है। वह जब श्वास लेता है तो उसका पेट पूरा फूलता है अर्थात् वह गहरा और पूरा श्वास होता है। यदि हम बच्चे की भाँति सदैव गहरा और पूर्ण श्वास लेना प्रारम्भ कर दें तो अनेकों स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का स्वतः समाधान हो जायेगा। बच्चा जब सोता है तो सिर्फ सोता ही है। निश्चिन्त होकर सोता है, परन्तु कुछ लोग निद्रा में भी कुछ न कुछ चिन्तन करते रहते हैं। बच्चा कहीं नहीं जा सकता। चल-फिर नहीं सकता। फिर उसका पाचन कैसे होता है? उसका विकास इतना जल्दी क्यों और कैसे होता है? आखिर वह क्या व्यायाम करता है? हम प्राय: देखते है बच्चा पैरों को चलाता है, उसका पाचन और मल-मूत्र विसर्जन तंत्र ठीक से कार्य करता है। यदि हम भी नियमित रूप से ऐसा व्यायाम करना आरम्भ कर दें तो हम पाचन सम्बन्धी काफी रोगों से बच जाएँगे। पैरों में ऊर्जा का प्रवाह बराबर होने से घुटनों और पैरों सम्बन्धी अन्य रोगों की सम्भावना नहीं रहेगी।
बच्चा झूठ नहीं बोलता यदि हम भी सत्य का आचरण करें तो जीवन में निर्भयता आ सकती है। अनैतिकता, मायावृति, छल कपट, अहं स्वतः समाप्त हो जाता है, जो मानसिक रोगों का मुख्य कारण है। इन सभी बातों की शिक्षा बच्चे को कहाँ से मिलती है? यदि हम भी प्रकृति के साथ सहज जीवन जीना प्रारम्भ कर दें और शरीर के साथ, अनावश्यक छेड़छाड़ न करें तो हमारा स्वास्थ्य हमारे अनुकूल होगा तथा किसी कारणवश रोग होने की अवस्था में भी हम पुनः जल्दी स्वस्थ हो सकेंगे। हम स्वयं अपनी प्राथमिकताओं का चयन करें-“स्वस्थ बने या रोगी” स्वस्थता हेतु जीवन में हल्कापन अनिवार्य हैं। सरलता, लघुता, हल्कापन स्वास्थ्य का प्रथम लक्षण है। अस्वस्थता से पूर्व हमें शरीर में भारीपन का अनुभव होने लगता है। बेचैनी लगने लगती है। जैसे ही शरीर हल्का अनुभव करने लगता है, हम स्वस्थता का अनुभव करने लगते हैं। जब हमारे संस्कारों और वृत्तियों में निष्कपटता आने लगती हैं, हम अपने आपको निर्भय, तनाव मुक्त और हल्का अनुभव करने लगते हैं। भारीपन क्यों, कब और कैसे आता है? उसके समझे बिना तथा उन कारणों से बचे बिना हल्केपन की प्राप्ति कठिन होती है।
हम जो कार्य करते हैं उसका उतना भार नहीं होता, जितना भार होता है उस कार्य की स्मृति अथवा कल्पना का वर्तमान का क्षण बहुत विचित्र होता है। अतः यदि भूत की स्मृति और भविष्य की कल्पना न की जाये तो मानसिक असंतुलन के दोषों से सहज ही बचा जा सकता है। कहा भी है-“भूत सपना है, भविष्य कल्पना है, और वर्तमान अपना है।” दुःख की स्मृति और कल्पना का अनावश्यक चिंतन भी मानसिक भारीपन का प्रमुख कारण होता है। अतः यदि वर्तमान में सहज जीना सीख लें तो हमारी अनेक समस्याओं का समाधान सहज संभव हो जाता है।
एक ही मिट्टी, पानी, हवा, धूप और परिश्रम के बावजूद पास-पास विकसित होने वाले गन्ने में इतना मिठास और नीम में इतना कड़वापन क्यों ? कारण स्पष्ट है, हम अपनी क्षमताओं से पूर्णतया परिचित नहीं है। जिसने उसको समझा, सदुपयोग किया उसने हमारे सामने सम्यक् चिन्तन करने की प्रेरणा अवश्य प्रस्तुत की। आधुनिक स्वास्थ्य वैज्ञानिक शरीर के सूक्ष्मतम भाग का यंत्रों और रासायनिक परीक्षणों द्वारा निरीक्षण और परीक्षण कर शरीर की गतिविधियों को समझने और समझाने का प्रयास कर रहे हैं, परन्तु आत्मा अरूपी है, निराकारी है, जिसको देखना सम्भव नहीं। आत्मा में अनन्त शक्तियाँ हैं, जो उसकी शुद्धावस्था में प्रकट होती हैं। जब आत्मा पूर्ण शुद्ध हो जाती है तो उसमें सृष्टि की समस्त प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष घटनाएँ दर्पण की भाँति प्रतिबिम्बित होने लगती हैं। आत्मा परमात्मा बन जाती है। ऐसी अवस्था को वीतराग अवस्था अथवा केवल ज्ञान की स्थिति कहते हैं। जहाँ सारा अज्ञान दूर हो जाता है, केवल ज्ञान ही शेष रहता है। सम्पूर्ण आत्मानुभूति की अवस्था में आज की भौतिक जानकारी तो होती ही है, परन्तु उससे भी आगे ब्रह्माण्ड के भूत, भविष्य एवं वर्तमान की सूक्ष्मतम एवं सम्पूर्ण जानकारी भी होती है। वे ही वास्तव में सच्चे एवं बड़े वैज्ञानिक होते हैं, और उनका कथन ही वैज्ञानिक होता है, वे सत्य के प्रेरणा स्रोत होते हैं। उनका उपदेश न केवल भौतिक उपलब्धियों तक ही सीमित होता है, अपितु जीवन के परम लक्ष्य तक का मार्ग दर्शन करता है। उसमें नर से नारायण, आत्मा को परमात्मा बनाने की क्षमता होती है। मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य, शांति और समाधि के लिए ऐसे महापुरुषों के निर्देशानुसार विवेक पूर्ण जीवनचर्या आवश्यक होती है। उसके विपरीत आचरण कर शरीर को स्वस्थ रखने की कल्पना शारीरिक रोगों से भले ही क्षणिक आंशिक राहत दिला दें, अन्त हानिकारक होती है, भविष्य के लिए कष्टदायक हो सकती है।
प्रश्न खड़ा होता है कि बिना शरीर विज्ञान की विशेष अथवा पूर्ण जानकारी के क्या स्वस्थ नहीं रहा जा सकता? क्या मात्र साधारण, सरल परन्तु आवश्यक जानकारी, मूल सैद्धान्तिक नियमों का पालन कर हम स्वस्थ जीवन नहीं जी सकते? क्या अनुभवी चिकित्सक एवं दूसरों के रोगों का उपचार करने वाले स्वास्थ्य विशेषज्ञ शरीर की विशेष जानकारी के बावजूद बीमार नहीं होते? जिस प्रकार बिजली का बटन चालू करते ही बल्ब से हमें प्रकाश मिलने लगता है। बटन चालू करने की प्रक्रिया बहुत ही सरल और सहज होती है, जिसे जनसाधारण आसानी से सीख सकता है। बटन चालू करने से पूर्व बिजली घर से बिजली के उपयोग करने की स्वीकृति नहीं लेनी पड़ती है। बिजली का के तारों को यह जानने की आवश्यकता नहीं होती कि बिजली का आविष्कार किसने किया? उसको यह जानने की भी आवश्यकता नहीं होती कि बिजली का प्रवाह कैसे होता है ? बटन चालू करने की विधि के साथ बिजली के उपकरण का प्लग से सम्बन्ध जोड़ना, बिजली के तारों को न छूना, फ्यूज बदलने जैसी सामान्य जानकारी रखने वाला बिजली का अधिकाधिक उपयोग कर सकता है। ठीक उसी प्रकार शारीरिक अवयवों की सम्पूर्ण जानकारी के आवश्यक मूलभूत चन्द सिद्धान्तों और नियमों जैसे- जीवन के लिए आवश्यक भोजन, पानी, हवा, धूप का प्रयोग कब, कहाँ और कैसे करना, प्रकृति के अनुकूल दिनचर्या और रात्रिचर्या, व्यायाम, आराम, स्वाध्याय, ध्यान, मौन की साधना कब और कैसे करना तथा सन्तुलन कैसे बनाये रखना और सन्तुलन बिगाड़ने वाली बातों से कैसे बचना आदि का पालन कर कोई भी स्वस्थ जीवन जी सकेता है? सारांश यह है कि जनसाधारण को मात्र इतनी जानकारी हो जाए कि शरीर और मन का असन्तुलन क्यों और कैसे बिगड़ता है? शरीर की प्रतिकारात्मक शक्ति क्यों और कैसे कम होती है ? उससे कैसे बचा जा सकता है? शरीर की प्रतिकारात्मक शक्ति को कैसे बढ़ाया जा सकता है? शरीर, मन और आत्मा के विकारों को कैसे दूर किया जा सकता है? मात्र इतनी जानकारी रखने वाला और उसके अनुरूप आचरण करने वाला आसानी से स्वस्थ जीवन जी सकता है।
हमारा स्वास्थ हमारे हाथों में ही है। इसलिए कोई भी रोग बड़ा नहीं है। आपका संकल्प बड़ा हैं। आपकी संकल्प शक्ति आपको नया उत्साह प्रदान करेगी। योग्य दिनचर्या के साथ आपको जीना है। विचारो में पवित्रता, आहार में सात्विकता महत्व पूर्ण है। सब से मूल बात निरोगी जीवन, रोग मुक्त जीवन, दवा मुक्त जीवन जीना हमारा मूलभूत अधिकार है।
आंवला मनुष्य जाति को मिला हुआ कल्पवृक्ष है। आवला का यह बहुगुणी वृक्ष परमेश्वर ने मानव को स्वस्थ रखने के लिए निर्माण किया है। और कुष्मांड (पेठा) अनेक औषधि गुणो से युक्त है। भारतीय संस्कृती में माँ प्रकृती को धन्यवाद करने की प्रथा है, जिसमे वह त्योहार रूपो में मनाया जाता है। जैसा की आप जानते है की, भारतीय संस्कृती मे वृक्षो का अनन्य साधारण महत्व रहा है। सदियों से वृक्षों की पुजा की जाती। क्योकी, निर्जिव वस्तुओं से अन्न (भोजन) कैसे तैयार किया जाता? यह रहस्य केवल वृक्षो को ही पता है| हम बाहर के विज्ञान को कितना ही जानते है, पर कुछ बातो पर अभी भी पड़दा है। वह रहस्य है। साधारण मिटट्टी, कुछ खाद, सुर्यप्रकाश इन सब चिजे मिलाकर वनस्पती अपना उत्पाद बनाते है। जैसे आम, चावल, गेहूं जैसे अप्रतिम पदार्थ तैयार करती है। इस गूढ़ रहस्य का विज्ञान वृक्ष, वनस्पती और माँ प्रकृती ही जाने। वनस्पती सृष्टी ही प्रथम अस्तित्व की धरोहर है। हमारे पूर्वज पीढ़ी का पुराना अस्तित्व है। पर उन सबकी जड़े एक ही वंशवृक्ष तक पहुंचती है। इस तथ्य को हमे समझना है। इसी कारण से वृक्षों की पूजा अर्चना कि जाती है। हमारी धरोहर को धन्यवाद करने का वह सुअवसर होता है। उच्च पूजा भावो को अर्पण किया जाता है।
बरगद के वृक्ष का इस में प्रथम स्थान है। क्योकी बरगद, पिपल यह ऐसे पेड़ों की श्रृंखला है, जिनके पत्र की एक धारधार भुजा को यदि जमिन मे रखा जाए तो परिणाम स्वरुप बड़ा वृक्ष बनकर सामने आता है। इन वृक्षों के लिए किसी तरह की बीज की आवश्यकता नहीं होती है। इन वृक्षो मे खत्म नही होने वाले कटिन्युएशन तत्व रहता है। सस्टेन और कटिन्युएशन यह शब्द कोविड वैश्विक माहामारी के दरम्यान बहुत प्रचलन में थे। अपरिचित परिस्थितीयो मे संरक्षित रहना और अपना उत्पादन क्षमता की रक्षा करना इन्ही दो वृक्षों की पहचान है। यह वृक्ष जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, वैसी ही इन की जड़े बहुत सशक्त बनती जाती है। मानव भी इन्ही वृक्षों की भांति अपने जड़ों को फैलाता चला जा रहा है। स्त्री, पुरुष का यह भेद सब वंशवृक्ष काही तो परिणाम है। इस लिए बरगद और पीपल के वृक्षो की प्रदक्षिणा करने की प्रथा है। स्वयं ही खुद को गोल-गोल प्रदक्षिणा लगाने से भ्रुमध्य की ग्रंथी पर साकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इन ग्रंथी को चालना मिलने से और वृक्ष को प्रदक्षिणा लगाने से, “आरोग्यम धन संपदा” की ओर हम आकर्षित होने लगते है। स्त्री आरोग्य के लिए हार्मोन्स महत्वपूर्ण होते हैं। इसी लिए वृक्षों की वैज्ञानिक पूजा और धन्यवाद के भाव को अर्पण करने से स्त्री जाति को आरोग्यं में लाभ मिलता है।इस लिए वृक्ष पूजन मे स्त्री जाति को प्रथम स्थान प्राप्त है।
इनके बाद पुजा का दिव्य स्थान प्राप्त होता है, और हम आव्हान करते आवला वृक्ष का! आवले का यह वृक्ष ‘बरगद वृक्ष की पंक्तीयो में तो बैठ सकता है। पर औषधी गुणो से यह परिपूर्ण है। आवला यह औषधियो मे रसायन की तरह सेवन किया जाता है। आवला के सेवन से मनुष्य में तारुण्य, उत्साह, ऊर्जा का संचार बढ़ता है। आरोग्य की प्राप्ती होती है। वृक्ष पर सुखा हुआ आवला के सेवन करने से पाचनशक्ती का विकास होता है। सुखा आंवला बहुगुणी होता है। पूर्ण तरीके से पका हुआ सुखा आंवला से चूर्ण और च्यवनप्राश बनता है। जिसकी तुलना किसी औषधी से नहीं कि जा सकती है ! आंवला वृक्ष के आसपास का परिसर हमारी चेतासंस्था को चालना देता है, और विकास करता है। इन वृक्षों में भगवान विष्णु का वास होता है। इसी लिए आंवला वृक्ष की छाँव में भोजन का अपना महत्व है। इसी लिए यह हमारी परंपरा का हिस्सा है।
कोई भी वृक्ष और वनस्पति जिवित ही है। उसे कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। आयु में बड़े वृक्ष केवल जंगल की शोभा नहीं है, अपितु वह हमारे घरो के निकट रहने चाहिए। बड़ी-बड़ी सोसायटी बिल्डिंगमे वृक्षोको स्थान ही नहीं रहा है। इन सब के परिणाम global warming, और वैश्विक माहामारी के रुप में सामने आ रहे है। जैसे मां और पिताजी को यदी कोई दुःख होने पर पुत्र को कभी यश नहीं मिलता। उसी प्रकार अगिनत वृक्षों को नष्ट करने पर हमे कैसे पूर्ण स्वास्थ मिल सकता है? मानव जाति पर उसी वृक्षवल्ली का आर्शिवाद है। इन सबकी आपको याद दिलाने की कोशिश है, ताकि भविष्य के प्रदुषण से बचा जा सके। इसी लिए इन वृक्षों की पूजा करना कोई गलत नहीं है। इसके पिछे वैज्ञानिक कारण मौजूद है। आंवला का यह सीजन साल अपनी दस्तक देता है। यह कुछ ही माह तक उपलब्ध रहता है। इन्ही सीजन के माह मे आंवले से अनेक पदार्थ तयार किये जाते है। आंवला का उपयोग बारह माह होता है। इसी लिए इसे अधिक महत्व है। इसी लिए फार्मसी कंपनी का पसंदीदा फल आंवला है।
आंवला का फल आत्म संतुलन का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत करता है। आंवला वृक्षो की पूजा करने के पश्चातही औषधी बनाने की प्रक्रिया का आरंभ किया जाता है। आंवला से युक्त च्ववनप्राश आयुर्वेद में एक चमत्कार ही है, यह अतुल्य है। च्ववनप्राश का सेवन हर एक व्यक्ती कर सकता है। च्यवनप्राश की सेवन विधि शास्त्र के अनुसार बताई हुई योग्य है। आंवला को एक किसी वस्त्र में एकत्रित कर सभी वनस्पतीयो के अर्क में आंवला को पकाकर उसे गाढा किया जाता है। यह गाढ़ा किया हुए द्रावण को शुद्ध घी के साथ एकत्रित कर संस्कारित किया जाता है। उसी मे खांड, मिश्री, गुड़ मिलाकर बाद मे पकाया जाता है, बनकर तैयार होता च्यवनप्राश।
कुष्मांड अर्थात (पेठा) । पेठा मतलब उत्तर प्रदेश के आग्रा शहर की याद दिलाता है। पेठा वृष्य गुणधर्म का है। यह पुरुशक्ती शुक्रशक्ती को फायदा पहुंचाता है। पेठा में शीतलता का गुणधर्म मौजूद होता है। इस फल की सब्जी भी बनाई जाती है। पेठा मेधा शक्ति विकास के लिए उत्तम टॉनिक है। च्यवनप्राश से आंवला को सहेज कर रखा जाता है। उसी प्रकार धात्री रसायन जैसा रसायन बनाकर पेठा का साल भर आनंद लिया जा सकता है। यह दोनों भी फल गुणधर्म में एक दूसरे के पूरक है। आंवला यह फल है और पेठा सब्जी है। पर आमतौर पर आंवला फल समझकर कभी कभी खाया जाता तो, पेठा को सब्जी भी काम प्रचलन है। दिव्य गुणो से परिपूर्ण पेठा अदभुत है। इस लिए, भारतीय संस्कृती मे कुष्मांड नवमी मनायी जाती है। कुष्मांडा यह मां नवदुर्गा का एक रूप भी है। इसलिए भारतीय संस्कृती अपने विशाल हदय का परिचय देती है।
भारतीय संस्कृतीमे कार्तिक माह का अपना महत्व है। आधुनिक संशोधन के अनुसार भी इस माह मे उत्पादित आंवला में ॲस्कार्बिक ॲसिड का सर्वाधिक प्रमाण होता है। यह सिद्ध हुआ है। आंवला की यह विशेषता है ,की इसे अगर पकाया जाए तो भी इसके भीतर विटामिन “c” नष्ट नहीं होता।
आयुर्वेद ग्रंथ राजनिघण्टु मे वर्णित आंवला का महत्व,
आंवला का स्वाद तुरट, कड़वा, मधुर होता है। वह गुणधर्म से शीतल और पाचन को मदद करता है। पीत्तदोष कम करता है। रसायन का अर्थ होता है, रस रक्तादी धातु ओ को संपन्न करना उन्हें शक्ती देना | थकावट, मलावष्टभ, पेट मे वायु का प्रकोप जैसे रोगों मे आंवला का उपयोग श्रेष्ठ होता है। इन्ही सब गुणों की वजह से आंवला को अमृत की उपमा दि गई है। त्वचा आरोग्य के लिए यह उत्तम है। यह कान्ति को सुधारता है। बालो को उत्तम पोषण प्रदान करता है। आँखो के लिए यह उत्तम औषधी है। आमला रसायन तारुण्य को स्थिरता प्रदान कराता है। यह अनेकों रसायनों में उपयोगी होता है। च्यवनप्राश, ब्राह्यरसायन, आमलकावलेह, धात्री रसायन इन सब रसायनो मे मुख्य घटक आंवला होता है।
एक अकेला आंवला ही त्रिदोषो पर गुणकारी है। इसका वर्णन सुश्रुताचार्य ने किया है,
आंवले का स्वाद कैशैला, कड़वा रहने से यह वात रोगों का शमन करता है। मधुर और शितल रहने के कारण यह पित्त का शमन करता है। आंवला का स्वाद तुरट रहने से यह कफ रोगो का शमन करने में सक्षम होता है। त्रिदोषो का संतुलन आंवला करता है। आंवला का मुख्य लाभ पीत्तशमन करना होता है। आंवला का उपयोग खाने के लिए और, बाहरी लेप लगाने के लिए होता है। आंवला रस आम्लपित्त पर प्रभावकारी है। आवला रस 2 स्पुन लेकर इसमे 1 gm जिरा, और कुछ मात्रा में मिश्री मिलाकर 15 दिन लेने से एसिडिटी पर उत्तम औषध है।
पित्त बढ़ने से कभी चक्कर आने लगते है ,तो आवला रस 2- स्पुन और मिश्री मिलाने से उपयोग होता है। आंवला, सौठ, लिंबू का रस इन से अचार बनाया जाता है। यह पाचनसंस्था के लिए उपयोगी है। आंवला, सौंठ और जिरा पावडर मिलाकर उसे सुखाकर सुपरी बनाई जाती है। भोजन के बाद यह उत्तम है। नशा छुड़ाने में मदद करती हैं।
पेठा को संस्कृत में कुष्मांड कहा जाता है। जिसके बीज में उष्णता ही नहीं होती है। पेठा यह शीतल गुणो का अधिकारी होता है। आयुर्वेद में इसका गुणगान किया हुआ है,
कुष्माण्डं बृंहणं वृष्यं गुरु पित्तास्रवातनुत् । बालं पित्तापहं शीतं मध्यमं
शरिर मे धातुओं का पोषण करता है। विशेषता शुक्रधातु के पोषण में यह लाभकारी है।यह पित्त नाशक,रक्तदोष को दूर करता है। वात संतुलन करता है। ताजा फ्रेश तैयार हुआ पेठा बहुत शीतल अर्थात् ठंडा होता है। यह पित्तशमन करता है। कुछ दिनों में यह पकने के बाद प्राकृत कफ का पोषण करता है । साधारणता: यह थंड प्रकृती और स्वाद में मधुर, क्षारयुक्त रहता है। यह अग्नि को प्रदिप्त करता है। मुत्राशय की शुद्धी करता है। विशेषता यह मानसिक रोगो में लाभप्रद है।
पेठा बस्तीशुद्धकर, शीत वीर्य का रहने के कारण मुत्राशय की शुध्दी करता है। एसिडिटी होने पर सुबह पेठे का 4-5 स्पुन रस, मिश्री के साथ लेने से लाभ होता है। शरिर मे उष्णता बढ़ने के कारण शरिर में नासिका से रक्त बहता है। इस पर पेठा लाभकारी है।
उत्तर भारत में आगारा की मिठाई पेठा नाम से प्रसिद्ध है। गुलाब अर्क के साथ बनाई गई पेठा मिठाई स्वाद में अप्रतिम होती है। दक्षिण भारत में सांबर बनाते समय पेठा का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार इन्ही सब औषधि का उपयोग कर स्वास्थ जीवन की नीव रखी जा सकती है। प्रकृति संवर्धन का यह माध्यम हैं। प्रकृति का यह दिव्य उपहार है। हमे हमारी परंपरा पर गर्व करना होगा। सनातन ही श्रेष्ठ है।
ज्ञान कर्म और उपासना, व्यक्ति इन तीनों से कभी भी खाली नहीं रहता। इन तीनों को शुद्ध बनाएं। तभी आपका इस जीवन का भविष्य तथा अगले जन्मों का भविष्य सुखदायक होगा। कर्मों का फल बहुत जटिल विषय है। बड़े-बड़े विद्वान इस विषय को ठीक से समझ नहीं पाते। ऋषियों ने वेदों का गहराई से अध्ययन किया, चिंतन मनन किया, और कर्मफल के विषय में कुछ बातें सबके सामने प्रस्तुत की।”उनके अनुसार यह सार है, कि जो भी व्यक्ति, जो भी कर्म करता है, उसको उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। फल भोगने में कोई भी छुटकारा नहीं है। जैसे बिजली की तार छूने से करंट लगता है। इसमें एक बार भी माफी नहीं होती। ऐसे ही कर्म फल में, ईश्वर के कानून में, कहीं भी कोई भी माफी नहीं होती।थोड़े कर्म का थोड़ा फल। अधिक कर्म का अधिक फल। अच्छे कर्म का अच्छा फल। बुरे कर्म का बुरा फल, मिलता अवश्य है। अपने सही समय पर मिलता है। किस कर्म का फल कब कहां क्या और कैसे देना, इसका निर्धारण ईश्वर करता है। क्योंकि वही इस विषय को ठीक प्रकार से जानता है, और कर्मफल देने में समर्थ भी है।
जैसा कि ऊपर कहा है, उसके अनुसार ईश्वर की कर्म फल व्यवस्था को समझें। अपने ज्ञान कर्म उपासना को ठीक करें। यदि आपका ज्ञान ठीक है, तो आपका कर्म भी ठीक होगा। और उपासना भी ठीक होगी। यदि ज्ञान में गड़बड़ है, तो कर्म और उपासना में भी गड़बड़ रहेगी। आपका ज्ञान कर्म उपासना ठीक है या नहीं, इसकी कसौटी ईश्वर का संविधान वेद है। इसलिए वेदों को पढ़ना आवश्यक है।वहीं से पता चलेगा, कि आप का ज्ञान कर्म उपासना ठीक चल रहा है, या नहीं। क्योंकि इसी पर आपका भविष्य टिका है।
अध्यात्म एक ऐसा विज्ञान है, जिसमें सुनिश्चित साधनात्मक विधान को अपनाते हुए दो प्रयोजन सिद्ध किए जाते हैं। एक है-अंतराल की प्रसुप्त विभूतियों का जागरण और दूसरा है-अनंत ब्रह्मांड में व्याप्त ब्राह्मी चेतना का अनुग्रह अवतरण। इसको संभव करने के लिए साधक को दो कदम बढ़ाने होते हैं, जिनके नाम हैं-तप और योग । तप में जहाँ चित्त का परिशोधन होता है तो वहीं योग में चेतना का परिष्कार। परिशोधन अर्थात संचित कर्म का, कुसंस्कारों का दुष्कर्मों के प्रारब्ध संचय का निराकरण। वहीं परिष्कार का अर्थ है- श्रेष्ठता का जागरण, अभिवर्द्धन इस तरह तपश्चर्या एवं योग साधना के दो चरणों को अपनाते हुए अध्यात्म का प्रयोजन पूरा किया जाता है। तप को शरीर तक सीमित समझना नादानी होगी। इसका दायरा शरीर से आगे बढ़कर प्राण एवं मन तक विस्तृत है अर्थात पूरा अस्तित्व इसके कार्यक्षेत्र में आता है। तप की यह प्रक्रिया संयम, परिशोधन एवं जागरण के तीन चरणों में पूरी होती है। संयम में दैनिक जीवन की ऊर्जा के क्षरण को रोकते हुए उसे संचित किया जाता है, और इसका नियोजन महत्त्वपूर्ण एवं श्रेष्ठ कार्यों में किया जाता है। इनको 4 स्वरूपों में देखेंगे इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम।
इंद्रिय संयम में पाँच ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों को परिष्कृत एवं सुनियोजित किया जाता है, जिससे तन-मन की सामर्थ्य भंडार के अपव्यय को रोककर प्रचंड ऊर्जा का संचय किया जा सके। और इसका नियोजन आत्मबल संवर्द्धन के उच्चस्तरीय प्रयोजन के निमित्त किया जा सके। इंद्रिय संयम की परिणति अर्थ संयम के रूप में होती है। धन एक तरह की शक्ति है, जो श्रम, समय एवं मनोयोग की सूक्ष्म विभूतियों का स्थूल रूप है। इसके संयम के साथ इन सूक्ष्म विभूतियों का उच्चस्तरीय उपयोग संभव होता है। धन को जीवनोपयोगी समाजोपयोगी शक्ति माना जाना चाहिए। और एक-एक पैसे का मात्र योग्य कार्यों में उपयोग होना चाहिए। समय संयम-ईश्वर द्वारा मनुष्य को सौंपी गई समयरूपी विभूति के सदुपयोग का विधान है, जिसके आधार पर विभिन्न प्रकार की भौतिक एवं आत्मिक विभूतियाँ सफलताएँ- संपदाएँ अर्जित कर सकना संभव होता है। इसके सही नियोजन के अभाव में समूची जीवन-ऊर्जा इधर-उधर बिखरकर नष्ट हो जाती है। विचार संयम-मन की अपरिमित ऊर्जा के संयम एवं नियोजन का विज्ञान है, जिसके अभाव में इसकी अद्भुत क्षमता बिखरकर यों ही नष्ट होती रहती है। अनैतिक विचार न केवल मन को बहुत खोखला बनाते हैं, बल्कि ऐसी मनोग्रंथियों को जन्म देते हैं, जिनसे आत्मविकास का मार्ग सदा-सदा के लिए अवरुद्ध हो जाए। विचारशक्ति को भी उच्चस्तरीय संपदा माना जाए और चिंतन की एक-एक लहर को रचनात्मक दिशाधारा में प्रवाहित करने का जी-तोड़ परिश्रम किया जाए।
संयम के बाद तप के अंतर्गत परिशोधन का दूसरा महत्त्वपूर्ण चरण आता है। जीवन ऊर्जा की आवश्यक मात्रा को संचित किए बिना इसे कर पाना संभव नहीं होता। संग्रहित प्राण-ऊर्जा के द्वारा अचेतन मन की ग्रंथियों को खोलना तथा जन्म-जन्मांतर के कर्मबीजों को दग्ध करना इस प्रक्रिया में सम्मिलित हैं। मानवीय व्यक्तित्व को विघटित कर रही शारीरिक और मानसिक परेशानियों का कारण अचेतन मन की ये ग्रंथियाँ ही होती हैं, जिनमें अवरुद्ध ऊर्जा विकास के स्थान पर विनाश के दृश्य उपस्थित कर रही होती है। हर तरह के शारीरिक एवं मानसिक रोग इनके कारण व्यक्ति के जीवन को आक्रांत किए रहते हैं। चित्त की इन ग्रंथियों के परिशोधन के लिए अनेक तरह की तपश्चर्याओं का विधान है। अनेकों तपो का विधान विधित है, जिनको अपनाने पर अंतःकरण में जड़ जमाए कुसंस्कारों का परिमार्जन होता है तथा इसमें छिपी हुई सुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती हैं व दिव्य सतोगुण का विकास होता है।
तप कुछ इस प्रकार से हैं—
अस्वाद तप,
तितीक्षा तप,
कर्षण तप,
उपवास,
गव्य कल्प तप,
प्रदातव्य तप,
निष्कासन तप,
साधना तप,
ब्रह्मचर्य तप,
चांद्रायण तप,
मौन तप
अर्जन तप ।
इनको अपनाने पर तन-मन के मल-विकारों की सफाई होती है; जिससे नस-नाड़ियों में रक्त का नया संचार होने लगता है एवं शारीरिक तंत्र नई स्फूर्ति से काम करने लगता है। साथ ही सूक्ष्मनाड़ियों में नव-प्राण का संचार होने लगता है और चित्त में जड़ जमाए विकारों का परिमार्जन होता है। तप के अंतर्गत परिशोधन के बाद फिर जागरण की प्रक्रिया आती है। अचेतन ग्रंथियों में अवरुद्ध जीवन- ऊर्जा के मुक्त होने पर अंतर्निहित क्षमताओं के जागरण का क्रम शुरू होता है। इसके प्रथम चरण में प्रतिभा, साहस, आत्मबल जैसी विभूतियाँ प्रस्फुटित होने लगती हैं। साथ ही मानवीय अस्तित्व के उन शक्ति संस्थानों के जाग्रत होने का क्रम प्रारंभ हो जाता है, जिनके द्वारा मनुष्य अनंत ब्राह्मीचेतना के प्रवाह को स्वयं में धारण करने में सक्षम होने लगता है। मानवीय चेतना में निहित ऋद्धि-सिद्धि के रूप में वर्णित अतींद्रिय शक्तियाँ एवं अलौकिक क्षमताएँ प्रकट होने लगती हैं। यहाँ तप के साथ योग का समन्वय जीवन-साधना को संपूर्ण का अनुभव देता है। तप एक तरह के अर्जन की प्रक्रिया है तो योग समर्पण और विसर्जन का विधान है। तप में व्यक्ति की प्रसुप्त शक्तियों के जागरण एवं ऋद्धि- सिद्धियों के अर्जन के साथ अहंकार फूल सकता है, अध्यात्म पथ में विचलन आ सकता है, लेकिन योग इस दुर्घटना से बचाता है; क्योंकि इसमें अहंकार का समर्पण एवं विसर्जन होता है। यह अहं तक सीमित आत्मसत्ता के संकीर्ण दायरे को विराट अस्तित्व से जोड़ने व आत्मविस्तार की प्रक्रिया है।
भक्तियोग में जहाँ साधक अपने इष्ट-आराध्य एवं भगवान से जुड़कर इस स्थिति को पाता है, वहीं ज्ञानी आत्मा और ब्रह्म की एकता को स्थापित करते हुए अद्वैत की अवस्था को प्राप्त होता है। वहीं कर्मयोगी विराट ब्रह्म को सृष्टि में निहारते हुए निष्काम कर्म के साथ जीवन की व्यापकता को साधता है। ध्यानयोगी अष्टांगयोग की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए समाधि की अवस्था को प्राप्त होता है तथा जीवन के सकल समाधान को पाता है। इस तरह तप जहाँ जीवन-साधना का प्राथमिक आधार रहता है तो वहीं योग इसको निष्कर्ष तक ले जाने वाला अंतिम सोपान है। दोनों मिलकर जीवन-साधना को पूर्णता देते हैं और व्यक्ति को आत्मसिद्धि एवं मुक्ति के चरम उत्कर्ष तक ले जाते हैं। इस तरह तप और योग से युक्त पथ आध्यात्मिक जीवन का सुनिश्चित विज्ञान है, जो सकल सृष्टि के लिए वरदानस्वरूप होता है।
समर्थ गुरु रामदास का यह कथन सत्य है कि संसार भर में हमारे मित्र मौजूद हैं; किन्तु उन्हें प्राप्त करने की कुंजी जिह्वा के “कपाट” में बन्द है। मनुष्य की शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति, बुद्धिमत्ता, चतुरता, विचारशीलता एवं दूरदर्शिता उसकी वाणी के माध्यम से ही दूसरों पर प्रकट होती रहती है। समाज में प्रतिष्ठा और प्रामाणिकता प्राप्त करने के लिए वाणी का परिष्कृत होना आवश्यक है। निन्दा करते रहने या कठिनाई के विरुद्ध खेद व्यक्त करने से सिर्फ नकारात्मकता ही बढ़ेगी। हमें रचनात्मक उपाय खोजने-पूछने पड़ेंगे, जो मुख्य सहयोग पर ही निर्भर हों। सहयोग उसी को मिलता है, जो मुँह खोलकर अपनी पात्रता सिद्ध कर सकता है।
बाइबिल में लिखा है-
“जरा परखो तो कि न्याययुक्त शब्दों में कितनी शक्ति भरी पड़ी है।”
एमर्सन कहते थे-
“भाषण एक शक्ति है। उसका प्रयोग अवांछनीयता से विलग करने और श्रेष्ठता की ओर बढ़ने का प्रोत्साहन देने के लिए ही किया जाना चाहिए।”
प्लेटो ने लिखा है-
“मानवी मस्तिष्कों पर शासन कर सकने की क्षमता भाषण शक्ति में सन्निहित है।”
किपलिंग की उक्ति है-”
शब्द मानव समाज द्वारा प्रयोग में लाया जाने वाला सर्वोत्तम रसायन है।”
विचारों की शक्ति संसार की सर्वोपरि शक्ति है। उसी के सहारे नर-पशु से भी गई-बीती स्थिति में पड़ा व्यक्ति प्रगति की दिशा में अग्रसर होता है और विविध प्रकार उपलब्धियो का अधिकारी बनता है। महामानवों की गरिमा, भौतिक क्षेत्र में हुआ समृद्ध ज्ञान और विज्ञान द्वारा उत्पन्न सुख-साधन प्रगति के अनेकानेक सोपान, शान्ति और सुव्यवस्था के आचार-विचार वृक्ष पर लगे हुए फल हैं। मानवी प्रगति का मूलभूत आधार भी कह सकते हैं। तत्त्वदर्शी विचारों की गरिमा का विवेचन हुए आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि अदृश्य शक्ति ने इस संसार को किस प्रकार सुन्दर गुलदस्ते की तरह सुन्दर है कर दिया है। “एना हैप्सटन” ने लिखा है-“ईश्वर की इस दुनिया में तार से चन्द्रमा, बादल, पर्वत, पुष्प और चित्र-विचित्र प्राणियों का सौर पग-पग पर बिखरा पड़ा है, पर शब्दों के समान और कोई अमुल्य वस्तु इस लोक में है नहीं।”
ई० डब्ल्यू विल्कोक्स कहते हैं-“मेरी धारणा है कि विचार निर्जिव नहीं, उनमें शक्ति हैं। उनमें बल भी है और पंख भी। संसार भर में भलाई और बुराई को एक स्थान से दूसरे स्थान पर हो देखे जा सकते हैं।
पोप विक्टार कहा करते थे-“काम इतने शक्तिशाली नहीं होते, जितने विचार। किसी युग की सबसे बड़ी उपलब्धि का इतिहास उस समय में फैले हुए विचारों के आधार पर ही लिखा जाना चाहिए।”
अलबर्ट स्वाइट्जर ने विचार-शक्ति को युद्ध से भी अधिक फलप्रद और शक्तिशाली सिद्ध करते हुए कहा है-‘आज परिष्कृत विचारों का नितान्त अभाव दीखता है। हमने ऐसे प्रश्नों पर युद्ध डाले जिनका हल युक्तिवाद के सहारे वार्तालाप से निकाला ज सकता था। विचारों की दृष्टी से जो नहीं जीत सका, यह जीत जाने पर भी पराजित ही रहेगा।
मनीषियों को अपनी जान सम्पदा अपने तक ही सीमित नहीं रखनी चाहिए, उसका लाभ दूसरों तक पहुँचाना चाहिये। इसी में उनके स्वाध्याय एवं मनन-चिन्तन की सार्थकता है। समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन तत्वदर्शी लोग इसी प्रकार कर सकते हैं कि, वे जनमानस का स्तर निरन्तर ऊँचा उठाने का प्रयत्न करते रहें, उसे नीचे न गिरने दें, विद्वान, संन्यासी और तत्वज्ञानी सदा से लोक उद्बोधन में निरन्तर रहकर जनता को मार्ग दिखा रहे हैं। ऐसी ही उनके लिए वेद और गुरू सत्ता की आज्ञा भी है।
‘अध्यापक तथा उपदेशक लोगों को उत्तम धर्मनीति और सदाचार की शिक्षा दिया करें, ताकि किसी की उदारता नष्ट न हो।”
इतिहास साक्षी है कि वक्तृत्व शक्ति के सहारे कितने ही मनस्वी लोगों ने जन साधारण में हलचलें उत्पन्न की और उनके माध्यम से क्रान्तिकारी परिणाम प्रस्तुत हुए। बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, विवेकानंद, दयानन्द, गुरु रामदास, गुरु गोविन्द सिंह, विनोबा भावे आदि आचार्यों द्वारा धर्मक्षेत्र में। और सरदार वल्लभ भाई पटेल, लाजपतराय, मालवीय, तिलक, सुभाष आदि नेताओं ने राजनीति के क्षेत्र हलचलें उत्पन्न की और उनकी प्रतिक्रिया कैसे परिर्वतन सामने लाई, यह किसी से छिपी नहीं है। संसार के हर कोने में लोग हुए हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्रों की सामयिक समस्याओं का हल करने के लिये वाक शक्ति पाई। ऐसे लोगों में डिमास्थनीज, टूलियस, सिसरो, नेपोलियन, मार्टिन लूथर, अब्राहम लिंकन, वाशिंगटन, लेलिन, स्टालिन, हिटलर, मुसोलिनी, चर्चिल आदि के नाम गिनाये जा सकते हैं।
कई बार कुशल वक्ताओं द्वारा उत्पन्न की गई प्रभावोत्पादकता देखते ही बनती है। सुनने वालों का दिल उछलने लगता है। रोमांचित होते, जोश में आते दीखते हैं। भुजाएँ फड़कने लगती है। और आँखों में उनकी भाव विभोरता का आवेश झाँकता है। सुनने वालों को हँसना, रुलाना, उछालना,गरम या ठंडा कर कुशल वक्ता की अपनी विशेषता होती है। जिसे यह रहस्य विदित होता है और उसका अभ्यास अनुभव है, उसे जनता के मन मस्तिष्कों पर शासन करते देखा जा सकता है। परिमार्जित वक्तृता में एक प्रकार की विद्युतधारा सनसनाती हुई रहती है। उच्चारण की गति, शब्दों का गठन, भावों का समन्वय घटनाक्रम का प्रस्तुतीकरण तर्क और प्रमाणों का तारतम्य, भावनाओं का समावेश रहने से वक्त का प्रतिपादन इतना हृदयस्पर्शी हो जाता है कि सुनने वालों के अपनी मनःस्थिति को उसी की अनुगामिनी बनाने के लिए विवश होना पड़ता है। नेपोलियन की वाणी में जादू था, वह जिससे बात करता को अपना बना लेता था। उसके निर्देशों को टालने की कभी किसी की हिम्मत नहीं हुई। वह जब बोलता तो साथियों में जोश भर देता था।
और वे मन्त्र मुग्ध होकर आदेशों का पालन करने के लिए, प्राणपण से जुट जाते थे। हिटलर जब बोलता था तो जर्मन नागरिकों के खून खौला देता था। लेनिन ने दबी- पिसी रूसी जनता को इतना उत्तेजित कर दिया कि उसने शक्तिशाली शासकों से टक्कर ली और उनका तख्ता पलट दिया। सुभाषचन्द्र बोस ने प्रवासी भारतीयों को लेकर आजाद हिन्द फौज ही खड़ी कर दी। मार्टिन लूथर ने पोपशाही पोंगा पंथी की गहरी जड़ों को खोखला करके रख दिया और यूरोप भर में धार्मिक क्रान्ति का नया स्वरूप खड़ा कर दिया। सावरकर जी ने भारतीय जनता को स्वतंत्रता संग्राम खड़ा कर देने में जो सफलता पाई, उसमें उनकी वक्तृत्व शक्ति का अद्भुत योगदान था। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का व्यक्तित्व आकर्षक न था। वे दुबले, लम्बे और कुरूप थे। घर बार की दृष्टि से भी वे निर्धनों में ही गिने जाते थे; पर उनकी भाषण प्रतिभा अनोखी थी। प्रधानता इसी गुण के कारण वे इतने लोकप्रिय हो सके और उस देश के राष्ट्रपति चुने जा सके। जब तक उनके पास भाषण की पर्याप्त सामग्री एकत्रित न हो जाती, तब तक वे कभी बोलना स्वीकार न करते।
भगवान् बुद्ध ने दुष्प्रवृत्तियों की बाढ़ को रोकने के लिए पैनी वाक्शक्ति का उपयोग किया। उनके प्रवचन बड़े मर्मस्पर्शी होते थे। यही कारण था कि उनके जीवन काल में ही लाखों व्यक्ति भिक्षु और भिक्षुणी बनकर, धर्मचक्र प्रवर्तन में अपनी समस्त सामर्थ्य झोंककर धर्म प्रचारक बन गये। भारत के स्वतंत्रता संग्राम को जन्म देने, आगे बढ़ाने और सफल बनाने में जिन नेताओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाही, वे सभी कुशल वक्ता थे। दादाभाई नौरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, रानाडे, गोखले, लोकमान्य तिलक, विपिन चन्द्रपाल, चितरंजन दास, सुभाषचन्द्र बोस, लाला लाजपतराय, मदन मोहन मालवीय, राजगोपालाचार्य, आदि के भाषणो में प्राण फुंकते थे। उनकी भाषा बड़ी ओजस्वी और मर्मस्पर्शी होती थी। वक्तृत्व कला की दृष्टि से उनके भाषण बड़े प्रभावशाली प्रवाहपूर्ण और प्रथम श्रेणी के माने जाते थे। उन लोगों की सफ़लता के कारण तलाश करने पर कुछ तथ्य स्पष्ट रूप से सामने जो लक्ष्य था, उसमें अनीति का विरोध करने के लिए प्रचंड पुरूषार्थ, अतुल्य साहस, मातृभूमि के लिए आत्मसमर्पण-लक्ष्य की ओर द्रुतगति है। चलने की तड़पन, स्वार्थ सिद्धि से कोसों दूर त्याग-बलिदान की प्रचण्ड निष्ठा जैसे भावनात्मक कारण मुख्य थे।
जिनके पीछे पानी का दबाव अधिक होता है, वे नदिया और झरने बड़ी तेजी से बहते हैं, उनकी लहरें, हिलोरें तथा ध्वनियों मनोहारिणी होती हैं। जिनके पीछे दबाव न हो, उनका पानी बहाता है; पर मन्दगति की निर्जीवता ही दिखाई देती है। यही बात भाषण के सम्बन्ध में है। वक्ता की भावनाएँ जितनी प्रचण्ड होंगी, विषय में उसकी निष्ठा, लगन, तत्परता, तन्मयता का जितना गहरा बीज होगा, उतना ही ओज वाणी में भरा होगा। समाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र में स्वामी विवेकानन्द, रामतीर्थ, समर्थ रामदास, ऋषि दयानन्द, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, राममोहन राय आदि के बड़े प्रभावशाली रहे हैं। सूर, तुलसी, कबीर, दादू, रैदास आदि के भजन सुनकर लोग भाव-विभोर हो उठते थे। उसमें कंठ स्वर अथवा कविता का शब्द गठन उतना उच्चस्तरीय नहीं जितना कि उनका तादात्म्य व्यक्तित्व। ऐसे लोगों की वाणी लड़खड़ाती भी हो और शब्दों का चयन उतना अच्छा न बन पड़े, तो भी लोग उस कमी पर ध्यान नहीं देते। गांधी जी के भाषण, भाषण कला की दृष्टि से उतने अच्छे नहीं होते, फिर भी उनका व्यक्तित्व वाणी के साथ घुला होने के कारण उन्हें लोग न केवल श्रद्धापूर्वक सुनते थे, वरन् बहुत अधिक प्रेरणा भी ग्रहण करते थे।
वक्ता, लेखक, कवि, गायक, अभिनेता आदि कलाकार माने जाते हैं। उनकी अभिव्यक्तियाँ बहुत कुछ इस बात पर निर्भर रहती हैं कि उन्हें स्वयं कैसी अनुभूतियाँ होती हैं। यदि उनका निज का अन्तःकरण नीरस और शुष्क हो, तो उनका भाषण, लेखन, कविता गायन, अभिनय आदि स्पष्टतः नीरस दिखाई पड़ेंगे। विद्वान् सदा से यही कहते रहे हैं कि जब भीतर से भावनाएँ फूट रही हों, तभी उनके प्रकटीकरण का साहस करना चाहिए। संसार के महामानव ओजस्वी वक्ता भी रहे हैं, इसे दो तरह कहा जा सकता है। वाक्शक्ति के कारण वे ऊँचे स्तर तक पहुँच सके अथवा उनका भावना प्रवाह ऊँचा होने के कारण वाणी में ओजस्विता उत्पन्न हुई। कहा किसी भी तरह जाए, वस्तुतः दोनों परस्पर अविच्छिन्न और अन्यान्योश्रित हैं। दोनों तथ्य पूर्णतया परस्पर घनिष्ठतापूर्वक मिले हुए हैं।
वाणी की ओजस्विता और भावनाओं की प्रखरता दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू कहना चाहिए। सही तरीका यह है कि जिसके भीतर ज्ञान और भाव का निर्झर फूटता हो, उसे अपनी अभिव्यक्ति करनी चाहिए। दूसरा तरीका आरम्भिक अभ्यास की दृष्टि से यह भी हो सकता है कि जब बोलना हो, तब प्रतिपाद्य विषय में अपनी सघन श्रद्धा और तत्परता उत्पन्न करने का प्रयास करना चाहिए। स्वाभाविक न होने पर उसे लोग नाटकीय भी बताते हैं और उस आधार पर भी वाणी में प्रभाव उत्पन्न करते हैं। सोचने की बात है कि जब कृत्रिमता के बल पर लोग अपना काम चला लेते हैं और बहुत हद तक अभीष्ट सफलता प्राप्त कर लेते हैं, तो वास्तविकता होने पर कितना अधिक और अस्थाई प्रभाव उत्पन्न किया जा सकेगा। अभ्यास, अनुभव, इच्छा, सतर्कता से कोई भी कला सीखी जा सकती है। धैर्यपूर्वक देर तक प्रयत्न करने और हर बार पिछली भूल का परिष्कार करते हुए नये सुधारों का समन्वय करने से प्रत्येक कलाकार प्रगति करता है। वक्तृत्व कला भी यही सब चाहती है। यह भी उन्हीं शाश्वत तथ्यों के आधार पर निखरती है, जिनके सहारे अन्य कलाकार उच्चस्तरीय सफलता तक पहुँचते रहे हैं।
भारतीय संस्कृति अपने आप में एक अनोखा विज्ञान है। जिसकी तुलना नहीं की जा सकती है। मानसिक स्वास्थ्य को संतुलित बनाएं रखने के लिए हमे जागरूक रहना होगा। यह संस्कृति हमे कर्मकाण्ड का आधार प्रदान करती है। कर्मकांड भी विज्ञान है खुद को मंत्र के साथ पिरोने का। वसंत ऋतु का आगमन ही विद्यारंभ संस्कार को लाता है। ज्ञान और बुद्धि को संतुलित करने के लिए एक तत्व का अभ्यास करना होता है। वह तत्व की उपासना होती है ” सरस्वती” जिसे मां कहकर पुकारा जाता है। सरस्वती शब्द तीन शब्दों से निर्मित हैं, प्रथम स्वर जिसका अर्थ सार, ‘स्व’ स्वयं तथा ‘ती’ जिसका अर्थ सम्पन्न हैं; जिसका अभिप्राय हैं जो स्वयं ही सम्पूर्ण सम्पन्न हो। ब्रह्माण्ड के निर्माण में सहायता हेतु, ब्रह्मा जी ने देवी सरस्वती को अपने ही शरीर से उत्पन्न किया था। इन्हीं के ज्ञान से प्रेरित हो ब्रह्मा जी ने समस्त जीवित तथा अजीवित तत्वों का निर्माण किया। ब्रह्मा जी की देवी सरस्वती के अतिरिक्त दो पत्नियां और भी हैं प्रथम सावित्री तथा द्वितीय गायत्री; तथा सभी रचना-ज्ञान से सम्बद्ध कार्यों से सम्बंधित हैं। देवी सरस्वती का एक नाम ब्राह्मणी भी हैं। वेद माता, ब्राह्मणी के नाम से त्रि-भुवन में विख्यात, विद्यार्थी वर्ग कि अधिष्ठात्री देवी सरस्वती जी हैं। इनका आव्हान करना मेधा शक्ति को बढ़ाता है। आज हम कुछ शक्ति केंद्र के बात करेगे अर्थात् ही मां सरस्वती जी मंत्रों से उन्हे समझने का प्रयास करेंगे।
वेद के अर्थ से समझने के लिए हमारे पास प्राचीन ऋषियों के प्रमाण हैं। निघण्टु में वाणी के ५७ नाम हैं, उनमें से एक सरस्वती भी है। अर्थात् सरस्वती का अर्थ वेदवाणी है। ब्राह्मण ग्रंथ वेद व्याख्या के प्राचीनतम ग्रंथ है। वहाँ सरस्वती के अनेक अर्थ बताए गए हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं- 1- वाक् सरस्वती।। वाणी सरस्वती है। (शतपथ 7/5/1/31) 2- वाग् वै सरस्वती पावीरवी।। ( 7/3/39) पावीरवी वाग् सरस्वती है। 3- जिह्वा सरस्वती।। (शतपथ 12/9/1/14) जिह्ना को सरस्वती कहते हैं। 4- सरस्वती हि गौः।। वृषा पूषा। (2/5/1/11) गौ सरस्वती है अर्थात् वाणी, रश्मि, पृथिवी, इन्द्रिय आदि। अमावस्या सरस्वती है। स्त्री, आदित्य आदि का नाम सरस्वती है। 5- अथ यत् अक्ष्योः कृष्णं तत् सारस्वतम्।। (12/9/1/12) आंखों का काला अंश सरस्वती का रूप है। 6- अथ यत् स्फूर्जयन् वाचमिव वदन् दहति। ऐतरेय 3/4, अग्नि जब जलता हुआ आवाज करता है, वह अग्नि सारस्वत रूप है। 7- सरस्वती पुष्टिः, पुष्टिपत्नी। (तै0 2/5/7/4) सरस्वती पुष्टि है और पुष्टि को बढ़ाने वाली है। 8-एषां वै अपां पृष्ठं यत् सरस्वती। (तै0 1/7/5/5) जल का पृष्ठ सरस्वती है।
9-ऋक्सामे वै सारस्वतौ उत्सौ। ऋक् और साम सरस्वती के स्रोत हैं। 10-सरस्वतीति तद् द्वितीयं वज्ररूपम्। (कौ0 12/2) सरस्वती वज्र का दूसरा रूप है। ऋग्वेद के 6/61 का देवता सरस्वती है। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने यहाँ सरस्वती के अर्थ विदुषी, वेगवती नदी, विद्यायुक्त स्त्री, विज्ञानयुक्त वाणी, विज्ञानयुक्ता भार्या आदि किये हैं। अन्य देशों में मां सरस्वती अन्य शब्द से पुकारा जाता है। जैसे, जापान में सरस्वती को ‘बेंजाइतेन’ कहते हैं। जापान में उनका चित्रन हाथ में एक संगीत वाद्य लिए हुए किया जाता है। जापान में वे ज्ञान, संगीत तथा ‘प्रवाहित होने वाली’ वस्तुओं की देवी के रूप में पूजित हैं। दक्षिण एशिया के अलावा थाइलैण्ड, इण्डोनेशिया, जापान एवं अन्य देशों में भी सरस्वती की पूजा होती है। अन्य भाषाओ/देशों में देवी सरस्वती के नाम- बर् चीन – बियानचाइत्यान जापान – बेंजाइतेन थाईलैण्ड – सरस्वती देवी, हिन्दू धर्म की प्रमुख देवियों में से एक हैं, जो विद्या की अधिष्ठात्री देवी मानी गई हैं। इनका नामांतर ‘शतरूपा’ भी है। इसके अन्य पर्याय हैं, वाणी, वाग्देवी, भारती, शारदा, वागेश्वरी इत्यादि। ये शुक्लवर्ण, श्वेत वस्त्रधारिणी, वीणावादनतत्परा तथा श्वेतपद्मासना कही गई हैं। इनकी उपासना करने से मूर्ख भी विद्वान् बन सकता है। माघ शुक्ल पंचमी को इनकी पूजा की परिपाटी चली आ रही है। देवी भागवत के अनुसार ये ब्रह्मा की स्त्री हैं। सरस्वती को साहित्य, संगीत, कला की देवी माना जाता है। उसमें विचारणा, भावना एवं संवेदना का त्रिविध समन्वय है। वीणा संगीत की, पुस्तक विचारणा की और मयूर वाहन कला की अभिव्यक्ति है। लोक चर्चा में सरस्वती को शिक्षा की देवी माना गया है। शिक्षा संस्थाओं में वसंत पंचमी को सरस्वती का जन्म दिन समारोह पूर्वक मनाया जाता है। पशु को मनुष्य बनाने का – अंधे को नेत्र मिलने का श्रेय शिक्षा को दिया जाता है। मनन से मनुष्य बनता है। मनन बुद्धि का विषय है। भौतिक प्रगति का श्रेय बुद्धि-वर्चस् को दिया जाना और उसे सरस्वती का अनुग्रह माना जाना उचित भी है। इस उपलब्धि के बिना मनुष्य को नर-वानरों की तरह वनमानुष जैसा जीवन बिताना पड़ता है। शिक्षा की गरिमा-बौद्धिक विकास की आवश्यकता जन-जन को समझाने के लिए सरस्वती पूजा की परम्परा है। इसे प्रकारान्तर से गायत्री महाशक्ति के अंतगर्त बुद्धि पक्ष की आराधना कहना चाहिए। कहते हैं कि, महाकवि कालिदास, वरदराजाचार्य, वोपदेव आदि मंद बुद्धि के लोग सरस्वती उपासना के सहारे उच्च कोटि के विद्वान् बने थे। इसका सामान्य तात्पर्य तो इतना ही है कि ये लोग अधिक मनोयोग एवं उत्साह के साथ अध्ययन में रुचिपूवर्क संलग्न हो गए, और अनुत्साह की मनःस्थिति में प्रसुप्त पड़े रहने वाली मस्तिष्कीय क्षमता को सुविकसित कर सकने में सफल हुए होंगे। इसका एक रहस्य यह भी हो सकता है कि कारणवश दुर्बलता की स्थिति में रह रहे बुद्धि-संस्थान को सजग-सक्षम बनाने के लिए वे उपाय-उपचार किए गए जिन्हें ‘सरस्वती आराधना’ कहा जाता है। उपासना की प्रक्रिया भाव-विज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है। श्रद्धा और तन्मयता के समन्वय से की जाने वाली साधना-प्रक्रिया एक विशिष्ट शक्ति है। मनःशास्त्र के रहस्यों को जानने वाले स्वीकार करते हैं कि व्यायाम, अध्ययन, कला, अभ्यास की तरह साधना भी एक समर्थ प्रक्रिया है, जो चेतना क्षेत्र की अनेकानेक रहस्यमयी क्षमताओं को उभारने तथा बढ़ाने में पूणर्तया समर्थ है।
सरस्वती उपासना के संबंध में भी यही बात है। उसे शास्त्रीय विधि से किया जाय तो वह अन्य मानसिक उपचारों की तुलना में बौद्धिक क्षमता विकसित करने में कम नहीं, अधिक ही सफल होती है। मन्दबुद्धि लोगों के लिए गायत्री महाशक्ति का सरस्वती तत्त्व अधिक हितकर सिद्घ होता है। बौद्धिक क्षमता विकसित करने, चित्त की चंचलता एवं अस्वस्थता दूर करने के लिए सरस्वती साधना की विशेष उपयोगिता है। मस्तिष्क-तंत्र से संबंधित अनिद्रा, सिर दर्द्, तनाव, जुकाम जैसे रोगों में गायत्री के इस अंश-सरस्वती साधना का लाभ मिलता है। कल्पना शक्ति की कमी, समय पर उचित निर्णय नही कर सकना, विस्मृति, प्रमाद, दीघर्सूत्रता, अरुचि जैसे कारणों से भी मनुष्य मानसिक दृष्टि से अपंग, असमर्थ जैसा बना रहता है और मूर्ख कहलाता है। उस अभाव को दूर करने के लिए सरस्वती साधना एक उपयोगी आध्यात्मिक उपचार है। शिक्षा के प्रति जन-जन के मन-मन में अधिक उत्साह भरने-लौकिक अध्ययन और आत्मिक स्वाध्याय की उपयोगिता अधिक गम्भीरता पूर्वक समझने के लिए भी सरस्वती पूजन की परम्परा है। बुद्धिमत्ता को बहुमूल्य सम्पदा समझा जाए और उसके लिए धन कमाने, बल बढ़ाने, साधन जुटाने, से भी अधिक ध्यान दिया जाए। इस लोकोपयोगी प्रेरणा को गायत्री महाशक्ति के अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण धारा सरस्वती की मानी गयी है, और उससे लाभान्वित होने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। सरस्वती के स्वरूप एवं आसन आदि का संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस तरह है- सरस्वती के एक मुख, चार हाथ हैं। मुस्कान से उल्लास, दो हाथों में वीणा-भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है। पुस्तक से ज्ञान और माला से ईशनिष्ठा-सात्त्विकता का बोध होता है। वाहन मयूर-सौन्दर्य एवं मधुर स्वर का प्रतीक है। इनका वाहन हंस माना जाता है और इनके हाथों में वीणा, वेद और माला होती है। भारत में कोई भी शैक्षणिक कार्य के पहले इनकी पूजा की जाती हैं।
सरस्वती वंदना: या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना। या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥ शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्। हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम् वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥2॥ जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं। और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है। तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें॥1॥ शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत् में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से छुटकारा करने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान् बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ॥2॥
यह वरदान देने के बाद स्वयं श्रीकृष्ण ने पहले देवी की पूजा की। सृष्टि निर्माण के लिए मूल प्रकृति के पांच रूपों में से सरस्वती एक है, जो वाणी, बुद्धि, विद्या और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी है। वसंत पंचमी का अवसर इस देवी को पूजने के लिए पूरे वर्ष में सबसे उपयुक्त है क्योंकि इस काल में धरती जो रूप धारण करती है, वह सुंदरतम होता है। सृष्टि के सृजनकर्ता ब्रह्माजी ने जब धरती को मूक और नीरस देखा तो अपने कमंडल से जल लेकर छिटका दिया। इससे सारी धरा हरियाली से आच्छादित हो गई पर साथ ही देवी सरस्वती का प्राकट्य हुआ जिसे ब्रह्माजी ने आदेश दिया कि वीणा व पुस्तक से इस सृष्टि को आलोकित करें। तभी से देवी सरस्वती के वीणा से झंकृत संगीत में प्रकृति विहंगम नृत्य करने लगती है। देवी के ज्ञान का प्रकाश पूरी धरा को प्रकाशमान करता है। जिस तरह सारे देवों और ईश्वरों में जो स्थान श्रीकृष्ण का है वही स्थान ऋतुओं में वसंत का है। यह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया है। भगवान कृष्ण ने गीता में ‘ऋतुनां कुसुमाकरः‘ कहकर वसंत को अपनी सृष्टि माना है-
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् । मासानां मार्गशीर्षोऽहं ऋतूनां कुसुमाकर: ॥ अर्थातृ- गायन-शास्त्र में वृहत् सामवेद हूँ छन्द-गायत्री छन्द-कलाप में। द्वादश-मास में मार्गशीर्ष मास हूँ ऋतुओं में हूँ कुसुमाकर (वसंत) मैं।सरस्वती शब्द तीन शब्दों से निर्मित हैं, प्रथम स्वर जिसका अर्थ सार, ‘स्व’ स्वयं तथा ‘ती’ जिसका अर्थ सम्पन्न हैं; जिसका अभिप्राय हैं जो स्वयं ही सम्पूर्ण सम्पन्न हो। ब्रह्माण्ड के निर्माण में सहायता हेतु, ब्रह्मा जी ने देवी सरस्वती को अपने ही शरीर से उत्पन्न किया था। इन्हीं के ज्ञान से प्रेरित हो ब्रह्मा जी ने समस्त जीवित तथा अजीवित तत्वों का निर्माण किया। ज्ञान प्रकाश की अधिष्ठात्री देवी मां सरस्वती है। वसंत के इस पर्व पर उनका आगमन हमे ज्ञान से वाणी, से गतिमान कर सन्मार्ग पर प्रेरित करेगा। सरस्वती जी का यह दिव्य आव्हान शरीर के उस स्थान पर किया जाए उनका नैकट्य हमे प्रदान हो! भगवती शारदा विद्या, बुद्धि, ज्ञान एवं वाणी की अधिष्ठात्री तथा सर्वदा शास्त्र-ज्ञान देने वाली देवी हैं। हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों में इन्हीं माँ वागीश्वरी की जयंती वसन्त पञ्चमी के दिन बतलाई गई है। माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी को मनाया जाने वाला यह सारस्वतोत्सव या सरस्वती-पूजन अनुपम महत्त्व रखता है। सरस्वती माँ का मूलस्थान शशाङ्कसदन अर्थात् अमृतमय प्रकाशपुञ्ज है। जहां से वे अपने उपासकों के लिये निरंतर पचास अक्षरों के रूप में ज्ञानामृत की धारा प्रवाहित करती हैं। शुद्ध ज्ञानमय व आनन्दमय विग्रह वाली माँ वागीश्वरी का तेज दिव्य व अपरिमेय है और वे ही शब्दब्रह्म के रूप में उनकी स्तुति होती हैं। सृष्टिकाल में ईश्वर की इच्छा से आद्याशक्ति ने स्वयं को पाँच भागों में विभक्त किया था। वे राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा एवं सरस्वती के रूप में भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न अंगों से उत्पन्न हुईं थीं। उस समय श्रीकृष्ण के कण्ठ से उत्पन्न होने वाली देवी का नाम सरस्वती हुआ। ये नीलसरस्वतीरूपिणी देवी ही तारा महाविद्या हैं।
‘श्रीमद्देवीभागवत’ व ‘श्रीदुर्गासप्तशती’ में आद्याशक्ति द्वारा महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती के नाम से तीन भागों में विभक्त होने की कथा जगद्विख्यात है। सत्त्वगुणसम्पन्ना भगवती सरस्वती के अनेक नाम हैं, जिनमें वाक्, वाणी, गीः, धृति, भाषा, शारदा, वाचा, धीश्वरी, वागीश्वरी, ब्राह्मी, गौ, सोमलता, वाग्देवी और वाग्देवता आदि अधिक प्रसिद्ध हैं। अमित तेजस्विनी व अनन्त गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा एवं आराधना के लिये निर्धारित शारदा माँ का आविर्भाव-दिवस, माघ शुक्ल पञ्चमी श्रीपञ्चमी के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस दिन माँ की विशेष अर्चा-पूजा व व्रतोत्सव द्वारा इनके सांनिध्य प्राप्ति की साधना की जाती है। शास्त्रों में सरस्वती देवी की इस वार्षिक पूजा के साथ ही बालकों के अक्षरारम्भ-विद्यारम्भ की तिथियों पर भी सरस्वती-पूजन का विधान बताया गया है। बुध ग्रह की माता होने से हर बुधवार को की गयी माँ शारदा की आराधना बुध ग्रह की अनुकूलता व माँ सरस्वती की प्रसन्नता दोनों प्राप्त कराती है। सच्चे श्रद्धालु आराधक की निष्कपट भक्ति से अति प्रसन्न होने पर देवी सरस्वतीजी ऐसी कृपा बरसाती हैं कि उसकी वाणी सिद्ध हो जाती है जो कुछ कहा जाय, वही सत्य हो जाता है।
देवीभागवत में सरस्वती माता का यह ध्यान है- सरस्वतीं शुक्लवर्णां सुस्मितां सुमनोहराम् ॥ कोटिचन्द्रप्रभामुष्ट पुष्ट श्रीयुक्तविग्रहाम् । वह्निशुद्धां शुकाधानां वीणापुस्तकधारिणीम् ॥ रत्नसारेन्द्र निर्माणनवभूषणभूषिताम् । सुपूजितां सुरगणैर्ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः ॥ वन्दे भक्त्या वन्दितां च मुनीन्द्रमनुमानवै: ।
इसके अतिरिक्त सरस्वती जी की स्तुति के लिये ये दो श्लोक जगद्विख्यात हैं- या कुन्देदुतुषार-हारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता। या वीणावरदण्ड-मण्डितकरा या श्वेतपद्मासना॥ या ब्रह्माच्युतशङ्कर-प्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता। सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा।। अर्थात् जो कुन्द के फूल, चन्द्रमा, बर्फ और हारके समान श्वेत हैं; जो शुभ्र वस्त्र धारण करती हैं; जिनके हाथ उत्तम वीणा से सुशोभित हैं; जो श्वेत कमलासन पर बैठती हैं; ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देव जिनकी सदा स्तुति करते हैं और जो सब प्रकार की जड़ता हर लेती हैं, वे भगवती सरस्वती मेरा पालन करें।
शुक्लां ब्रह्मविचारसार-परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्। हस्ते स्फाटिकमालिकां च दधतीं पद्मासने संस्थितां, वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥।। ६ ।। अर्थात् जिनका रूप श्वेत है, जो बह्मविचार की परम तत्व हैं, जो समस्त संसार में फैल रही हैं, जो हाथों में वीणा और पुस्तक धारण किये रहती हैं, अभय देती हैं, मूर्खतारूपी अन्धकार को दूर करती हैं, हाथ में स्फटिक मणि की माला लिये रहती हैं, कमल के आसन पर विराजमान होती हैं और बुद्धि देने वाली हैं, उन आद्या परमेश्वरी भगवती सरस्वती की मैं वन्दना करता हूँ।
आइए इन्ही सरस्वती जी का आव्हान कर संकल्पित होवे, संकल्पित होना मतलब हम तैयार है। ॐ श्रीगणपतिर्जयतिः विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्त्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे बौद्धावतारे आर्यावर्तैकदेशे …(शहर का नाम)….नगरे/ग्रामे, शिशिर ऋतौ, ..(संवत्सर का नाम)… नाम्नि संवत्सरे, माघ मासे, शुक्ल पक्षे, पंचमी तिथौ, ..(वार का नाम)…वासरे, ..(गोत्र का नाम)…गोत्रीय ..(आपका नाम)… अहम् ..(प्रातः/मध्याह्न/सायाह्न)… काले श्री सरस्वती देवी प्रीत्यर्थे यथालब्धपूजनसामग्रीभिः भगवत्याः सरस्वत्याः पूजनमहं करिष्ये।’
वेदोक्त अष्टाक्षरी मंत्र ‘श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा’ अथवा जिस मंत्र से दीक्षित हो उसी से प्रत्येक वस्तु का सरस्वती देवी को समर्पण करें। मानस पूजा का भाव लेकर मां पारंम्बा सरस्वती की आराधना करे। मंत्र “ऐं” यह माँ शारदा का अति सरल व सिद्धिप्रद एकाक्षर बीजमन्त्र है। देवीभागवत व ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णन है कि श्रीविष्णुजी ने वाल्मीकि को सरस्वतीजी का मंत्र बतलाया था। जिसके जप से उनमें कवित्व शक्ति उत्पन्न हुई थी। वह मंत्र है- ‘श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा । आगम-ग्रन्थों में सरस्वती जी के अन्य मन्त्र भी निर्दिष्ट हैं। जिनमें ‘ऐं वाग्वादिनी फट फट स्वाहा’ यह बीज दशाक्षर मन्त्र है जो सर्वार्थसिद्धिप्रद व सर्वविद्याप्रदायक कहा गया है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में इनका यह मन्त्र निर्दिष्ट है- ‘ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा ।’ उपरोक्त मंत्रों का उठते-बैठते, चलते-फिरते कहीं भी मन ही मन में जप करना भी लाभकारी होता है। वाक्सिद्धिदायिनी भगवती सरस्वती की महिमा और प्रभाव असीमित है। ऋग्वेद १०।१२५ सूक्त के आठवें मंत्र के अनुसार वाग्देवी सौम्य गुणों की दात्री व वसु-रुद्रादित्यादि सभी देवों की रक्षिका हैं। ये ही राष्ट्रीय भावना प्रदान करती हैं और लोकहित के लिये संघर्ष करती हैं। ब्रह्माजी की शक्ति ये ही हैं। सृष्टि-निर्माण वाग्देवी का कार्य है। ज्ञानदायिनी माँ सरस्वती ने नदी के रूप में अवतार भी लिया था। “ऐंकाररूपिणी” माँ शारदा की ही कृपा से महर्षि वाल्मीकि, व्यास, वसिष्ठ, आदि ऋषि उच्चता को प्राप्त कर कृतार्थ हुए। महाज्ञानस्वरूपिणी माँ वागीश्वरी की महिमा के विषय में जितना कहें कम ही है। ये शारदा देवी हमारी जिह्वा में-बुद्धि में सदा ही वास करती हैं। इनके ही आशीर्वाद से हम सभी बोल-समझ पाते हैं। ऐसी वागीश्वरी माँ सर्वेश्वरी पातु सरस्वती माम् । विद्या- बुद्धि, विवेक और ज्ञान तत्व की अधिष्ठात्री के रूप में जो परम चेतना सचराचर जगत में व्याप्त हैं उन माँ पराम्बा सरस्वती का आशिर्वाद हमे प्राप्त हों।
ऐसी दशा जब आपको नकारात्मकता के अलावा और कुछ दिखे ही नहीं। एक स्थिती जब आपको अंधेरा जकड़ लेवे। कोई मार्ग नही दिखे तो, गुरुरूप श्रीमद्भगवद्गीता का आव्हान ही जीवन को सफल दिशा निर्देश दिखाएगा। गीता जी हमे दीपक की प्रेरणा देती है।
एक तेजस्वी किरण जो आपको अर्जुन बनने का मौका प्रदान करती हैं। तभीhttp://yogstation.blogspot.com/2021/12/sanskrit-language-of-god.html समझ लेना ईश्वर आपके साथ है। आप अकेले नहीं हो, सर्वशक्तीमान सत्ता निरन्तर आपके साथ है। आज जगत में अनेक किताबे, काव्य, ग्रंथ तत्वज्ञान, महाकाव्य, धर्मग्रंथ इन्ही सब ग्रंथो मे ज्ञानविज्ञान की संपदा और सौंदर्य का बखान भरा पड़ा हुआ है। इन दिव्य साहित्य के सुमेरू पर्वत श्रृंखला मे शिर्षस्थ स्थान श्रीमद्भागवतगीता का ही है। श्रीगीता जी के नाम से और भी धर्मग्रंथ है, जो भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा श्रीगीताजी के बाद हुए है। जैसे की अपने परम मित्र उद्धव को विनंती के अनुसार स्वयं भगवान में बताई हुई “उद्धव गीता”।अखंड प्रतिज्ञा धारी महात्मा भिष्मजी के आग्रहस्तव “भीष्म गीता”। और अर्जुन के अनुरोध पर बताई हुई “अनुगीता”। जड़ और स्थूल दृष्टी से देखा जाए तो यह सब चीजों के कर्ता स्वयं भगवान ही है। सत्य की अन्य भुजाओं को देखें तो, अन्य गीता में भगवान श्रीकृष्ण रूप मनुष्य अवतार मे मार्गदर्शन किया है। पर श्रीमद् भागवत गीता मे किसी भावस्वरूप से परे होकर स्वयं भगवान योगेश्वर केशव ने विराट स्वरूप मे उपदेश किया है। इसलिए स्वयं योगेश्वर जिसमें अभिव्यक्त हुए है, वह एकमात्र ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता जी है। इस दिव्य ग्रंथ का धन्यवाद दिन ‘गीता’ जयंती को मनाया जाता है। भगवान का धन्यवाद किया जाता है। इस लिए यह भारत भूमि श्रेष्ठ हैं।
ब्रम्ह अवतरण श्रीदिव्य भारत भुमि पर ज्ञानोपदेश की परंपरा प्राचिन तो है ही सदैव भगवान का स्नेह प्राप्त हुआ है इस धरती पर। विचार-विमर्श के इस प्रसंग वश वक्ता और श्रोता इन दोनों की मन: स्थिति शांत है। इस समय प्रकृति की शांतता अपने परम स्थान पर स्थित होती है। तभी जाकर एक दिव्य स्फुरण से वातावरण मे दिव्य संवाद का प्राकट्य होता है। हमे कल्पना करनी है, जब कुरुक्षेत्र पर दोनो तरफ विशाल सैन्य, रथी, महारथी, योध्दे सभी रणभुमी पर खड़े थे। तब युद्ध का शंखनाद हुआ है। हर एक योध्दा तैयार है, अपना पराक्रम सिद्ध करने के लिए। इस समय मे अहंकार चढ़ा हुआ, मोह,डर आक्रोश के भाव एक ही समय पर उपस्थित हैं। इस विषम परिस्थिती में स्वयं भगवंत अर्जुन के हृदय में ज्ञान और कर्म, भक्ती का दिव्य प्रवाह को प्रवाहित करते हुए अपनी प्रतिती देते है। काल पर विजय रेखा का यह नाद लिखा जा रहा है, यह तो केवल कल्पना है, रोमांच को अनुभव करो, इस समय की कौनसी परिस्थिती रही होगी? गीता जी के उपदेश मुल्य और महत्व का अपना दिव्य स्थान है। क्योंकी यह ज्ञान बुध्दीगम्य नहीं है। यह ज्ञान बोधगम्य है। इस संवाद मे श्रोता रूपी अर्जुन के प्रश्न का स्तर बहुत उच्च और श्रेष्ठ है। इन्ही प्रश्नों का समाधान स्वयं परमश्रेष्ठ भगवान कर रहे हैं। यह आध्यात्मिक संवाद जिज्ञासा रूप मे उत्पन्न हुआ है। इस दिव्य संवाद मे जड़ संसार का पुर्णत: अभाव है। संसार और इससे जुड़ी चिजो का इस संवाद मे कोई स्थान नहीं है। परिवर्तन का नियम शाश्वत और अटल है। पर यह श्रीमदभगवतगीता तो चैतन्य की यात्रा पर सवार है। यही उस शाश्वत परीचय हैं।
यह ज्ञान उस शाश्वत तत्व से उत्पन्न हुआ है, इस लिए यह दिव्य ज्ञान स्वयं अपना परिचय कराता है। श्रीगीता जी की विचार धारा व्यापक है। लय और तरंग से उपर निचे होने वाली उच्च भावना की अनुभूति का दर्शन कराती है। श्रीगीता जी प्रमाण है, व्यापक समन्वयीत बुध्दी और संपन्न सद्गुणप्राप्त अखंड श्रध्दा का। यही निर्गुणज्ञान प्राप्त करने वाली विद्या है। गीता जी के एक तरफ योग का दिव्य ज्ञान है, तो दूसरी बाजु बिजनेस, व्यवहारिक ज्ञान है। जहाँ भगवंत अपनी अलग-अलग भूमिका का निभाते नजर आते हैं। वो कही पर ऋषि रूप में उपदेश देते हैं तो, कही पर कठिन समय मे सच्चा मित्र बनते है। कभी गुरु बनकर तो, कभी विराट उग्र रूप का दर्शन करवाते हुए ,मनुष्य के परमकल्याण के नाना प्रकार के सुबोध मार्गदर्शन गीता जी में विद्यमान है। एक उदिदृष्ठ एक लक्ष्य प्राप्त करने के लिए ज्ञान, कर्म, भक्ती का त्रिसुत्री पाठ का विवेचन गीता जी में बताया है। यह शिक्षा अन्यत्र कहीं भी नहीं है। गीताजी किसी भी मत संप्रदाय की नहीं है। यह तो उस मनुष्य का के लिए उस महाद्वार के समान के है, जिसमे प्रवेश करने से उस चिदाकाश आध्यात्मिक सत्य की अनुभुति महसूस करने मिलती है। इस चिदाकाश में परम सत्ता का दिव्य दर्शन प्राप्त होता है। “अहम् ब्रम्हास्मि शिवोहम शिवोहम” की साक्षात प्रतिति मिलती है। गीताजी के ज्ञान को साधक जिस रुप मे ध्याता है, वह ज्ञान उस रूप में साधक की मदद करता है। वैज्ञानिक को के लिए गीता जी स्वयं अक्षय पात्र है। ज्ञान का अमृत यहां निरंतर बहता है। खोज अनुसंधान के लिए यह अनोखी प्रेरणा प्रदान करता है।
वैज्ञानिकों के लिए यह किसी अविष्कार से कम नहीं है। तो बीमार व्यक्ती के लिए यह उपचार है। डिप्रेशन और कमजोर व्यक्ती के लिए मन: शास्त्र है। बौद्धिक तृष्णा को तृप्त करने के लिए यह पानी का बहता झरना है। समाज के विकास के लिए राष्ट्र विकास के लिए यह नीती शास्त्र है। विद्वानो के लिए यह शाश्वत ज्ञान है तो, भक्त के लिए स्वयं भगवान दक्षिणामूर्ति है। श्रीगीता जी यह वो विलक्षण शक्ती, ज्ञान है जो अनेक रूपों से हमे प्रदान होती है। श्रीगिता जी केवल पढ़ने पढ़ाने और शास्त्रार्थ करना इतना ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान पिने के लिए है। स्वयं को सिद्ध करने के लिए है। यह स्वयं पुर्ती का ज्ञान है। यह ज्ञान की गंगा मे हर एक व्यक्ती ने डुबकी लगानी चाहिए। यह पूर्णमिद अष्टपैलू विकास का केंद्र है। श्रीगीता जी हमे अवसर प्रदान करती है उत्तम श्रोता बनने का। जिसके बाद हम काबिल बन सके परम वाणी सुनने के लिए। श्रीभगवतगीता जी को हर एक घर, व्यक्ती ने इस ज्ञान को सिखना चहिए | यह शाश्वत ज्ञान है। जिवन के हर पैलू पर राह ज्ञान अपनी प्रचिती का शाश्वत भाव का दर्शन कराता है। इस ज्ञान को आत्मसात करना किसी तप से कम नहीं है। गीता जी से हम आखिर में दिपक की प्रेरणा लेते हैं।
चैतन्य आत्मा इस शरीर की शोभा है। आत्मा भृकुटि में आँखों के पीछे बैठ पूरे शरीर का नियंत्रण करती है। इसी की याद में गीता जी के ज्ञान दीपक जलाते हैं। यह ज्योति उमंग, उत्साह व खुशियों का प्रतीक है। आत्मा व परमात्मा सदा जागृत ज्योति स्वरुप हैं। इन्हीं की याद में भीतर सद्गुणों का दीपक प्रज्वलित करते है। दीपक, प्रकाश सत्य का प्रतीक है। एकाग्रता व निरन्तर अध्ययन से दीपक की लौ सदा ऊपर की ओर उठी रहती है। हम सदा ऐसे उच्च कर्म करें जिनसे हमारा मस्तक गर्व से ऊँचा रहे। दीपक की लौ की तरह किसी गलत दबाव के आगे न झुकें। जलता दीपक चारों ओर प्रकाश, ऊर्जा व आभा बिखेरता है। हम भी जीवन में चारों ओर ज्ञान का प्रकाश व गुणों की सुगंध बिखेरते चलें। ज्ञान का दीपक स्वयं जलकर औरों का मार्गदर्शन करता है। त्याग और बलिदान की प्रेरणा देता है। हम भी अपना जीवन यज्ञमय एवं विश्व कल्याणार्थ जीकर प्रभु को अर्पित करें। दीपक हमें सद्ज्ञान की ओर अग्रसर होने का मौन संदेश देता है। अपने संपर्क के वातावरण को अपनी ऊर्जा से पावन बनाता है। हम भी ज्ञानमय जीवन जीकर अपने संपर्क के वातावरण को पवित्र बनायें। विघ्नकर्ता नहीं बनें, बल्कि विघ्नहर्ता बनें। दीपक के संपर्क में जो आता उसे वायुभूत कर विश्व सेवार्थ बिखेर देता है। हम भी अपनी सर्व उपलब्धियों का अंश विश्व सेवा में लगाते रहें। कर्म करते रहेंगे, फल की इच्छा का त्याग करेगे। हम अपना जीवन दीपक की तरह उमंग-उत्साहमय जिएंगे। बुझा हुआ दीपक बताता है कि जो दिखाई देता है वह स्थाई नहीं। उसका अंत थोड़ी सी राख ही है। दिखाई देनेवाला पंचतत्वों का यह शरीर भी स्थाई नहीं। इसका अंत भी राख की मुट्ठी भर ढ़ेरी ही है। अत: हम देह अभिमान त्याग जीवन के क्षणों का सार्थक उपयोग कर लें।
आप भी गीता जी का यह दिया ज्ञान के दीपक की तरह ही ज्ञान-सितारे बन पूरी दुनिया को सदा ज्ञान से प्रकाशित करें। अपने गुणों की सुगंध चारों ओर फैलायें। आप देश तथा विश्व के भविष्य हो । महत्वपूर्ण हो। संपूर्ण विश्व के लिये प्रकाश हो। उस सर्व शक्तिमान भगवान के आप पुत्र हो!!
जीते हुए अपने जीवन लक्ष्य को पाएं, यह सर्व मनुष्यात्माओं का परम कर्तव्य है। स्वस्थ रहना शरीर का नैसर्गिक स्वभाव एवं हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। कहा भी गया है पहला सुखनिरोगी काया । वास्तव में स्वास्थ्य जीवन की सबसे पहली आवश्यकता है। इसके बिना विपुल सम्पदा एवं वैभव सभी निरर्थक हैं। एक अस्वस्थ व्यक्ति स्वयं दुखी एवं दूसरों पर बोझ होता है। वह आत्म निर्माण का न तो प्रयास कर पाता है न ही परिवार समाज व राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान दे सकता है।
जब हम नैसर्गिक संसार को देखते हैं तो पाते हैं कि स्वस्थ रहने के नियम बहुत ही सरल हैं। प्रकृति का अनुसरण कर हर कोई सहज ही स्वस्थ जीवन जी सकता है। प्रकृति के पंचतत्वों से निर्मित शरीर जितना प्रकृति के नजदीक रहेगा, वह उतना ही स्वस्थ रहेगा। व्यक्ति का रहना, खाना जितना सात्विक व सादगी भरा होगा वह उतना ही प्रकृति के करीब व स्वस्थ होगा।
संपूर्ण स्वास्थ्य अर्थात् रोग रहित शरीर व प्रसन्नता से भरा मन। अच्छी भूख लगना, गहरी नींद आना, मीलों पैदल चलने व वजन उठाने की शक्ति होना, उदार व सकारात्मक विचार व चिंतन की गहराई, उदारता, उमंग उत्साह, क्षमाशीलता, निष्काम सेवा भावना आदि संपूर्ण स्वास्थ्य की निशानी हैं। “दिनचर्या को व्यवस्थित बना लेना आरोग्य रक्षा की गारंटी है। प्रातः उठने से लेकर रात्रि सोने तक की क्रमबद्ध विधि – व्यवस्था बनायें। समय का विभाजन व निर्धारित कार्य पद्धति का फिर कड़ाई से पालन किया जाय। इससे शरीर की आंतरिक प्रणाली भी व्यवस्थित व क्रियाशील हो जाती हैं। जिन नियमों को तोड़ ने से बीमारियां होती हैं उनसे सावधान रहें। स्वस्थ रहने के जो नियम हम जानते हैं, और कर सकते हैं उनका तो अवश्य ही पालन करें। जब हम बीमार पड़ते हैं तो ठीक होने के लिए अपना सब-कुछ दांवपर लगा देते हैं, लेकिन बड़ा आश्चर्य यह है कि, ठीक रहने के लिए हम कुछ नहीं करते।
लेकिन आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में हालात बदल गये हैं। पढाई, ट्यूशन, गृहकार्य के अलावा T.V.. Computer, Internet, social media मैली संस्कृति आदि के जंजाल में मनुष्य जीवन उलझ सा गया है। इन बदली हुई परिस्थितियों में मनुष्य को जीने की नयी कला सीखनी होगी। ऐसी कला जिसमें वह वर्तमान परिस्थितियों का सामना करते हुए अपने जीवन लक्ष्य को पा सके। जीने की कला आपको चुनने होगी। लेकिन यह अच्छी आदतें आपको जीवन भर साथ देगी।ये बातें नहीं बल्कि आपके अनन्य मित्र हैं। अन्य मित्र तो मुसीबत में साथ छोड़ भी सकते हैं, तथा गलत मार्ग पर भी ले जा सकते हैं, लेकिन ये आपकी अच्छी आदतें आपका साथ कभी नहीं छोड़ेंगे तथा आपको सदा उन्नति के मार्ग पर ही ले जायेंगे। आशा है आप इन अच्छी आदतो का स्वीकार कर उन्हे अपना बनाकर स्वयं को सम्पन्न व धन्य अनुभव करेंगे तथा जीवन को सफल करेंगे।
स्वस्थ जीवन की सबसे पहली आवश्यकता है। एक स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन का सच्चा आनंद ले सकता है; पढ़ाई की गहराई में जा सकता है; अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु त्याग, तपस्या व मेहनत कर सकता है। एक रोगी व्यक्ति स्वयं ही दुखी तथा दूसरों पर बोझ होता है स्वस्थ रहने के नियमों का पालन करें। जल-उपवास करें अथवा रसाहार लें। दवाओं से बचें। दवाओं से प्राप्त किया गया स्वास्थ्य सच्चा स्वास्थ्य नहीं है। संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए प्राकृतिक नियमों का पालन करें। प्रकृति से बड़ा डॉक्टर, उपवास से बड़ा इलाज एवं उषा: पान से बडी दवा इस संसार में कोई नहीं।
स्वस्थ रहने के नियम बहुत सरल हैं। जल्दी सोयें, जल्दी उठें। रात को सोने से पहले एक ग्लास व सुबह उठकर दो ग्लास पानी पीयें। नित्य आसन-प्राणायाम व ध्यान करें। प्रतिदिन पसीना आये ऐसा श्रम अथवा खेलकूद अवश्य करें। भूख से कम भोजन लें, चौथाई पानी व चौथाई हवा के लिये पेट खाली रखें। भोजन अच्छी तरह चबाकर शांतिपूर्वक करें। पानी भोजन के एक घंटे बाद पीयें। सादा सात्विक भोजन लें। बहुत गर्म व बहुत ठंडे पदार्थों, पेप्सी, कोलों आदि से बचें। कहा भी गया है – जैसा खायें अन्न वैसा बने मन, अतः केवल पवित्र व ईमानदारी की कमाई का भोजन ही स्वीकार करें। व्यसनों से मुक्त रहें।
स्वस्थ नेत्र : आज मानसिक तनाव व दबाव,अनियमित जीवन, अप्राकृतिक खानपान के कारण छोटे बच्चे भी नेत्र-रोगों के शिकार हैं। आँखें हमे प्रभु की दी हुई अनमोल देन हैं। इनकी रक्षा करें। नेत्र रोगों के उपरोक्त कारणों को दूर करें। हरी सब्जियाँ, फलों आदि का अधिक प्रयोग करें। सूर्य-स्नान, नेत्र-स्नान, जल-नेति, पॉमिंग, आँखों तथा गर्दन के व्यायाम आदि सीखें व नियमित अभ्यास करें। तनाव से बचें। बहुत कम या बहुत अधिक प्रकाश में पढ़ाई न करें। ज्योति बिंदु या काले बिंदु पर त्राटक का अभ्यास करें। अपनी अनमोल आँखों का ख्याल रखेंगे तो ये आपकी जीवन भर सेवा करेंगी एवं साथ निभायेंगी।
इस संसार में प्राणीमात्र के लिए आँखें भगवान की एक अनुपम देन हैं। आँखें स्वस्थ रहें एवं आजीवन साथ निभायें, यह प्रत्येक जीवधारी की अभिलाषा रहती है। बिना आँखों के संसार मात्र अंधकार है। कहा भी है – आँख है तो जहान है। स्वस्थ आँखों के बिना जीवन अधूरा है। ऐसी उपयोगी आँखो के स्वास्थ्य के लिए हम बहुत कम ध्यान देते हैं। यदि कुछ सरल सी बातों को अपने दैनिक जीवन में उतार लिया जाय तो ईश्वर की ये अनुमोल देन जीवनभर हमारा साथ निभायेंगी। पढ़ते समय प्रकाश सामने व थोड़ा बांयी ओर से आये ऐसी व्यवस्था करें। पुस्तक को लगभग एक फिट दूर रखकर पढ़ें अथवा लिखें।
बहुत तेज प्रकाश और बहुत कम प्रकाश में पढ़ाई न करें। बहुत झुककर या लेटकर पढ़ाई न करें। बिजली या धूप की तेज रोशनी में पढ़ना ठीक नहीं। चूल्हे पर, धुँए में या चकाचौंध रोशनी में कभी कार्य न करें। इससे Vitamin “A” की कमी हो जाती है। कार में बैठकर यात्रा करते हुए पढ़ने से और भोजन के तत्काल बाद पढ़ने से नेत्रों को हानि पहुँचती है। बिना दबाव व तनाव के स्वाभाविक रूप से देखने की आदत डालें। घूर घूर कर नहीं देखें। बीच-बीच में पलकें झपकातें रहें। T. V. कार्यक्रम, फिल्म, कम्प्यूटर कार्य में स्क्रीन की ओर लगातार न देखें। इनके एकदम सामने न बैठ थोड़ा दूर व तिरछा बैठें। बीच-बीच में Palming व गर्दन का व्यायाम करें, व आँखों पर ठंडे पानी के छींटे डालकर धोयें। अनुचित आहार व दोषपूर्णरक्त संचार भी नेत्र रोगों के प्रमुख कारण है। आँखों के रोगों से बचने व मुक्त होने के लिए आहार विहार के संयम द्वारा शरीर शुद्धि व कब्ज से मुक्ति एक प्रमुख आधार है। आहार में फल व हरी सब्जियों व सलाद की मात्रा अधिक रखें। अंकुरित मूंग व चने भी उत्तम हैं। गाजर, चुकन्दर व आंवलों का रस नेत्र ज्योति हेतु उत्तम है।
फल, हरी सब्जियां,सलाद आदि का अप्राकृतिक आहार जैसे डिब्बाबंद (Packed), परिरक्षित (Preserved), परिष्कृत (Refined) व तले हुए (Deep Fried) खाद्यों से दूर रहें।लगातार मानसिक दबाव व तनाव बने रहने से गर्दन के पीछे की रीढ़ की हड्डी कड़ी हो जाती है व आसपास की मांसपेशियां सिकुड़ जाती हैं, जो कि नेत्र दोषों का प्रमुख कारण हैं। चिंता, नकारात्मक विचार, भय, घृण, मानसिक तनाव, किसी दबाव आदि से मुक्त रहने का प्रयास करें। पॉमिंग (Palming) : नेत्रों को सहज ही ठंडक व विश्राम देने की यह एक सर्वश्रेष्ठ विधि है। इसमें आँखों को बिना स्पर्श किये हथेलियों से ढका जाता है तथा उसमें आँख खोलकर अंधकार का दर्शन किया जाता
मस्तिष्क व आँखों को शिथिलीकरणतथा पॉमिंग द्वारा कार्यों के बीच में विश्राम देते रहना उत्तम है। नेत्र-स्नान कागासन की स्थिति में बैठकर अथवा वॉश बेसिन पर सहब झुककर मुँह में पानी भर ले। तत्पश्चात् आँखों पर ठंडे पानी के १०-१५ चार छींटे मारे। फिर मुँह से पानी छोड़ दें। पुनः मुँह में पानी भरकर क्रिया दोहरायें। ऐसी ३ क्रियायें करें। इस क्रिया से नेत्र ज्योति बढ़ती है। मस्तिष्क की गर्मी दूर होने से सिरदर्द, आँखों की थकान व जलन दूर होती है। रात्रि विश्राम के पहले इस क्रिया को करने से नींद अच्छी आती है। सावधानियाँ – जिन्हें मोतियाबिन्द हो, हाल ही में आँखों का ऑपरेशन हुआ हो या आँखें सदैव लाल रहती हों, वे कृपया यह नेत्र-स्नान क्रिया न करें। 1 लिटर पानी में 50gm त्रिफला, मिट्टी के बर्तन में रात को भिगोयें व प्रातःमसल कर छानकर नेत्र स्नान करें। अथवा हरी बोतल में रखें पानी से आँखें धोयें।
सूर्य स्नान सूर्योदय व सूर्यास्त की किरण का (Visible rays का) 5 मिनट तक बंद नेत्रों से धूप-स्नान लेना भी दृष्टिदोषों को दूर करने में सर्वोत्तम है। इसके बाद पॉमिंग व ठंडे पानी के छीटों द्वारा नेत्र स्नान करें। जल-नेति: नेत्रों की ज्योति व स्वास्थ्य के लिये यह सर्वोत्तम है। इसे सीखें व करें। सप्ताह में एक बार करना पर्याप्त है।आँखों के तथा गर्दन के विभिन्न व्यायाम सीखें व नियमित करें।
आसन : नेत्र रोगों को दूर करने में सर्वांगासन, योगमुद्रासन, हस्तपाद चक्रासन, शीर्षासन, भूमिपाद शिरासन आदि बहुत उपयोगी आसन हैं। नियमित धूप स्नान, वायु स्नान, उषा: पान, व्यायाम, उपवास आदि से नेत्र जीवन भर आपका साथ निभायेंगे।
प्राणायाम : नाडी शोधन व भस्त्रिका प्राणायाम उपयोगी हैं। इन्हें सीखें व करें। त्राटक : किसी ज्योति बिंदु या काले बिंदु पर नेत्रों को स्थिर करें। पांच मिनट से प्रारम्भ कर 30 मिनट तक अभ्यास बढायें। इससे नेत्र ज्योति कई गुना बढ़ जाती है। सकारात्मक विचारों द्वारा मन-मस्तिष्क को स्वस्थ व तनाव मुक्त रखें।
प्रातः हरी घास पर नंगे पैर आधा घंटा टहलें तथा हरियाली दर्शन करें। रोज प्रातः व रात्रि में पावों के तलवों की तिल या सरसों के तेल से मालिश करें। मैले हाथों या गंदे कपड़े से आँखों को कभी पोछें या मलें नहीं। दाँतों के स्वास्थ्य व सफाई पर भी ध्यान दें। दाँत मजबूत होंगे तो नेत्र ज्योति भी तेज होगी। यथासम्भव ठण्डे जल से स्नान करें। नेत्रों हेतु लाभकारी है। सौंफ का बारीक चूर्णकर उसमें बराबर भाग मिश्री या चीनी पाउडर मिलाकर रख लें। रात्रि सोने से पहले एक चम्मच लें। यह नेत्र ज्योति के लिए उत्तम है।
यह सब उपाय करते हुए सकारात्मक चिंतन करना मुख्य अंग है। यह अनुभव सिद्ध बात है कि व्यक्ति जैसा सोचता है व करता है, वह वैसा ही बन जाता है। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक शक्तियां अनंत है। वह इनका साधारणत: ६ से १०% ही उपयोग कर पाता है, शेष शक्तियां सुप्त पड़ी रहती है। इन शक्तियों के जागरण का प्रमुख आधार है सकारात्मक चिन्तन सकारात्मक चिंतन के अभ्यास की साधना सर्व साधनाओं है। सर्व साधनाओं का लक्ष्य है जीवन में सकारात्मक चितन का विकास। इसके बिना कोई भी साधना अधूरी ही कही जायेगी। निरंतर रचनात्मक कार्यों में लगे रहने का फल सदा शहद जैसा मीठा ही होता है। सर्व महापुरूष एवं जीवन के सर्व अनुभव हमें सकारात्मक व रचनात्मक चिन्तन की ओर ईशारा करते हैं। एक सकारात्मक चिन्तन वाला व्यक्ति यमराज का भी मुस्कराते हुए नए जन्म के रूप में स्वागत करता है, अंधकार की शिकायत करने के बजाय वह सितारों का आनंद लेता है। जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी वह करूणामय ईश्वर की करूणा एवं कल्याण के दर्शन करता है। वह नम्र व विनयशील अवश्य रहता है लेकिन कायर या निर्बल नहीं होता। वह आत्मबल से सम्पन्न एवं आत्मविश्वास से भरपूर होता है। वह मानता है कि संसार में कोई भी व्यक्ति, वस्तु, वैभव, परिस्थिति किसी को दु:ख व कष्ट नहीं दे सकते। अच्छी-बुरी सर्व परिस्थितियों को वह अपने ही पूर्व में बोये कर्म रूपी बीजों के फल मान सहर्ष स्वीकार करता है। कर्मफल धूप छाँव की तरह जीवन में आकर विदा हो जाते हैं, सकारात्मक चिंतनयुक्त व्यक्ति स्वयं साक्षी रहते हुए, जीवन रूपी नाटक के इन दृष्यों को देखते सदा हर्षित व रहता है।
सकारात्मक चिंतन का अभ्यास करते वह अखिल ब्रह्माण्ड के प्राकृतिक व शाश्वत सिद्धांतों, कर्मफल के अटल विधान तथा ईश्वरीय न्याय पर पूर्ण श्रद्धा व निष्ठा रखता है। वह सदा अपने विचारों को पवित्र, वाणी को शहद जैसी मीठी व रत्नों से अनमोल तथा कर्मों को श्रेष्ठ, दिव्य गुणों से महकता रखता है। धन्य हैं वे जो जीवन में सकारात्मक चिंतन का अभ्यास करते हैं। धन्य है वे माँ-बाप जो अपने बच्चों को सकारात्मक चिंतन के संस्कार विरासत में देकर जाते हैं। आइए! जीवन में सकारात्मक चिंतन के विकास हेतु हम आज से व अभी से ही प्रयास प्रारम्भ करें एवं इनके द्वारा जीवन में सच्ची सुख-शांति, आनंद, प्रेम की प्राप्ति हेतु श्रेष्ठ कर्मों के बीजों को बोयें।
मनुष्य के शरीर का विज्ञान अदभूत हैं। मनुष्य के शरीर का हर एक अवयव अपने योग्य स्थान पर अपना कार्य सुचारू रूप से करता है। मानव शरीर यह वह मशीन है, जो आपका हर समय में आपका साथ निभाती है। हमारे शरीर के प्रत्येक क्रिया का वैज्ञानिक आधार होती है।अगर शरीर पर कुछ घाव हो जाए तो शरीर अपने आप उस घाव को ठीक करता है। शरीर में अशुद्धि जमा होने पर उस टॉक्सिन को शरीर के बाहर निकले की क्रिया भी अपने आप शरीर करता है। इंटेलेंजेंस का खज़ाना है, मानव शरीर। हमे ध्यान देकर प्रत्येक क्रिया को समझना है। पूर्ण स्वस्थता को प्राप्त होना हमारा मूल कर्तव्य है। स्वास्थ को आकर्षित किया जाए तो हमे स्वास्थ निरोगी होने से कोई नही रोक सकता। मनुष्य शरीर इस अखिल ब्रह्माण्ड का छोटा स्वरूप है। इस शरीर रूपी काया को व्यापक प्रकृति की अनुकृति कहा गया है। विराट् का वैभव इस पिण्ड के अन्तर्गत बीज रूप में प्रसुप्त स्थिति में विद्यमान है। कषाय-कल्मषों का आवरण चढ़ जाने से उसे नर पशु की तरह जीवनयापन करना पड़ता है। यदि संयम और निग्रह के आधार पर इसे पवित्र और प्रखर बनाया जा सके, तो इसी को ऋद्धि-सिद्धियों से ओत-प्रोत किया जा सकता है । कोयला ही हीरा होता है। पारे से मकरध्वज बनता है। यह अपने आपको तपाने का तपश्चर्या का चमत्कार है।
जीवात्मा परमात्मा का अंशधर ज्येष्ठ पुत्र, युवराज है। संकीर्णता के भव-बन्धनों से छूटकर वह “आत्मवत् सर्व भूतेषु” की मान्यता परिपुष्ट कर सके, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना परिपक्व कर सके, तो जीवन में स्वर्ग और मुक्ति का रसास्वादन कर सकता है। जीव को ब्रह्म की समस्त विभूतियाँ हस्तगत करने का सुयोग मिल सकता है। हम काया को तपश्चर्या से तपायें और चेतना को परम सत्ता में योग द्वारा समर्पित करें तो नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम, क्षुद्र महान् बनने का सुयोग निश्चित रूप से मिल सकता है।
सृष्टि की रचना में सूर्य और चन्द्र का महत्वपूर्ण स्थान होता है। हमारा जीवन अन्य ग्रहों की अपेक्षा सूर्य और चन्द्र से अधिक प्रभावित होता है उसी के कारण दिन-रात होते हैं तथा जलवायु बदलती रहती है। समुद्र में तेज बहाव भी सूर्य एवं चंद्र के कारण आता है। हमारे शरीर में भी लगभग दो तिहाई भाग पानी होता है। सूर्य और चन्द्र के गुणों में बहुत विपरीतता होती है। एक गर्मी का तो दूसरा ठण्डक का स्रोत माना जाता है। सर्दी और गर्मी सभी चेतनाशील प्राणियों को बहुत प्रभावित करते हैं। शरीर का तापमान 98.4 डिग्री फारेनाइट निश्चित होता है और उसमें बदलाव होते ही रोग और अशुद्धि होने की संभावना होने लगती है।
मनुष्य के शरीर में भी सूर्य और चन्द्र की स्थिति शरीरस्थ नाड़ियों में मानी गई है। मूलधार चक्र से सहस्रार चक्र तक शरीर में 72000 नाड़ियों का हमारे पौराणिक ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है। स्वर विज्ञान सूर्य, चन्द्र आदि यहाँ को शरीर में स्थित इन सूक्ष्म नाड़ियों की सहायता से अनुकूल बनाने का विज्ञान है। स्वर क्या है ? नासिका द्वारा श्वास के अन्दर जाने और बाहर निकालते समय जो अव्यक्त ध्वनि होती है, उसी को स्वर कहते हैं। नाड़ियाँ क्या है ? नाडियाँ चेतनशील प्राणियों के शरीर में वे मार्ग हैं, जिनमें से होकर प्राण ऊर्जा शरीर के विभिन्न भागों तक प्रवाहित होती है। हमारे शरीर में तीन मुख्य नाडियाँ होती है। ये तीनों नाडियाँ मूलधार चक्र से सहस्रार चक्र तक मुख्य रूप से चलती है। इनके नाम ईंडा, पिंगला और सुषुम्ना है। इन नाड़ियों का सम्बन्ध संपूर्ण शरीर से नहीं होता। अतः आधुनिक यंत्रों, एक्स, सोनोग्राफी आदि यंत्रों से अभी तक उनको प्रत्यक्ष देखना संभव नहीं हो सका है। जिन स्थानों पर ईडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियाँ आपस में मिलती है, उनके संगम को शरीर में ऊर्जा चक्र अथवा शक्ति केन्द्र कहते हैं।
ईडा और पिंगला नाड़ी तथा दोनों नासिका रंध्र से प्रवाहित होने वाली श्वास के बीच सीधा संबंध होता है, सुषुम्ना के बांयी तरफ ईंडा और दाहिनी तरफ पिंगला नाड़ी होती है। ये दोनों नाड़ियाँ मूलधार चक्र से उगम होकर अपना क्रम परिवर्तित करती हुई षटचक्रों का भेदन करती हुई कपाल तक बढ़ती हैं। प्रत्येक चक्र पर एक दूसरे को काटती हुई आगे नाक के नथुनों तक पहुंचती है। उनके इस परस्पर सम्बन्ध के कारण ही व्यक्ति नासिका से प्रवाहों को प्रवाहित करके अत्यन्त सूक्ष्म स्तर पर ईंडा और पिंगला नाड़ी में संतुलन स्थापित कर सकता है। श्वसन में दोनों नथूनों की भूमिका जन्म से मृत्यु तक हमारे श्वसन की क्रिया निरन्तर चलती रहती है। यह क्रिया दोनों नथुने से एक ही समय समान रूप से प्राय: नहीं होती। श्वास कभी बाये नथुने से, तो कभी दाहिने नथुने से चलता है। कभी-कभी थोड़े समय के लिए दोनों नथुने से समान रूप से चलता है।
बांये नथूने से जब श्वास प्रक्रिया होती है तो चन्द्र स्वर का चलना, दाहिने नथूने में जब श्वास की प्रक्रिया मुख्य होती है तो उसे सूर्य स्वर का चलना तथा जब श्वास दोनों नथूने के समान रूप से चलता है तो उस अवस्था को सुषुम्ना स्वर का चलना कहते हैं। एक नथुने को दबाकर दूसरे नथूने के द्वारा श्वास बाहर निकालने पर यह स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है कि एक नथूने से जितना सरलतापूर्वक श्वास चलता है उतना उसी समय प्रायः दूसरे नथूने से नहीं चलता। जुकाम आदि न होने पर भी मानों दूसरा नथूना प्रायः बन्द है, ऐसा अनुभव होता है। जिस नथूने से श्वास सरलतापूर्वक चलता है, उसी समय उसी स्वर से सम्बन्धित नाड़ी में श्वास का चलना कहा जाता है तथा उस समय अव्यक्त स्वर को उसी नाड़ी के नाम से पहचाना जाता है। अतः ईडा नाड़ी के चलने पर ईंडा स्वर, पिंगला नाड़ी के चलने पर पिंगला स्वर और सुषुम्ना से श्वसन होने पर सुषुम्ना स्वर प्रभावी होता है।
Central nervous system
ईडा और पिंगला श्वास प्रवाह का सम्बन्ध सिम्पथेटिक और पेरासिम्पथेटिक स्नायु संस्थान से होता है, जो शरीर के विभिन्न क्रिया कलापों का नियन्त्रण और संचालन करते हुए उन्हें परस्पर संतुलित बनाए रखता है। ईडा और पिंगला दोनों स्वरों का कार्य क्षेत्र कुछ समानताओं के बावजूद अलग-अलग होता है। ईडा का संबंध ज्ञानवाही धाराओं, मानसिक क्रिया कलापों से होता है। पिंगला का संबंध क्रियाओं से अधिक होता है। अर्थात् इडा शक्ति का आन्तरिक रूप से होती है, जबकि पिंगला शक्ति का बाह्य रूप से होता है। तथा सुषुम्ना केन्द्रीय शक्ति होती है, उसका संबंध केन्द्रीय नाड़ी संस्थान (Central Nervous System) से होता है। जब पिंगला स्वर प्रभावी होता है, उस समय शरीर की बाह्य क्रियाएँ सुगमता से होने लगती है। शारीरिक ऊर्जा दिन के समान सजग, सक्रिय और जागृत होने लगती है। अतः पिंगला नाड़ी को सूर्य नाड़ी एवं उसके स्वर को सूर्य स्वर भी कहते हैं। परन्तु जब ईडा स्वर सक्रिय होता है तो उस समय शारीरिक शक्तियाँ सुषुप्त अवस्था में विश्राम कर रहीं होती है। अतः आन्तरिक कार्यों हेतु अधिक ऊर्जा उपलब्ध होने से मानसिक सजगता बढ़ जाती है। चन्द्रमा से मन और मस्तिष्क अधिक प्रभावित होता है क्योंकि चन्द्रमा को मन का स्वामी भी कहते हैं। अतः ईडा नाड़ी को चन्द्र नाड़ी और उसके स्वर को चन्द्र स्वर भी कहते हैं। चन्द्र नाड़ी शीतलता प्रधान होती है, जबकि सूर्य नाड़ी उष्णता प्रधान होती है। सुषुम्ना दोनों के बीच संतुलन रखती है। सूर्य स्वर मस्तिष्क के बायें भाग एवं शरीर में मस्तिष्क के नीचे के दाहिने भाग को नियन्त्रित करता है, जबकि चन्द्र स्वर मस्तिष्क के दाहिने भाग एवं मस्तिष्क के नीचे शरीर के बायें भाग से संबंधित अंगों, में अधिक प्रभावकारी होता है जो स्वर ज्यादा चलता है, शरीर में उससे संबंधित भाग को अधिक ऊर्जा मिलती है। तथा बाकी दूसरे भागों को अपेक्षित ऊर्जा नहीं मिलती। अतः जो अंग कमजोर होता है, उससे संबंधित स्वर को चलाने से रोग में लाभ होता है।
स्वस्थ मनुष्य का स्वर प्रकृति के निश्चित नियमों के अनुसार चला करता है। उनका अनियमित प्रकृति के विरूद्ध चलना शारीरिक और मानसिक रोगों के आगमन और भविष्य में अमंगल का सूचक होता है। ऐसी स्थिति में स्वरों को निश्चित और व्यवस्थित ढंग से चलाने के अभ्यास से अनिष्ट और रोगों से न केवल रोकथाम होती है, अपितु उनका उपचार भी संभव है। शरीर में कुछ भी गड़बड़ होते ही गलत स्वर चलने लग जाता है। नियमित रूप से सही स्वर अपने निर्धारित समयानुसार तब तक नहीं चलने लगता, जब तक शरीर पूर्ण रूप से रोग मुक्त नहीं हो जाता। स्वर नियन्त्रण स्वास्थ्य का मूलाधार स्वर विज्ञान भारत के ऋषि मुनियों की अद्भुत खोज है। उन्होंने मानव शरीर की प्रत्येक क्रिया प्रतिक्रिया का सूक्ष्मता से अध्ययन किया, देखा, परखा तथा श्वास-प्रश्वास की गति, शक्ति, सामर्थ्य के सम्बन्ध में आश्चर्य चकित कर देने वाली जो जानकारी हमें दी उसके अनुसार मात्र स्वरों को आवश्यकतानुसार संचालित नियन्त्रित करके जीवन की सभी समस्याओं का समाधान पाया जा सकता है। जिसका विस्तृत विवेचन “शिव स्वरोदय शास्त्र” में किया गया है। जिसमें योग के जनक आदियोगी शिव ने स्वयं पार्वती को स्वर के प्रभावों से परिचित कराया हैं।
मां प्रकृति ने हमें अपने आपको स्वस्थ और सुखी रहने के लिए सभी साधन और सुविधाएँ उपलब्ध करा रखी है, परन्तु हम प्रायः मां प्रकृति की भाषा और संकेतों को समझने का प्रयास नहीं करते। हमारे नाक में दो नथुने क्यों ? यदि इनका कार्य मात्र श्वसन ही होता तो एक छिद्र में भी कार्य चल सकता है। दोनों में हमेशा एक साथ बराबर श्वास प्रश्वास की प्रक्रिया क्यों नहीं होती? कभी एक नथुने में श्वास का प्रवाह सक्रिय है तो कभी दूसरे में क्यों ? क्या हमारी गतिविधियों और श्वास का आपसी तालमेल होता है। हमारी क्षमता का पूरा उपयोग क्यों नहीं होता? कभी-कभी कार्य करने में मन लग जाता है, तो कभी बहुत प्रयास करने के बावजूद हमारा मन क्यों नहीं लगता? ऐसी समस्त समस्याओं का समाधान स्वर विज्ञान में मिलता है। शरीर की बनावट में प्रत्येक भाग का कुछ न कुछ महत्व पूर्ण कार्य अवश्य होता है। कोई भी भाग अनुपयोगी अथवा पूर्णतया व्यर्थ नहीं होता। स्वरों और मुख्य नाड़ियों का आपस में एक दूसरे से सीधा सम्बन्ध होता है। ये व्यक्ति के सकारात्मक और नकारात्मक भावों का प्रतिनिधित्व करती है, जो उसके भौतिक अस्तित्व से सम्बन्धित होते हैं। उनके सम्यक संतुलन से ही शरीर के ऊर्जा चक्र जागृत रहते हैं। ग्रन्थियाँ क्रियाशील होती है। चन्द्र नाड़ी और सूर्य नाड़ी में प्राणवायु का प्रवाह नियमित रूप से बदलता रहता है।
सामान्य परिस्थिति मे यह परिवर्तन प्रायः प्रति घंटे के लगभग अन्तराल में होता है। परन्तु ऐसा भी होना अनिवार्य नहीं होता। यह परिवर्तन हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है। जब हम अन्तर्मुखी होते हैं, उस समय प्रायः चन्द्र स्वर तथा जब हम बाह्य प्रवृत्तियों में सक्रिय होते हैं तो सूर्य स्वर अधिक प्रभावी होता है। यदि चन्द्र स्वर की सक्रियता के समय हम शारीरिक श्रम के कार्य करें तो उस कार्य में प्राय: मन नहीं लगता। उस समय मन अन्य कुछ सोचने लग जाता है। ऐसी स्थिति में यदि मानसिक कार्य करें तो बिना किसी कठिनाई के वे कार्य सरलता से हो जाते है। ठीक जब सूर्य स्वर चल रहा हो और उस समय यदि हम मानसिक करते हैं तो उस कार्य में मन नहीं लगता,और एकाग्रता नहीं आती। इसके बावजूद भी जबरदस्ती कार्य करते हैं तो सिर दर्द होने लगता है। कभी-कभी सही स्वर चलने के कारण मानसिक कार्य बिना किसी प्रयास के होते चले जाते हैं तो, कभी कभी शारीरिक कार्य भी पूर्ण रुचि और उत्साह के साथ होते हैं।
यदि सही स्वर में सही कार्य किया जाए तो हमें प्रत्येक कार्य में अपेक्षित सफलता सरलता से प्राप्त हो सकती है। जैसे अधिकांश शारीरिक श्रम वाले साहसिक कार्य जिसमें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, सूर्य स्वर में ही करना अधिक लाभदायक होता है। सूर्य स्वर में व्यक्ति की शारीरिक कार्य क्षमता बढ़ती है। ठीक उसी प्रकार जब चन्द्र स्वर चलता है, उस समय व्यक्ति में चिन्तन, मनन और विचार करने की क्षमता बढ़ती है। स्वर द्वारा ताप संतुलन जब चन्द्र स्वर चलता है तो शरीर में गर्मी का प्रभाव घटने लगता है। अतः गर्मी सम्बन्धित रोगों एवं बुखार के समय चन्द स्वर को चलाया जाये तो बुखार शीघ्र ठीक हो सकता है। ठीक उसी प्रकार भूख के समय जठराग्नि,उत्तेजना के समय प्रायः मानसिक गर्मी अधिक होती है। अतः ऐसे समय चन्द्र स्वर को सक्रिय रखा जाये तो उन पर सहजता से नियन्त्रण पाया जा सकता है।
शरीर में होने वाले जैविक रासायनिक परिवर्तन जो कभी शान्त और स्थिर होते हैं तो कभी तीव्र और उम्र भी होते हैं। जब शरीर में उष्णता का असंतुलन होता है, तो शरीर में रोग होने लगते हैं। अतः यह प्रत्येक व्यक्ति के स्व विवेक पर निर्भर करता है, कि उसके शरीर में कितना उष्णता असंतुलन है। उसके अनुरूप अपने स्वरों का संचालन कर अपने आपको स्वस्थ रखें। जब दोनों स्वर बराबर चलते हैं, शरीर की आवश्यकता के अनुरूप चलते है, तो व्यक्ति स्वस्थ रहता है। दिन में सूर्य के प्रकाश और गर्मी के कारण प्राय: शरीर में गर्मी अधिक रहती है। अतः सूर्य स्वर से सम्बन्धित कार्य करने के अलावा जितना ज्यादा चन्द्र स्वर सक्रिय होगा उतना स्वास्थ्य अच्छा होता है। इसी प्रकार रात्रि में दिन की अपेक्षा ठण्डक ज्यादा रहती है। चांदनी रात्रि में इसका प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है। श्रम की कमी अथवा निद्रा के कारण भी शरीर में निष्क्रियता रहती है। अतः उसको संतुलित रखने के लिए सूर्य स्वर को अधिक चलाना चाहिए। इसी कारण जिन व्यक्तियों के दिन में चन्द्र स्वर और रात में सूर्य स्वर स्वभाविक रूप से अधिक चलता है ये मानव प्रायः दीर्घायु होते हैं।
चन्द्र और सूर्य स्वर का असन्तुलन ही थकावट, चिंता तथा अन्य रोगों को जन्म देता है। अतः दोनों का संतुलन और सामन्जस्य स्वस्थता हेतु अनिवार्य है। चन्द्र नाड़ी का मार्ग निवृत्ति का मार्ग है, परन्तु उस पर चलने से पूर्व सम्यक् सकारात्मक सोच आवश्यक है। इसी कारण “पतंजली योग” और “कर्म निर्जरा” के भेदों में ध्यान से पूर्व स्वाध्याय की साधना पर जोर दिया गया है। स्वाध्याय के अभाव में नकारात्मक निवृत्ति का मार्ग हानिकारक और भटकाने वाला हो सकता है। आध्यात्मिक साधकों को चन्द्र नाड़ी की क्रियाशीलता का विशेष ध्यान रखना चाहिये। लम्बे समय तक रात्रि में लगातार चन्द्र स्वर चलना और दिन में सूर्य स्वर चलना, रोगी को अशुभ स्थिति का सूचक होता है, और उसका आयुष्य कम होता चला जाता हैं। सूर्य नाड़ी का कार्य प्रवृत्ति का मार्ग है। यह वह मार्ग है जहां भीतर का गौण होता है। व्यक्ति अपने व्यक्तिगत लाभ तथा महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु कठिन परिश्रम करता है। कामनाओं और वासनाओं की पूर्ति हेतु प्रयत्नशील होता है। इसमें चेतना अत्यधिक बहिर्मुखी होती है। अतः ऐसे व्यक्ति आध्यात्मिक पथ पर सफलता पूर्वक आगे नहीं बढ़ पाते।
चन्द्र और सूर्य नाड़ी के क्रमशः प्रवाहित होते रहने के कारण ही व्यक्ति उच्च सजगता में प्रवेश नहीं कर पाता। जब तक ये क्रियाशील रहती है, योगाभ्यास में अधिक प्रगति नहीं हो सकती। जिस क्षण ये दोनों शांत होकर सुषुम्ना के केन्द्र बिन्दु पर आ जाती है तभी सुषुम्ना की शक्ति जागृत होती है और यहीं से अन्तर्मुखी ध्यान का प्रारम्भ होता है। चन्द्र और सूर्य नाड़ी में जब श्वांस का प्रवाह शांत हो जाता है तो सुषुम्ना में प्राण प्रवाहित होने लगता है। इस अवस्था में व्यक्ति की सुप्त शक्तियाँ सुव्यवस्थित रूप से जागृत होने लगती है। अतः वह समय अन्तर्मुखी साधना हेतु सर्वाधिक उपर्युक्त होता है। व्यक्ति में अहं समाप्त होने लगता है। अहं और आत्मज्ञान उसी प्रकार एक साथ नहीं रहते, जैसे दिन के प्रकाश में अन्धेरे का अस्तित्व नहीं रहता। अपने अहंकार को न्यूनतम करने का सबसे उत्तम उपाय सूर्य नाड़ी और चन्द्र नाड़ी के प्रवाह को संतुलित करना है। जिससे हमारे शरीर, मन और भावनायें कार्य के नये एवं परिष्कृत स्तरों में व्यवस्थित होने लगती है। चन्द्र और सूर्य नाड़ी का असंतुलन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करता है। जीवन में सक्रियता व निष्क्रियता में इच्छा व अनिच्छा में सुसुप्ति और जागृति में, पसन्द और नापसन्द में, प्रयत्न और प्रयत्नशीलता में, पुरुषार्थ और पुरुषार्थ हीनता में, विजय और पराजय में, चिन्तन और निश्चितता में तथा स्वछन्दता और अनुशासन में दृष्टिगोचर होता है।
जब चन्द्र नाड़ी से सूर्य नाड़ी में प्रवाह बदलता है तो इस परिवर्तन के समय एक सौम्य अथवा संतुलन की अवस्था आती है। उस समय प्राण ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी से प्रवाहित होती है। अर्थात् यह कहना चाहिये कि सुषुम्ना स्वर चलने लगता है। यह तुरीया अवस्था मात्र थोड़ी देर के लिए ही होती है। यह समय ध्यान के लिए सर्वोत्तम होता है। ध्यान की सफलता के लिए प्राण ऊर्जा का सुषुम्ना में प्रवाह आवश्यक है। इस परिस्थिति में व्यक्ति न तो शारीरिक रूप से अत्यधिक क्रियाशील होता है और न ही मानिसक रूप से विचारों से अति विक्षिप्त प्राणायाम एवं अन्य विधियों द्वारा इस अवस्था को अपनी इच्छानुसार प्राप्त किया जा सकता है। यही कारण है कि योग साधना में प्राणायाम को इतना महत्व दिया जाता । प्राणायाम को औषधि माना गाय है। कपाल भाति प्राणायाम करने से सुषुम्ना स्वर शीघ्र चलने लगता है।
नथुने के पास अपनी अंगुलियाँ रख श्वसन क्रिया का अनुभव करें। जिस समय जिस नथुने से श्वास प्रवाह होता है, उस समय उस स्वर की प्रमुखता होती है। बाए नथुने से श्वास चलने पर चन्द्र स्वर, दाहिने नथूने से श्वास चलने पर सूर्य स्वर तथा दोनों नथून से श्वास चलने को सुषुम्ना स्वर का चलना कहते है।स्वर को पहचानने का दूसरा तरीका है कि हम बारी-बारी से एक नथूना बंद कर दूसरे नबूने से श्वाल लें और छोड़े। जिस नथुने से श्वसन सरलता से होता है, उस समय उससे सम्वन्धित स्वर प्रभावी होता है। स्वर बदलने के नियम अस्वभाविक अथवा प्रवृत्ति की आवश्यकता के विपरीत स्वर शरीर में अस्वस्थता का सूचक होता है। निम्न विधियों द्वारा स्वर को सरलतापूर्वक कृत्रिम ढंग से बदला जा सकता है, ताकि हमें जैसा कार्य करना हो उसके अनुरूप स्वर का संचालन कर प्रत्येक कार्य को सम्यक् प्रकार से पूर्ण क्षमता के साथ कर सके।
1.जो स्वर चलता हो, उस नथुने को अंगुलि से या अन्य किसी विधि द्वारा थोड़ी देर तक दबाये रखने से, विपरीत इच्छित वर चलने लगता है।
2. चालू स्वर वाले नथूने से पूरा श्वास ग्रहण कर बन्द नथूने से श्वास छोड़ने की क्रिया बार-बार करने से बन्द जो स्वर चालू करना हो, शरीर में उसके विपरीत भाग की तरफ करवट लेकर सोने से स्वर चलने लगता है।
3. जिस तरफ का स्वर बंद करना हो उस तरफ की बगल में दबाब देने से चालू स्वर बंद हो जाता है तथा इसके विपरीत दूसरा स्वर चलने लगता है। जो स्वर बंद करना हो, उसी तरफ के पैरों पर दबाव देकर थोड़ा झुककर उसी तरफ खड़ा रहने से उस तरफ का स्वर बन्द हो जाता है।
4. जो स्वर बंद करना हो, उधर गर्दन को घुमाकर ठोड़ी पर रखने से कुछ मिनटों में वह स्वर बन्द हो जाता है। चलित स्वर में स्वच्छ रुई डालकर नथुने में अवरोध उत्पन्न करने से स्वर बदल जाता है।
5. कपाल भाति और नाड़ी शोधन प्राणायाम से सुषुम्ना स्वर चलने लगता है।
निरन्तर चलते हुए सूर्य या चन्द्र स्वर के बदलने के सारे उपाय करने पर भी यदि स्वर न बदले तो रोग असाध्य होता है। उस व्यक्ति की मृत्यु समीप होती है। मृत्यु के उक्त लक्षण होने पर भी स्वर परिवर्तन का निरन्तर अभ्यास किया जाय तो मृत्यु को कुछ समय के लिए टाला जा सकता है। वैसे तो शरीर में चन्द्र स्वर और सूर्य स्वर चलने की अवधि व्यक्ति की जीवनशैली और साधना पद्धति पर निर्भर करती है। परन्तु जनसाधारण में चन्द्र स्वर और सूर्य स्वर 24 घंटों में बराबर चलना अच्छे स्वास्थ्य का सूचक होता है। दोनों स्वरों में जितना ज्यादा असंतुलन होता है उतना ही व्यक्ति अस्वस्थ अथवा रोगी होता है। संक्रामक और असाध्य रोगों में यह अन्तर काफ़ी बढ़ जाता है। लम्बे समय तक एक ही स्वर चलने पर व्यक्ति की मृत्यु शीघ्र होने की संभावना रहती है। अतः सजगता पूर्वक स्वर चलने की अवधि को समान कर असाध्य एवं संक्रामक रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है। सजगता का मतलब जो स्वर कम चलता है उसको कृत्रिम तरिकों से अधिकाधिक चलाने का प्रयास किया जाए तथा जो स्वर ज्यादा चलता है, उसको कम चलाया जाये कार्यों के अनुरूप स्वर का नियन्त्रण और संचालन किया जाये। स्वस्थ जीवन का लक्षण हैं।
स्वर चिकित्सा प्रयोग विधि
1. गर्मी सम्बन्धी रोग गर्मी, प्यास, बुखार, पीत्त सम्बन्धी रोगों में चन्द्र स्वर चलाने से शरीर में शीतलता बढ़ती है, जिससे गर्मी से उत्पन्न असंतुलन दूर हो जाता है। कफ सम्बन्धी रोग सर्दी, जुकाम, खांसी, दमा आदि कफ सम्बन्धी रोगों में सूर्य स्वर अधिकाधिक चलाने से शरीर में गर्मी बढ़ती है। सर्दी का प्रभाव दूर होता है।
2. आकस्मिक रोग जब रोग का कारण समझ में न आये और रोग की असहनीय स्थिति हो, ऐसे समय रोग का उपद्रव होते ही जो स्वर चल रहा है उसको बन्द कर विपरीत स्वर चलाने से तुरन्त राहत मिलती है। प्रत्येक व्यक्ति को स्वर में होने वाले परिवर्तनों का नियमित आंकलन और समीक्षा करनी चाहिए। दिन-रात चन्द और सूर्य स्वर का बराबर चलना संतुलित स्वास्थ्य का सूचक होता है।
एक स्वर ज्यादा और दूसरा स्वर कम चले तो शरीर में असंतुलन की स्थिति बनने से रोग होने की संभावना रहती है। हम स्वर के अनुकूल जितनी ज्यादा प्रवृत्तियां करेंगे, उतनी अपनी क्षमताओं का अधिकाधिक लाभ अर्जित कर सकेंगे। “स्वरोदय विज्ञान” के अनुसार व्यक्ति प्रातः निद्रा त्यागते समय अपना स्वर देखें जो स्वर चल रहा है, धरती पर पहले वही पैर रखे बाहर अथवा यात्रा में जाते समय पहले वह पैर आगे बढ़ाये, जिस तरफ का स्वर चल रहा है। साक्षात्कार के समय इस प्रकार बैठे की साक्षात्कार लेने वाला व्यक्ति बन्द स्वर की तरफ हो, तो सभी कार्यों में इच्छित सफलता अवश्य मिलती है।
पंच महाभूत तत्त्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) तथा ज्योतिष के नवग्रह की स्थिति का भी हमारे स्वर से प्रत्येक परोक्ष सम्बन्ध होता है। शरीर में प्रत्येक समय अलग-अलग तत्वों की सक्रियता होती है। शरीर की रसायनिक संरचना में भी पृथ्वी और जल तत्त्व का अनुपात अन्य तत्त्वों से अधिक होता है। सारी दवाईयां प्रायः इन्हीं दो तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती है। अतः जब शरीर में पृथ्वी तत्त्व प्रभावी होता है, उस समय किया गया उपचार सर्वाधिक प्रभावशाली होता है। उससे कम जल तत्व की सक्रियता पर प्रभाव पड़ता है।
शरीर में किस समय कौनसा तत्त्व प्रभावी होता है, उनको निम्न प्रयोगों द्वारा मालूम किया जा सकता है। दोनों कान, दोनों आँखें, दोनों नथूने और मुंह बंद करने के पश्चात् यदि पीला रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में पृथ्वी तत्त्व प्रभावी होता है। सफेद रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में जल तत्त्व प्रभावी होता है। लाल रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में अग्नि तत्त्व प्रभावी होता है। काला रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में वायु तत्त्व प्रभावी होता है। मिश्रीत (अलग-अलग ) रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में आकाश तत्व प्रभावी होता है।
शरीर में किस समय कौनसा तत्त्व प्रभावी होता है
दोनों कान, दोनों आँखें, दोनों नथूने और मुंह बंद करने के पश्चात् यदि पीला रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में पृथ्वी तत्त्व प्रभावी होता है।
सफेद रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में जल तत्त्व प्रभावी होता है। लाल रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में अग्नि तत्त्व प्रभावी होता है।
काला रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में वायु तत्त्व प्रभावी होता है।
मिश्रीत (अलग-अलग ) रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में आकाश तत्व प्रभावी होता है।
मुख का स्वाद मधुर हो, उस समय पृथ्वी तत्त्व सक्रिय होता है।
मुख का स्वाद मधुर हो, उस समय पृथ्वी तत्त्व सक्रिय होता है। जब मुख का स्वाद कसैला हो, उस समय जल तत्व सक्रिय होता है। अब मुख का स्वाद तीखा हो, उस समय अग्नि तत्व सक्रिय होता है। जब मुख का स्वाद खट्टा हो, उस समय वायु तत्त्व सक्रिय होता है। मुख का स्वाद कड़वा हो, उस समय आकाश तत्व सक्रिय होता है। स्वच्छ दर्पण पर मुह से श्वांस छोड़ने पर (फूक मारने पर ) जो आकृति बनती है, वे उस समय शरीर में प्रभावी तत्त्व को दर्शाती है।
(a) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से चौकोन का आकार बनता हो तो, पृथ्वी तत्व की प्रधानता हैं।
(b ) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से त्रिकोण आकार बनता हो तो, अग्नि तत्त्व की प्रधानता।
(c) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से अर्द्ध चंद्राकार आकार बनता हो तो जल तत्व की प्रधानता। यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से वृत्ताकार (गोल) आकार बनता हो तो, वायु तत्त्व की प्रधानता है।
(d) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से मिश्रीत आकार बनता हो तो, आकाश तत्व की प्रधानता समझे। जिज्ञासु व्यक्ति अनुभवी जिज्ञासु “स्वरोदय विज्ञान” का अवश्य गहन अध्ययन करें। क्योंकि स्वर विज्ञान से न केवल रोगों से बचा जा सकता है, अपितु प्रकृति के अदृश्य रहस्यों का भी पता लगाया जा सकता है।
मानव देह में स्वर चिकित्सा ऐसी आश्चर्यजनक, सरल, स्वावलम्बी प्रभावशाली बिना किसी खर्च वाली चमत्कारी प्रणाली होती है, जिसका ज्ञान और सम्यक पालन होने पर किसी भी सांसारिक कार्यों में असफलता की प्रायः संभावना नहीं रहती। स्वर विज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति करने से साक्षात्कार ‘सफलता, भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वाभ्यास, सामने वाले व्यक्ति के अन्तरभावों को सहजता से समझा जा सकता है। जिससे प्रतिदिन उपस्थित होने वाली अप्रतिकूल परिस्थितियों से सहज बचा जा सकता है। अज्ञानवश स्वरोदय की जानकारी के अभाव से ही हम हमारी क्षमताओं से अनभिज्ञ होते हैं। रोगी बनते हैं तथा अपने कार्यों में असफल होते हैं। स्वरोदय विज्ञान प्रत्यक्ष फलदायक है, जिसको ठीक-ठीक लिपीबद्ध करना संभव नहीं।
फूल की सुन्दरता और महक उसकी किसी पंखुड़ी तक सीमित नहीं है। वह उसकी समूची सत्ता के साथ हुई है। आत्मिक प्रगति के लिए कोई योगाभ्यास विशेष करने से हो सकता है कि स्थूल शरीर या सूक्ष्म शरीर के कुछ क्षेत्र अधिक परिपुष्ट प्रतीत होने से और कई प्रकार की चमत्कारी सिद्धियां प्रदर्शित की जा सकें। आत्मा की महानता के लिए इतने भर से काम नहीं चलता। उसके के लिए जीवन के हर क्षेत्र को समर्थ, सुन्दर एवं सुविकसित होना चाहिए। दूध के कण-कण में घी समाया होता है। हाथ डालकर उसे किसी एक जगह से नहीं निकाला जा सकता। इसके लिए उस समूचे का मन्थन करना पड़ता है। जीवन एकांगी नहीं है। उसके किसी अवयव विशेष को या प्रकृति विशेष करे उभारने से काम नहीं चल सकता है। आवश्यक है कि, अन्तरंग और बहिरंग जीवन के हर पक्ष में उत्कृष्टता का समावेश किया जाए। ईश्वर का निवास किसी एक स्थान पर नहीं है। वह सत्प्रवृत्तियों को समुच्चय समझा जाता है। ईश्वर की आराधना के लिए आवश्यक है। कि व्यक्तित्व के समग्र पक्ष को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाया जाय। स्वयं में सत्प्रवृत्तियों का समावेश कर उसके समकक्ष बनने का प्रयास किया जाए।
भारत की वह अनोखी धरती जिसका स्वयं सुर्य परिचय देता हों। जिसका बहता हुआ जल भी किसी कवि की प्रेरणा बनता हो, जहां उगता हर अन्न का कण ऊर्जा का रोम रोम में देश भक्ति का संचार कराता हो। भारत की भूमि शौर्य का परिचय देती है, तो विशाल हृदय का दर्शन कराती है। भारत को जानना हैं, तो भारत के आध्यात्म के ज्ञान को आत्मसात् करना होगा। तब जाकर आप भारत को समझ पाएंगे। भारत केवल देश नहीं अपितु जीवन जीने तरीका है, जो मानव निर्माण का कार्य करता है, योग का संदेश देकर समस्त संसार को मार्ग दिखाने का कार्य करता है। भारत जगद्गुरू है। भारत को गुरू की नजरिया से देखने का प्रयास तो करो! अपने जीवन की समस्या का सुलझते पाएंगे। भारत की वह दिव्य ज्ञान गाथा हमे बोध कराती है, अनंत की शक्ति का। वह भारत भूमि जिसकी धरा पर निरंतर ब्रम्ह अवतरण का प्राकट्य होता हो। भारत को समझना और गर्व करना किसी दिव्य अनुभूति से कम नहीं है। जहां की सत्ता राम की उपासक हो, वेद जहां पूजे जातें हो, गुरुकुलो की शिक्षा अपने आप में स्वयं का बोध कराती हो, यह स्वरुप भारत माता हो। आज़ादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य पर हमे भारत की पहचान उसे लौटानी है। दिव्य संकल्प गूंज रहा है, जहां की संस्कृती हमे बुला रही है।
हमारा देश भारत हजारों वर्षों से आध्यात्मिक जगदगुरु रहा है। चार धामों की अवधारणा भारत में ही है। नौ बार इस भूमि पर भगवान ने जन्म लिया हैं। सैकड़ों ऋषि-मुनियों ने क्यों वेद-पुराणों की रचना भारत की धरती पर की हैं। और हजारों साधु-संतों ने अपनी वाणी से इस देश की धरती को गुंजायमान किया। यह सबकुछ क्या मात्र एक संयोग है या फिर इनके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण हैं? यह एक विचारणीय विषय है।अध्ययन करने से पता चलता है कि यह कोई संयोग नहीं है, बल्कि इसके पीछे कई वैज्ञानिक कारण हैं। सबसे मुख्य कारण भारत की भौगोलिक स्थिति है। भारत पृथ्वी के उस विशिष्ट भू-भाग पर स्थित है जहाँ सूर्य और बृहस्पति ग्रह का विशेष प्रभाव पड़ता खगोल व ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य और बृहस्पति मनुष्य की आध्यात्मिकता के कारक माने जाते हैं। सूर्य व बृहस्पति से आनेवाली विशेष तरंगों का विकिरण भारत के भूभाग को गहन रूप से प्रभावित करता है। इस कारण भारत में आध्यात्मिकता का वातावरण बना रहता है। ऐसे में प्रेम, दया, सहिष्णुता यदि भारत की भूमि में कूट-कूटकर भरी है तो आश्चर्य कैसा?
विश्व अधिकतर देशों में तीन या चार ऋतुएँ होती हैं, पर भारत एक ऐसा देश है जहाँ छह ऋतुएँ-ग्रीष्म, वर्ण, शरद, शीत, वसंत व पतझड़ संभवतः इतनी ऋतुएँ अन्य किसी देश में नहीं होतीं। (पाकिस्तान, बंगलादेश भी कभी इसी भूभाग के अंग थे) ऋतुओं का सीधा संबंध सूर्य और पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति से होता है। यह तथ्य वैज्ञानिक भी मानते हैं। ऋतु परिवर्तन का प्रभाव मनुष्य के मन, मस्तिष्क व शरीर तीनों पर पड़ता है। ऋतु परिवर्तन के साथ प्रकृति अपनी लय बदलती है और हमारे ऋषि-मुनियों ने प्रकृति की परिवर्तित लय से कैसे अपने तन-मन की लय को जोड़कर रखना है, यह विज्ञान जान लिया था। वे जानते थे कि ऋतु बदलने के साथ मनुष्य के शरीर का रसायन भी बदल जाता है। इसलिए उन्होंने ऋतु परिवर्तन के साथ कई पर्व और त्योहार जोड़ दिए, जिनके दौरान मनुष्य उपवास रखकर अपने शरीर के रसायन पर नियंत्रण रखता था। यही नहीं, उपवास के बाद क्या खाना चाहिए, इसका भी उन्होंने प्रावधान किया। इन सबके पीछे वैज्ञानिक तथ्य यह था कि मनुष्य अपने शरीर की लय को प्रकृति की लय से जोड़कर रखे ध्यान देनेवाली बात है कि हिंदू पर्व और त्योहार प्रायः विशेष दिनों पूर्णिमा, अमावस्या या शुक्ल पक्ष के दौरान ही मनाए हैं।
हमारे ऋषि-मुनियों ने एकादशी के दिन उपवास रखने पर बहुत जोर दिया है। इसके पीछे एक बड़ा वैज्ञानिक कारण है। मनुष्य के शरीर में एक महीने के दौरान लगभग दो बार उसका रसायन प्रभावित होता है। दस दिन भोजन करने से जो पौष्टिक रस शरीर में बनता है, एकादशी के दिन मानव शरीर उसे अपने अलग-अलग अंगों को बाँटता है। शरीर उस रस को सुचारू रूप से बाँट सके, इसलिए एकादशी के दिन उपवास की मान्यता है शरीर का इतना बारीक अध्ययन अभी तक आधुनिक वैज्ञानिकों ने नहीं किया है, इसलिए वे उपवास के पीछे जो वैज्ञानिक गहराई है, उसे नहीं समझते और इस प्रकार की बातों को ‘व्यर्थ’ की संज्ञा दे देते हैं। उपवास की विधि केवल भारत में ही हैं।
प्राचीन काल में ऋतु-फल के सेवन पर सनातन पद्धति में बहुत बल दिया जाता था। इसके पीछे का विज्ञान यह था कि प्रकृति ऋतु परिवर्तन के समय जो फल देती है, उसमें पैदा होनेवाले फल व सब्जियों में विशेष प्रकार का रसायन होता है, जो वे सूर्य से लेते हैं, वह रसायन मनुष्य के शरीर और स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक एवं महत्व पूर्ण होता हैं।
ऋतु काल में यदि कोई मनुष्य पंद्रह दिन लगातार १०-१२ जामुन का सेवन करे तो उसके अग्न्याशय को शक्ति मिलती है और वह डायबिटीज का रोगी नहीं बनेगा। इसी प्रकार, ऋतुकाल में यदि कोई व्यक्ति दिन में पीपल के वृक्ष के ५ फल नित्य खाए तो उसकी स्मरण शक्ति तीव्र हो जाती हैं। ये सब बातें अंधविश्वास नहीं अपितु वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं। आयुर्वेद यह परीक्षण हजारों वर्ष पूर्व कर चुका था भारत!!
खेद की बात तो यह है कि आजकल तो ऋतु-फल का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है, क्योंकि कृत्रिम खाद व इंजेक्शनों द्वारा पूरे साल मौसम-बेमौसम की सब प्रकार की फल-सब्जियाँ उपलब्ध रहती हैं। पहले प्राकृतिक खाद का इस्तेमाल होता था और ऋतु व प्रकृति दोनों का स्वाभाविक प्रभाव फल-सब्जियों पर पड़ता था। इसलिए उनके सेवन से ही लाभ होता था। यह एक वैज्ञानिक सत्य है, कोई अंधविश्वास नहीं। यही कारण है कि फिर से आर्गेनिक फल-सब्जियाँ उगाई जाने लगी हैं, पर वे इतनी महंगी हैं कि आम आदमी की पहुँच से दूर हैं।
ऋतु परिवर्तन के समय मनुष्य के शरीर के रसायन बदलते हैं, साथ ही उसके शरीर में स्थित विशेष सूक्ष्म शरीर के चक्रों पर भी असर होता है। इसलिए ऋषि-मुनि उन दिनों उसी चक्र पर अधिक ध्यान देते थे जिस पर ऋतु विशेष का प्रभाव पड़ता था और वे इस प्रकार अपना आध्यात्मिक विकास करते थे। इस प्रकार भारत की छह ऋतुएँ हमारे आध्यात्मिक विकास में सहयोगी रही हैं। भारत को समझना हैं तो भारत को जीना होगा।
भारत की आध्यात्मिकता के पीछे एक और बड़ा कारण यह है कि यहाँ दो महत्त्वपूर्ण पर्वत श्रृंखलाएँ हैं- एक अरावली और दूसरी हिमालय यह एक अनुमोदित सत्य है कि अरावली विश्व की प्राचीनतम पर्वत श्रृंखला है और हिमालय विश्व की सबसे तरुण यह कोई मात्र संयोग नहीं है कि दुनिया की प्राचीनतम व तरुण दोनों श्रृंखलाएं भारत में ही हैं। इसके पीछे भी प्रकृति का अपना प्रयोजन है।
अरावली संसार १ की सबसे परिपक्व पर्वत श्रृंखला होने के कारण प्रकृति के ‘अग्नि-तत्त्व’ का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि ‘हिमालय’ प्रकृति के जल तत्त्व का द्योतक है। मनुष्य शरीर के लिए ये दोनों तत्त्व अति आवश्यक हैं। दोनों पर्वत शृंखलाओं ने भारत की संस्कृति को अपनाने में अपना विशेष योगदान दिया है। जिन लोगों ने अपने आध्यात्मिक विकास के लिए जल तत्व को प्रधानता दी, वे जीवन के रहस्यों की खोज में हिमालय की गोद में चले गए और वहाँ प्रकृति के रहस्यों को खोजा व जाना। जिन जिज्ञासुओं ने अग्नि तत्त्व को प्रधानता दी, ये अरावली के आँचल में चले गए और तपस्या की हिमालय के मनीषी ऋषि कहलाए और अरावली के मुनि पर दोनों ने ही जीवन के रहस्यों का विज्ञान खोजा और जाना।
अरावली और हिमालय के अतिरिक्त भारत की सप्त नदियों ने यहाँ के जनमानस को बड़ा प्रभावित किया है। इन सप्त नदियों में अलग-अलग देवताओं के तत्त्व प्रधान हैं, जैसे गंगा में शिव, गोदावरी में राम, यमुना में कृष्ण, सिंधु में हनुमान, सरस्वती में गणेश, कावेरी में दत्तात्रय और नर्मदा में माँ दुर्गा के तत्व विद्यमान हैं। सप्त नदियों में गंगा सबसे विशिष्ट है, जिसकी महत्ता विस्तार शिव की जटा कराती है। एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय इन नदियों में स्नान करना आध्यात्मिक दृष्टि से उत्तम माना गया है, क्योंकि उस समय सूर्य व चंद्रमा का पृथ्वी पर विशेष गुरुत्व आकर्षण होता है हिंदू मनीषियों ने उस समय विशेष मंत्रों का जाप भी बताया है।
भारत के कुछ पेड़-पौधों ने भी भारत की आध्यात्मिकता में बड़ा योगदान दिया है। तुलसी का पौधा भारत के घर आँगन का एक अभिन्न अंग रहा है। वैज्ञानिक भी अब इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि तुलसी एक बहुत हो संवेदनशील पौधा है। यदि तुलसी के आस-पास थोड़ी सी भी नकारात्मक या तीव्र गंध हो तो यह पौधा मुरझा जाता है। जिन घरों में तुलसी का पौधा नहीं लगता या पनपता या मुरझा जाता है तो समझ लीजिए कि उस घर का वातावरण दूषित है। इस दृष्टि से तुलसी का पौधा घर की आध्यात्मिकता का मापदंड भी है नीम का वृक्ष भी घर के आस-पास की नकारात्मकता को दूर करने में सहायक होता है। पीपल के वृक्ष की तो बात ही निराली है। यह वृक्ष भारतीय संस्कृति और इतिहास दोनों का अभिन्न अंग है। संभवतः इसीलिए भारत के सर्वोत्तम पुरस्कार ‘भारत रत्न’ को काँस्य से बने पीपल के पत्ते के रूप में प्रदान किया जाता है। यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि वातावरण की शुद्धि के लिए ऑक्सीजन बहुत आवश्यक है, पर शायद हममें से कई यह नहीं जानते कि पीपल एक ऐसा वृक्ष है जो चौबीसों घंटे प्राणदायी ऑक्सीजन छोड़ता है। संसार की समस्त वनस्पतियों की बात करें तो वृक्षों में पीपल और पौधों में केवल तुलसी ही ऐसे हैं जो रात-दिन ऑक्सीजन देते हैं। भारत के प्राचीन मनीषियों ने इसीलिए इन दोनों को चुनकर समाज का अंग बनाया यह चयन कोई संयोग नहीं था, अपितु वैज्ञानिक कारणों से उन्होंने ऐसा किया। यह बात अलग है कि आज हम इनके महत्त्व को किताबो में रखा है।कहते हैं, इन दोनों वनस्पतियों का आध्यात्मिक दृष्टि से भी काफी महत्त्व है। तुलसी के सतत उपयोग और पीपल के आस-पास रहने तथा उसके स्पर्श से मनुष्य के सात्त्विक गुणों का विकास होता है और शारीरिक व मानसिक क्षमता भी बढ़ती है। इस प्रकार भारत की आध्यात्मिकता के पीछे उसकी भौगोलिक विशिष्ट स्थिति, अरावली व हिमालय पर्वत शृंखलाओं सप्त नदियों, छह ऋतुओं तथा विशेष वनस्पतियों का बहुत बड़ा हाथ है। इन्हीं कारणों से भारत में आध्यात्मिकता सदा से बनी रही है। वर्तमान समय में भी अन्य देशों की अपेक्षा भारत में आध्यात्मिकता अधिक है। ऐसे में यदि अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान आदि से लोग शांति की खोज में भारत आ रहे है तो आश्चर्य कैसा? भारत की जनता निरंतर भारत माता की उपासक हैं, शक्ति नवरात्र का दर्शन भी भारत की शक्ति है। इस लिए भारत विश्वगुरु हैं। भारत माता का निरंतर गुनगान हो।
नमो नमो हे भारत माता।
नमो नमो हे भारत माता। नमो नमो हे भारत माता।।
प्राची से उगता हुआ नारायण आदित्य भास्कर हो, धरती का चुम्बन लेती हुई प्रकाशपुंज की लालिमा हो भारत के भोर का प्रथम स्वर हो, कण कण में ऊर्जा सा “राम राम राम ” हो।।
नमो नमो हे भारत माता। नमो नमो …
अखंड भारत का प्रचंड संकल्प शिव की जटाओं में समाया उत्तर भारत हो। महाकाल को समर्पित दक्षिण भारत वेद की ऋचाओं से अलंकृत मंत्र भारत माता हो।।
नमो नमो हे भारत माता। नमो नमो…
मातृशक्ति उपासक नमो भारत, लक्ष्मी अन्नपूर्णा नमो भारत। काली दुर्गा स्वरूप नमो भारत, शक्ति कुण्डलिनी आध्यात्म नमो भारत।।
नमो नमो हे भारत माता। नमो नमो…
प्रताप सा शौर्य हो,संभाजी जैसा पुत्र हो, प्रचंड आभा सा तिलक विट्ठल विट्ठल हो। प्रणव से मंत्रमुद्ध हो, ऋषियों के तेज सा सूर्य हो आव्हान तुम्हारा ओ भारत माता, अभय हस्त मेरे शीश पर हो।
नमो नमो हे भारत माता। नमो नमो…
मेरुदंड में प्राण प्रवाहित हो, चेतनाशक्ति रूपी भारत माता ऊर्ध्वरेता हो। साधना हो अखंडित बीज मंत्रों से अनुष्ठान हो, ओ भारत माता आपसे ही पूर्ण आपमें पूर्णाहुति हो।।
नमो नमो हे भारत माता । नमो नमो…
यज्ञकुंड जैसा समर्पित जीवन हो, प्राणों की मंत्रयुक्त आहुति हो। अग्नि सा तेज समाया, ओ भारत माता तुम्हारी साधना हो।
नमतैस्ये नमतैस्ये भारत माता हो , नमतैस्ये नमतैस्ये भारत माता हो।।
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