नेत्रम आरोग्यं।

जीते हुए अपने जीवन लक्ष्य को पाएं, यह सर्व मनुष्यात्माओं का परम कर्तव्य है। स्वस्थ रहना शरीर का नैसर्गिक स्वभाव एवं हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। कहा भी गया है पहला सुखनिरोगी काया । वास्तव में स्वास्थ्य जीवन की सबसे पहली आवश्यकता है। इसके बिना विपुल सम्पदा एवं वैभव सभी निरर्थक हैं। एक अस्वस्थ व्यक्ति स्वयं दुखी एवं दूसरों पर बोझ होता है। वह आत्म निर्माण का न तो प्रयास कर पाता है न ही परिवार समाज व राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान दे सकता है।

जब हम नैसर्गिक संसार को देखते हैं तो पाते हैं कि स्वस्थ रहने के नियम बहुत ही सरल हैं। प्रकृति का अनुसरण कर हर कोई सहज ही स्वस्थ जीवन जी सकता है। प्रकृति के पंचतत्वों से निर्मित शरीर जितना प्रकृति के नजदीक रहेगा, वह उतना ही स्वस्थ रहेगा। व्यक्ति का रहना, खाना जितना सात्विक व सादगी भरा होगा वह उतना ही प्रकृति के करीब व स्वस्थ होगा।

संपूर्ण स्वास्थ्य अर्थात् रोग रहित शरीर व प्रसन्नता से भरा मन। अच्छी भूख लगना, गहरी नींद आना, मीलों पैदल चलने व वजन उठाने की शक्ति होना, उदार व सकारात्मक विचार व चिंतन की गहराई, उदारता, उमंग उत्साह, क्षमाशीलता, निष्काम सेवा भावना आदि संपूर्ण स्वास्थ्य की निशानी हैं। “दिनचर्या को व्यवस्थित बना लेना आरोग्य रक्षा की गारंटी है। प्रातः उठने से लेकर रात्रि सोने तक की क्रमबद्ध विधि – व्यवस्था बनायें। समय का विभाजन व निर्धारित कार्य पद्धति का फिर कड़ाई से पालन किया जाय। इससे शरीर की आंतरिक प्रणाली भी व्यवस्थित व क्रियाशील हो जाती हैं। जिन नियमों को तोड़ ने से बीमारियां होती हैं उनसे सावधान रहें। स्वस्थ रहने के जो नियम हम जानते हैं, और कर सकते हैं उनका तो अवश्य ही पालन करें। जब हम बीमार पड़ते हैं तो ठीक होने के लिए अपना सब-कुछ दांवपर लगा देते हैं, लेकिन बड़ा आश्चर्य यह है कि, ठीक रहने के लिए हम कुछ नहीं करते।

लेकिन आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में हालात बदल गये हैं। पढाई, ट्यूशन, गृहकार्य के अलावा T.V.. Computer, Internet, social media मैली संस्कृति आदि के जंजाल में मनुष्य जीवन उलझ सा गया है। इन बदली हुई परिस्थितियों में मनुष्य को जीने की नयी कला सीखनी होगी। ऐसी कला जिसमें वह वर्तमान परिस्थितियों का सामना करते हुए अपने जीवन लक्ष्य को पा सके। जीने की कला आपको चुनने होगी। लेकिन यह अच्छी आदतें आपको जीवन भर साथ देगी।ये बातें नहीं बल्कि आपके अनन्य मित्र हैं। अन्य मित्र तो मुसीबत में साथ छोड़ भी सकते हैं, तथा गलत मार्ग पर भी ले जा सकते हैं, लेकिन ये आपकी अच्छी आदतें आपका साथ कभी नहीं छोड़ेंगे तथा आपको सदा उन्नति के मार्ग पर ही ले जायेंगे। आशा है आप इन अच्छी आदतो का स्वीकार कर उन्हे अपना बनाकर स्वयं को सम्पन्न व धन्य अनुभव करेंगे तथा जीवन को सफल करेंगे।

स्वस्थ जीवन की सबसे पहली आवश्यकता है। एक स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन का सच्चा आनंद ले सकता है; पढ़ाई की गहराई में जा सकता है; अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु त्याग, तपस्या व मेहनत कर सकता है। एक रोगी व्यक्ति स्वयं ही दुखी तथा दूसरों पर बोझ होता है स्वस्थ रहने के नियमों का पालन करें। जल-उपवास करें अथवा रसाहार लें। दवाओं से बचें। दवाओं से प्राप्त किया गया स्वास्थ्य सच्चा स्वास्थ्य नहीं है। संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए प्राकृतिक नियमों का पालन करें। प्रकृति से बड़ा डॉक्टर, उपवास से बड़ा इलाज एवं उषा: पान से बडी दवा इस संसार में कोई नहीं।

स्वस्थ रहने के नियम बहुत सरल हैं। जल्दी सोयें, जल्दी उठें। रात को सोने से पहले एक ग्लास व सुबह उठकर दो ग्लास पानी पीयें। नित्य आसन-प्राणायाम व ध्यान करें। प्रतिदिन पसीना आये ऐसा श्रम अथवा खेलकूद अवश्य करें। भूख से कम भोजन लें, चौथाई पानी व चौथाई हवा के लिये पेट खाली रखें। भोजन अच्छी तरह चबाकर शांतिपूर्वक करें। पानी भोजन के एक घंटे बाद पीयें। सादा सात्विक भोजन लें। बहुत गर्म व बहुत ठंडे पदार्थों, पेप्सी, कोलों आदि से बचें। कहा भी गया है – जैसा खायें अन्न वैसा बने मन, अतः केवल पवित्र व ईमानदारी की कमाई का भोजन ही स्वीकार करें। व्यसनों से मुक्त रहें।

स्वस्थ नेत्र : आज मानसिक तनाव व दबाव,अनियमित जीवन, अप्राकृतिक खानपान के कारण छोटे बच्चे भी नेत्र-रोगों के शिकार हैं। आँखें हमे प्रभु की दी हुई अनमोल देन हैं। इनकी रक्षा करें। नेत्र रोगों के उपरोक्त कारणों को दूर करें। हरी सब्जियाँ, फलों आदि का अधिक प्रयोग करें। सूर्य-स्नान, नेत्र-स्नान, जल-नेति, पॉमिंग, आँखों तथा गर्दन के व्यायाम आदि सीखें व नियमित अभ्यास करें। तनाव से बचें। बहुत कम या बहुत अधिक प्रकाश में पढ़ाई न करें। ज्योति बिंदु या काले बिंदु पर त्राटक का अभ्यास करें। अपनी अनमोल आँखों का ख्याल रखेंगे तो ये आपकी जीवन भर सेवा करेंगी एवं साथ निभायेंगी।

इस संसार में प्राणीमात्र के लिए आँखें भगवान की एक अनुपम देन हैं। आँखें स्वस्थ रहें एवं आजीवन साथ निभायें, यह प्रत्येक जीवधारी की अभिलाषा रहती है। बिना आँखों के संसार मात्र अंधकार है। कहा भी है – आँख है तो जहान है। स्वस्थ आँखों के बिना जीवन अधूरा है। ऐसी उपयोगी आँखो के स्वास्थ्य के लिए हम बहुत कम ध्यान देते हैं। यदि कुछ सरल सी बातों को अपने दैनिक जीवन में उतार लिया जाय तो ईश्वर की ये अनुमोल देन जीवनभर हमारा साथ निभायेंगी।
पढ़ते समय प्रकाश सामने व थोड़ा बांयी ओर से आये ऐसी व्यवस्था करें। पुस्तक को लगभग एक फिट दूर रखकर पढ़ें अथवा लिखें।

बहुत तेज प्रकाश और बहुत कम प्रकाश में पढ़ाई न करें। बहुत झुककर या लेटकर पढ़ाई न करें। बिजली या धूप की तेज रोशनी में पढ़ना ठीक नहीं। चूल्हे पर, धुँए में या चकाचौंध रोशनी में कभी कार्य न करें। इससे Vitamin “A” की कमी हो जाती है। कार में बैठकर यात्रा करते हुए पढ़ने से और भोजन के तत्काल बाद पढ़ने से नेत्रों को हानि पहुँचती है।
बिना दबाव व तनाव के स्वाभाविक रूप से देखने की आदत डालें। घूर घूर कर नहीं देखें। बीच-बीच में पलकें झपकातें रहें। T. V. कार्यक्रम, फिल्म, कम्प्यूटर कार्य में स्क्रीन की ओर लगातार न देखें। इनके एकदम
सामने न बैठ थोड़ा दूर व तिरछा बैठें। बीच-बीच में Palming व गर्दन का व्यायाम करें, व आँखों पर ठंडे पानी के छींटे डालकर धोयें।
अनुचित आहार व दोषपूर्णरक्त संचार भी नेत्र रोगों के प्रमुख कारण है। आँखों के रोगों से बचने व मुक्त होने के लिए आहार विहार के संयम द्वारा शरीर शुद्धि व कब्ज से मुक्ति एक प्रमुख आधार है। आहार में फल व हरी सब्जियों व सलाद की मात्रा अधिक रखें। अंकुरित मूंग व चने भी उत्तम हैं। गाजर, चुकन्दर व आंवलों का रस नेत्र ज्योति हेतु उत्तम है।

फल, हरी सब्जियां,सलाद आदि का अप्राकृतिक आहार जैसे डिब्बाबंद (Packed), परिरक्षित (Preserved), परिष्कृत (Refined) व तले हुए (Deep Fried) खाद्यों से दूर रहें।लगातार मानसिक दबाव व तनाव बने रहने से गर्दन के पीछे की रीढ़ की हड्डी कड़ी हो जाती है व आसपास की मांसपेशियां सिकुड़ जाती हैं, जो कि नेत्र दोषों का प्रमुख कारण हैं। चिंता, नकारात्मक विचार, भय, घृण, मानसिक तनाव, किसी दबाव आदि से मुक्त रहने का प्रयास करें।
पॉमिंग (Palming) : नेत्रों को सहज ही ठंडक व विश्राम देने की यह एक सर्वश्रेष्ठ विधि है। इसमें आँखों को बिना स्पर्श किये हथेलियों से ढका जाता है तथा उसमें आँख खोलकर अंधकार का दर्शन किया जाता

मस्तिष्क व आँखों को शिथिलीकरणतथा पॉमिंग द्वारा कार्यों के बीच में विश्राम देते रहना उत्तम है। नेत्र-स्नान कागासन की स्थिति में बैठकर अथवा वॉश बेसिन पर सहब झुककर मुँह में पानी भर ले। तत्पश्चात् आँखों पर ठंडे पानी के १०-१५ चार छींटे मारे। फिर मुँह से पानी छोड़ दें। पुनः मुँह में पानी भरकर क्रिया दोहरायें। ऐसी ३ क्रियायें करें। इस क्रिया से नेत्र ज्योति बढ़ती है। मस्तिष्क की गर्मी दूर होने से सिरदर्द, आँखों की थकान व जलन दूर होती है। रात्रि विश्राम के पहले इस क्रिया को करने से नींद अच्छी आती है। सावधानियाँ – जिन्हें मोतियाबिन्द हो, हाल ही में आँखों का ऑपरेशन हुआ हो या आँखें सदैव लाल रहती हों, वे कृपया यह नेत्र-स्नान क्रिया न करें। 1 लिटर पानी में 50gm त्रिफला, मिट्टी के बर्तन में रात को भिगोयें व प्रातःमसल कर छानकर नेत्र स्नान करें। अथवा हरी बोतल में रखें पानी से आँखें धोयें।

सूर्य स्नान सूर्योदय व सूर्यास्त की किरण का (Visible rays का) 5 मिनट तक बंद नेत्रों से धूप-स्नान लेना भी दृष्टिदोषों को दूर करने में सर्वोत्तम है। इसके बाद पॉमिंग व ठंडे पानी के छीटों द्वारा नेत्र स्नान करें। जल-नेति: नेत्रों की ज्योति व स्वास्थ्य के लिये यह सर्वोत्तम है। इसे सीखें व करें। सप्ताह में एक बार करना पर्याप्त है।आँखों के तथा गर्दन के विभिन्न व्यायाम सीखें व नियमित करें।

आसन : नेत्र रोगों को दूर करने में सर्वांगासन, योगमुद्रासन, हस्तपाद चक्रासन, शीर्षासन, भूमिपाद शिरासन आदि बहुत उपयोगी आसन हैं।
नियमित धूप स्नान, वायु स्नान, उषा: पान, व्यायाम, उपवास आदि से नेत्र जीवन भर आपका साथ निभायेंगे।

प्राणायाम : नाडी शोधन व भस्त्रिका प्राणायाम उपयोगी हैं। इन्हें सीखें व करें। त्राटक : किसी ज्योति बिंदु या काले बिंदु पर नेत्रों को स्थिर करें। पांच मिनट से प्रारम्भ कर 30 मिनट तक अभ्यास बढायें। इससे नेत्र ज्योति कई गुना बढ़ जाती है। सकारात्मक विचारों द्वारा मन-मस्तिष्क को स्वस्थ व तनाव मुक्त रखें।

प्रातः हरी घास पर नंगे पैर आधा घंटा टहलें तथा हरियाली दर्शन करें। रोज प्रातः व रात्रि में पावों के तलवों की तिल या सरसों के तेल से मालिश करें। मैले हाथों या गंदे कपड़े से आँखों को कभी पोछें या मलें नहीं। दाँतों के स्वास्थ्य व सफाई पर भी ध्यान दें। दाँत मजबूत होंगे तो नेत्र ज्योति भी तेज होगी। यथासम्भव ठण्डे जल से स्नान करें। नेत्रों हेतु लाभकारी है। सौंफ का बारीक चूर्णकर उसमें बराबर भाग मिश्री या चीनी पाउडर मिलाकर रख लें। रात्रि सोने से पहले एक चम्मच लें। यह नेत्र ज्योति के लिए उत्तम है।

यह सब उपाय करते हुए सकारात्मक चिंतन करना मुख्य अंग है। यह अनुभव सिद्ध बात है कि व्यक्ति जैसा सोचता है व करता है, वह वैसा ही बन जाता है। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक शक्तियां अनंत है। वह इनका साधारणत: ६ से १०% ही उपयोग कर पाता है, शेष शक्तियां सुप्त पड़ी रहती है। इन शक्तियों के जागरण का प्रमुख आधार है सकारात्मक चिन्तन सकारात्मक चिंतन के अभ्यास की साधना सर्व साधनाओं है। सर्व साधनाओं का लक्ष्य है जीवन में सकारात्मक चितन का विकास। इसके बिना कोई भी साधना अधूरी ही कही जायेगी। निरंतर रचनात्मक कार्यों में लगे रहने का फल सदा शहद जैसा मीठा ही होता है। सर्व महापुरूष एवं जीवन के सर्व अनुभव हमें सकारात्मक व रचनात्मक चिन्तन की ओर ईशारा करते हैं। एक सकारात्मक चिन्तन वाला व्यक्ति यमराज का भी मुस्कराते हुए नए जन्म के रूप में स्वागत करता है, अंधकार की शिकायत करने के बजाय वह सितारों का आनंद लेता है। जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी वह करूणामय ईश्वर की करूणा एवं कल्याण के दर्शन करता है। वह नम्र व विनयशील अवश्य रहता है लेकिन कायर या निर्बल नहीं होता। वह आत्मबल से सम्पन्न एवं आत्मविश्वास से भरपूर होता है। वह मानता है कि संसार में कोई भी व्यक्ति, वस्तु, वैभव, परिस्थिति किसी को दु:ख व कष्ट नहीं दे सकते। अच्छी-बुरी सर्व परिस्थितियों को वह अपने ही पूर्व में बोये कर्म रूपी बीजों के फल मान सहर्ष स्वीकार करता है। कर्मफल धूप छाँव की तरह जीवन में आकर विदा हो जाते हैं, सकारात्मक चिंतनयुक्त व्यक्ति स्वयं साक्षी रहते हुए, जीवन रूपी नाटक के इन दृष्यों को देखते सदा हर्षित व रहता है।

सकारात्मक चिंतन का अभ्यास करते वह अखिल ब्रह्माण्ड के प्राकृतिक व शाश्वत सिद्धांतों, कर्मफल के अटल विधान तथा ईश्वरीय न्याय पर पूर्ण श्रद्धा व निष्ठा रखता है। वह सदा अपने विचारों को पवित्र, वाणी को शहद जैसी मीठी व रत्नों से अनमोल तथा कर्मों को श्रेष्ठ, दिव्य गुणों से महकता रखता है। धन्य हैं वे जो जीवन में सकारात्मक चिंतन का अभ्यास करते हैं। धन्य है वे माँ-बाप जो अपने बच्चों को सकारात्मक चिंतन के संस्कार विरासत में देकर जाते हैं। आइए! जीवन में सकारात्मक चिंतन के विकास हेतु हम आज से व अभी से ही प्रयास प्रारम्भ करें एवं इनके द्वारा जीवन में सच्ची सुख-शांति, आनंद, प्रेम की प्राप्ति हेतु श्रेष्ठ कर्मों के बीजों को बोयें।

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स्वर चिकित्सा

प्राण उपासना “प्राण सूक्त”

मनुष्य के शरीर का विज्ञान अदभूत हैं। मनुष्य के शरीर का हर एक अवयव अपने योग्य स्थान पर अपना कार्य सुचारू रूप से करता है। मानव शरीर यह वह मशीन है, जो आपका हर समय में आपका साथ निभाती है। हमारे शरीर के प्रत्येक क्रिया का वैज्ञानिक आधार होती है।अगर शरीर पर कुछ घाव हो जाए तो शरीर अपने आप उस घाव को ठीक करता है। शरीर में अशुद्धि जमा होने पर उस टॉक्सिन को शरीर के बाहर निकले की क्रिया भी अपने आप शरीर करता है। इंटेलेंजेंस का खज़ाना है, मानव शरीर। हमे ध्यान देकर प्रत्येक क्रिया को समझना है। पूर्ण स्वस्थता को प्राप्त होना हमारा मूल कर्तव्य है। स्वास्थ को आकर्षित किया जाए तो हमे स्वास्थ निरोगी होने से कोई नही रोक सकता। मनुष्य शरीर इस अखिल ब्रह्माण्ड का छोटा स्वरूप है। इस शरीर रूपी काया को व्यापक प्रकृति की अनुकृति कहा गया है। विराट् का वैभव इस पिण्ड के अन्तर्गत बीज रूप में प्रसुप्त स्थिति में विद्यमान है। कषाय-कल्मषों का आवरण चढ़ जाने से उसे नर पशु की तरह जीवनयापन करना पड़ता है। यदि संयम और निग्रह के आधार पर इसे पवित्र और प्रखर बनाया जा सके, तो इसी को ऋद्धि-सिद्धियों से ओत-प्रोत किया जा सकता है । कोयला ही हीरा होता है। पारे से मकरध्वज बनता है। यह अपने आपको तपाने का तपश्चर्या का चमत्कार है।

जीवात्मा परमात्मा का अंशधर ज्येष्ठ पुत्र, युवराज है। संकीर्णता के भव-बन्धनों से छूटकर वह “आत्मवत् सर्व भूतेषु” की मान्यता परिपुष्ट कर सके, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना परिपक्व कर सके, तो जीवन में स्वर्ग और मुक्ति का रसास्वादन कर सकता है। जीव को ब्रह्म की समस्त विभूतियाँ हस्तगत करने का सुयोग मिल सकता है। हम काया को तपश्चर्या से तपायें और चेतना को परम सत्ता में योग द्वारा समर्पित करें तो नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम, क्षुद्र महान् बनने का सुयोग निश्चित रूप से मिल सकता है।

सृष्टि की रचना में सूर्य और चन्द्र का महत्वपूर्ण स्थान होता है। हमारा जीवन अन्य ग्रहों की अपेक्षा सूर्य और चन्द्र से अधिक प्रभावित होता है उसी के कारण दिन-रात होते हैं तथा जलवायु बदलती रहती है। समुद्र में तेज बहाव भी सूर्य एवं चंद्र के कारण आता है। हमारे शरीर में भी लगभग दो तिहाई भाग पानी होता है। सूर्य और चन्द्र के गुणों में बहुत विपरीतता होती है। एक गर्मी का तो दूसरा ठण्डक का स्रोत माना जाता है। सर्दी और गर्मी सभी चेतनाशील प्राणियों को बहुत प्रभावित करते हैं। शरीर का तापमान 98.4 डिग्री फारेनाइट निश्चित होता है और उसमें बदलाव होते ही रोग और अशुद्धि होने की संभावना होने लगती है।

मनुष्य के शरीर में भी सूर्य और चन्द्र की स्थिति शरीरस्थ नाड़ियों में मानी गई है। मूलधार चक्र से सहस्रार चक्र तक शरीर में 72000 नाड़ियों का हमारे पौराणिक ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है। स्वर विज्ञान सूर्य, चन्द्र आदि यहाँ को शरीर में स्थित इन सूक्ष्म नाड़ियों की सहायता से अनुकूल बनाने का विज्ञान है। स्वर क्या है ? नासिका द्वारा श्वास के अन्दर जाने और बाहर निकालते समय जो अव्यक्त ध्वनि होती है, उसी को स्वर कहते हैं। नाड़ियाँ क्या है ? नाडियाँ चेतनशील प्राणियों के शरीर में वे मार्ग हैं, जिनमें से होकर प्राण ऊर्जा शरीर के विभिन्न भागों तक प्रवाहित होती है। हमारे शरीर में तीन मुख्य नाडियाँ होती है। ये तीनों नाडियाँ मूलधार चक्र से सहस्रार चक्र तक मुख्य रूप से चलती है। इनके नाम ईंडा, पिंगला और सुषुम्ना है। इन नाड़ियों का सम्बन्ध संपूर्ण शरीर से नहीं होता। अतः आधुनिक यंत्रों, एक्स, सोनोग्राफी आदि यंत्रों से अभी तक उनको प्रत्यक्ष देखना संभव नहीं हो सका है। जिन स्थानों पर ईडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियाँ आपस में मिलती है, उनके संगम को शरीर में ऊर्जा चक्र अथवा शक्ति केन्द्र कहते हैं।

ईडा और पिंगला नाड़ी तथा दोनों नासिका रंध्र से प्रवाहित होने वाली श्वास के बीच सीधा संबंध होता है, सुषुम्ना के बांयी तरफ ईंडा और दाहिनी तरफ पिंगला नाड़ी होती है। ये दोनों नाड़ियाँ मूलधार चक्र से उगम होकर अपना क्रम परिवर्तित करती हुई षटचक्रों का भेदन करती हुई कपाल तक बढ़ती हैं। प्रत्येक चक्र पर एक दूसरे को काटती हुई आगे नाक के नथुनों तक पहुंचती है। उनके इस परस्पर सम्बन्ध के कारण ही व्यक्ति नासिका से प्रवाहों को प्रवाहित करके अत्यन्त सूक्ष्म स्तर पर ईंडा और पिंगला नाड़ी में संतुलन स्थापित कर सकता है। श्वसन में दोनों नथूनों की भूमिका जन्म से मृत्यु तक हमारे श्वसन की क्रिया निरन्तर चलती रहती है। यह क्रिया दोनों नथुने से एक ही समय समान रूप से प्राय: नहीं होती। श्वास कभी बाये नथुने से, तो कभी दाहिने नथुने से चलता है। कभी-कभी थोड़े समय के लिए दोनों नथुने से समान रूप से चलता है।



बांये नथूने से जब श्वास प्रक्रिया होती है तो चन्द्र स्वर का चलना, दाहिने नथूने में जब श्वास की प्रक्रिया मुख्य होती है तो उसे सूर्य स्वर का चलना तथा जब श्वास दोनों नथूने के समान रूप से चलता है तो उस अवस्था को सुषुम्ना स्वर का चलना कहते हैं। एक नथुने को दबाकर दूसरे नथूने के द्वारा श्वास बाहर निकालने पर यह स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है कि एक नथूने से जितना सरलतापूर्वक श्वास चलता है उतना उसी समय प्रायः दूसरे नथूने से नहीं चलता। जुकाम आदि न होने पर भी मानों दूसरा नथूना प्रायः बन्द है, ऐसा अनुभव होता है। जिस नथूने से श्वास सरलतापूर्वक चलता है, उसी समय उसी स्वर से सम्बन्धित नाड़ी में श्वास का चलना कहा जाता है तथा उस समय अव्यक्त स्वर को उसी नाड़ी के नाम से पहचाना जाता है। अतः ईडा नाड़ी के चलने पर ईंडा स्वर, पिंगला नाड़ी के चलने पर पिंगला स्वर और सुषुम्ना से श्वसन होने पर सुषुम्ना स्वर प्रभावी होता है।

Central nervous system

ईडा और पिंगला श्वास प्रवाह का सम्बन्ध सिम्पथेटिक और पेरासिम्पथेटिक स्नायु संस्थान से होता है, जो शरीर के विभिन्न क्रिया कलापों का नियन्त्रण और संचालन करते हुए उन्हें परस्पर संतुलित बनाए रखता है। ईडा और पिंगला दोनों स्वरों का कार्य क्षेत्र कुछ समानताओं के बावजूद अलग-अलग होता है। ईडा का संबंध ज्ञानवाही धाराओं, मानसिक क्रिया कलापों से होता है। पिंगला का संबंध क्रियाओं से अधिक होता है। अर्थात् इडा शक्ति का आन्तरिक रूप से होती है, जबकि पिंगला शक्ति का बाह्य रूप से होता है। तथा सुषुम्ना केन्द्रीय शक्ति होती है, उसका संबंध केन्द्रीय नाड़ी संस्थान (Central Nervous System) से होता है। जब पिंगला स्वर प्रभावी होता है, उस समय शरीर की बाह्य क्रियाएँ सुगमता से होने लगती है। शारीरिक ऊर्जा दिन के समान सजग, सक्रिय और जागृत होने लगती है। अतः पिंगला नाड़ी को सूर्य नाड़ी एवं उसके स्वर को सूर्य स्वर भी कहते हैं। परन्तु जब ईडा स्वर सक्रिय होता है तो उस समय शारीरिक शक्तियाँ सुषुप्त अवस्था में विश्राम कर रहीं होती है। अतः आन्तरिक कार्यों हेतु अधिक ऊर्जा उपलब्ध होने से मानसिक सजगता बढ़ जाती है। चन्द्रमा से मन और मस्तिष्क अधिक प्रभावित होता है क्योंकि चन्द्रमा को मन का स्वामी भी कहते हैं। अतः ईडा नाड़ी को चन्द्र नाड़ी और उसके स्वर को चन्द्र स्वर भी कहते हैं। चन्द्र नाड़ी शीतलता प्रधान होती है, जबकि सूर्य नाड़ी उष्णता प्रधान होती है। सुषुम्ना दोनों के बीच संतुलन रखती है। सूर्य स्वर मस्तिष्क के बायें भाग एवं शरीर में मस्तिष्क के नीचे के दाहिने भाग को नियन्त्रित करता है, जबकि चन्द्र स्वर मस्तिष्क के दाहिने भाग एवं मस्तिष्क के नीचे शरीर के बायें भाग से संबंधित अंगों, में अधिक प्रभावकारी होता है जो स्वर ज्यादा चलता है, शरीर में उससे संबंधित भाग को अधिक ऊर्जा मिलती है। तथा बाकी दूसरे भागों को अपेक्षित ऊर्जा नहीं मिलती। अतः जो अंग कमजोर होता है, उससे संबंधित स्वर को चलाने से रोग में लाभ होता है।

स्वस्थ मनुष्य का स्वर प्रकृति के निश्चित नियमों के अनुसार चला करता है। उनका अनियमित प्रकृति के विरूद्ध चलना शारीरिक और मानसिक रोगों के आगमन और भविष्य में अमंगल का सूचक होता है। ऐसी स्थिति में स्वरों को निश्चित और व्यवस्थित ढंग से चलाने के अभ्यास से अनिष्ट और रोगों से न केवल रोकथाम होती है, अपितु उनका उपचार भी संभव है। शरीर में कुछ भी गड़बड़ होते ही गलत स्वर चलने लग जाता है। नियमित रूप से सही स्वर अपने निर्धारित समयानुसार तब तक नहीं चलने लगता, जब तक शरीर पूर्ण रूप से रोग मुक्त नहीं हो जाता। स्वर नियन्त्रण स्वास्थ्य का मूलाधार स्वर विज्ञान भारत के ऋषि मुनियों की अद्भुत खोज है। उन्होंने मानव शरीर की प्रत्येक क्रिया प्रतिक्रिया का सूक्ष्मता से अध्ययन किया, देखा, परखा तथा श्वास-प्रश्वास की गति, शक्ति, सामर्थ्य के सम्बन्ध में आश्चर्य चकित कर देने वाली जो जानकारी हमें दी उसके अनुसार मात्र स्वरों को आवश्यकतानुसार संचालित नियन्त्रित करके जीवन की सभी समस्याओं का समाधान पाया जा सकता है। जिसका विस्तृत विवेचन “शिव स्वरोदय शास्त्र” में किया गया है। जिसमें योग के जनक आदियोगी शिव ने स्वयं पार्वती को स्वर के प्रभावों से परिचित कराया हैं।

मां प्रकृति ने हमें अपने आपको स्वस्थ और सुखी रहने के लिए सभी साधन और सुविधाएँ उपलब्ध करा रखी है, परन्तु हम प्रायः मां प्रकृति की भाषा और संकेतों को समझने का प्रयास नहीं करते। हमारे नाक में दो नथुने क्यों ? यदि इनका कार्य मात्र श्वसन ही होता तो एक छिद्र में भी कार्य चल सकता है। दोनों में हमेशा एक साथ बराबर श्वास प्रश्वास की प्रक्रिया क्यों नहीं होती? कभी एक नथुने में श्वास का प्रवाह सक्रिय है तो कभी दूसरे में क्यों ? क्या हमारी गतिविधियों और श्वास का आपसी तालमेल होता है। हमारी क्षमता का पूरा उपयोग क्यों नहीं होता? कभी-कभी कार्य करने में मन लग जाता है, तो कभी बहुत प्रयास करने के बावजूद हमारा मन क्यों नहीं लगता? ऐसी समस्त समस्याओं का समाधान स्वर विज्ञान में मिलता है। शरीर की बनावट में प्रत्येक भाग का कुछ न कुछ महत्व पूर्ण कार्य अवश्य होता है। कोई भी भाग अनुपयोगी अथवा पूर्णतया व्यर्थ नहीं होता। स्वरों और मुख्य नाड़ियों का आपस में एक दूसरे से सीधा सम्बन्ध होता है। ये व्यक्ति के सकारात्मक और नकारात्मक भावों का प्रतिनिधित्व करती है, जो उसके भौतिक अस्तित्व से सम्बन्धित होते हैं। उनके सम्यक संतुलन से ही शरीर के ऊर्जा चक्र जागृत रहते हैं। ग्रन्थियाँ क्रियाशील होती है। चन्द्र नाड़ी और सूर्य नाड़ी में प्राणवायु का प्रवाह नियमित रूप से बदलता रहता है।

सामान्य परिस्थिति मे यह परिवर्तन प्रायः प्रति घंटे के लगभग अन्तराल में होता है। परन्तु ऐसा भी होना अनिवार्य नहीं होता। यह परिवर्तन हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है। जब हम अन्तर्मुखी होते हैं, उस समय प्रायः चन्द्र स्वर तथा जब हम बाह्य प्रवृत्तियों में सक्रिय होते हैं तो सूर्य स्वर अधिक प्रभावी होता है। यदि चन्द्र स्वर की सक्रियता के समय हम शारीरिक श्रम के कार्य करें तो उस कार्य में प्राय: मन नहीं लगता। उस समय मन अन्य कुछ सोचने लग जाता है। ऐसी स्थिति में यदि मानसिक कार्य करें तो बिना किसी कठिनाई के वे कार्य सरलता से हो जाते है। ठीक जब सूर्य स्वर चल रहा हो और उस समय यदि हम मानसिक करते हैं तो उस कार्य में मन नहीं लगता,और एकाग्रता नहीं आती। इसके बावजूद भी जबरदस्ती कार्य करते हैं तो सिर दर्द होने लगता है। कभी-कभी सही स्वर चलने के कारण मानसिक कार्य बिना किसी प्रयास के होते चले जाते हैं तो, कभी कभी शारीरिक कार्य भी पूर्ण रुचि और उत्साह के साथ होते हैं।

यदि सही स्वर में सही कार्य किया जाए तो हमें प्रत्येक कार्य में अपेक्षित सफलता सरलता से प्राप्त हो सकती है। जैसे अधिकांश शारीरिक श्रम वाले साहसिक कार्य जिसमें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, सूर्य स्वर में ही करना अधिक लाभदायक होता है। सूर्य स्वर में व्यक्ति की शारीरिक कार्य क्षमता बढ़ती है। ठीक उसी प्रकार जब चन्द्र स्वर चलता है, उस समय व्यक्ति में चिन्तन, मनन और विचार करने की क्षमता बढ़ती है। स्वर द्वारा ताप संतुलन जब चन्द्र स्वर चलता है तो शरीर में गर्मी का प्रभाव घटने लगता है। अतः गर्मी सम्बन्धित रोगों एवं बुखार के समय चन्द स्वर को चलाया जाये तो बुखार शीघ्र ठीक हो सकता है। ठीक उसी प्रकार भूख के समय जठराग्नि,उत्तेजना के समय प्रायः मानसिक गर्मी अधिक होती है। अतः ऐसे समय चन्द्र स्वर को सक्रिय रखा जाये तो उन पर सहजता से नियन्त्रण पाया जा सकता है।

शरीर में होने वाले जैविक रासायनिक परिवर्तन जो कभी शान्त और स्थिर होते हैं तो कभी तीव्र और उम्र भी होते हैं। जब शरीर में उष्णता का असंतुलन होता है, तो शरीर में रोग होने लगते हैं। अतः यह प्रत्येक व्यक्ति के स्व विवेक पर निर्भर करता है, कि उसके शरीर में कितना उष्णता असंतुलन है। उसके अनुरूप अपने स्वरों का संचालन कर अपने आपको स्वस्थ रखें। जब दोनों स्वर बराबर चलते हैं, शरीर की आवश्यकता के अनुरूप चलते है, तो व्यक्ति स्वस्थ रहता है। दिन में सूर्य के प्रकाश और गर्मी के कारण प्राय: शरीर में गर्मी अधिक रहती है। अतः सूर्य स्वर से सम्बन्धित कार्य करने के अलावा जितना ज्यादा चन्द्र स्वर सक्रिय होगा उतना स्वास्थ्य अच्छा होता है। इसी प्रकार रात्रि में दिन की अपेक्षा ठण्डक ज्यादा रहती है। चांदनी रात्रि में इसका प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है। श्रम की कमी अथवा निद्रा के कारण भी शरीर में निष्क्रियता रहती है। अतः उसको संतुलित रखने के लिए सूर्य स्वर को अधिक चलाना चाहिए। इसी कारण जिन व्यक्तियों के दिन में चन्द्र स्वर और रात में सूर्य स्वर स्वभाविक रूप से अधिक चलता है ये मानव प्रायः दीर्घायु होते हैं।

चन्द्र और सूर्य स्वर का असन्तुलन ही थकावट, चिंता तथा अन्य रोगों को जन्म देता है। अतः दोनों का संतुलन और सामन्जस्य स्वस्थता हेतु अनिवार्य है। चन्द्र नाड़ी का मार्ग निवृत्ति का मार्ग है, परन्तु उस पर चलने से पूर्व सम्यक् सकारात्मक सोच आवश्यक है। इसी कारण “पतंजली योग” और “कर्म निर्जरा” के भेदों में ध्यान से पूर्व स्वाध्याय की साधना पर जोर दिया गया है। स्वाध्याय के अभाव में नकारात्मक निवृत्ति का मार्ग हानिकारक और भटकाने वाला हो सकता है। आध्यात्मिक साधकों को चन्द्र नाड़ी की क्रियाशीलता का विशेष ध्यान रखना चाहिये। लम्बे समय तक रात्रि में लगातार चन्द्र स्वर चलना और दिन में सूर्य स्वर चलना, रोगी को अशुभ स्थिति का सूचक होता है, और उसका आयुष्य कम होता चला जाता हैं। सूर्य नाड़ी का कार्य प्रवृत्ति का मार्ग है। यह वह मार्ग है जहां भीतर का गौण होता है। व्यक्ति अपने व्यक्तिगत लाभ तथा महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु कठिन परिश्रम करता है। कामनाओं और वासनाओं की पूर्ति हेतु प्रयत्नशील होता है। इसमें चेतना अत्यधिक बहिर्मुखी होती है। अतः ऐसे व्यक्ति आध्यात्मिक पथ पर सफलता पूर्वक आगे नहीं बढ़ पाते।

चन्द्र और सूर्य नाड़ी के क्रमशः प्रवाहित होते रहने के कारण ही व्यक्ति उच्च सजगता में प्रवेश नहीं कर पाता। जब तक ये क्रियाशील रहती है, योगाभ्यास में अधिक प्रगति नहीं हो सकती। जिस क्षण ये दोनों शांत होकर सुषुम्ना के केन्द्र बिन्दु पर आ जाती है तभी सुषुम्ना की शक्ति जागृत होती है और यहीं से अन्तर्मुखी ध्यान का प्रारम्भ होता है। चन्द्र और सूर्य नाड़ी में जब श्वांस का प्रवाह शांत हो जाता है तो सुषुम्ना में प्राण प्रवाहित होने लगता है। इस अवस्था में व्यक्ति की सुप्त शक्तियाँ सुव्यवस्थित रूप से जागृत होने लगती है। अतः वह समय अन्तर्मुखी साधना हेतु सर्वाधिक उपर्युक्त होता है। व्यक्ति में अहं समाप्त होने लगता है। अहं और आत्मज्ञान उसी प्रकार एक साथ नहीं रहते, जैसे दिन के प्रकाश में अन्धेरे का अस्तित्व नहीं रहता। अपने अहंकार को न्यूनतम करने का सबसे उत्तम उपाय सूर्य नाड़ी और चन्द्र नाड़ी के प्रवाह को संतुलित करना है। जिससे हमारे शरीर, मन और भावनायें कार्य के नये एवं परिष्कृत स्तरों में व्यवस्थित होने लगती है। चन्द्र और सूर्य नाड़ी का असंतुलन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करता है। जीवन में सक्रियता व निष्क्रियता में इच्छा व अनिच्छा में सुसुप्ति और जागृति में, पसन्द और नापसन्द में, प्रयत्न और प्रयत्नशीलता में, पुरुषार्थ और पुरुषार्थ हीनता में, विजय और पराजय में, चिन्तन और निश्चितता में तथा स्वछन्दता और अनुशासन में दृष्टिगोचर होता है।

जब चन्द्र नाड़ी से सूर्य नाड़ी में प्रवाह बदलता है तो इस परिवर्तन के समय एक सौम्य अथवा संतुलन की अवस्था आती है। उस समय प्राण ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी से प्रवाहित होती है। अर्थात् यह कहना चाहिये कि सुषुम्ना स्वर चलने लगता है। यह तुरीया अवस्था मात्र थोड़ी देर के लिए ही होती है। यह समय ध्यान के लिए सर्वोत्तम होता है। ध्यान की सफलता के लिए प्राण ऊर्जा का सुषुम्ना में प्रवाह आवश्यक है। इस परिस्थिति में व्यक्ति न तो शारीरिक रूप से अत्यधिक क्रियाशील होता है और न ही मानिसक रूप से विचारों से अति विक्षिप्त प्राणायाम एवं अन्य विधियों द्वारा इस अवस्था को अपनी इच्छानुसार प्राप्त किया जा सकता है। यही कारण है कि योग साधना में प्राणायाम को इतना महत्व दिया जाता । प्राणायाम को औषधि माना गाय है। कपाल भाति प्राणायाम करने से सुषुम्ना स्वर शीघ्र चलने लगता है।

नथुने के पास अपनी अंगुलियाँ रख श्वसन क्रिया का अनुभव करें। जिस समय जिस नथुने से श्वास प्रवाह होता है, उस समय उस स्वर की प्रमुखता होती है। बाए नथुने से श्वास चलने पर चन्द्र स्वर, दाहिने नथूने से श्वास चलने पर सूर्य स्वर तथा दोनों नथून से श्वास चलने को सुषुम्ना स्वर का चलना कहते है।स्वर को पहचानने का दूसरा तरीका है कि हम बारी-बारी से एक नथूना बंद कर दूसरे नबूने से श्वाल लें और छोड़े। जिस नथुने से श्वसन सरलता से होता है, उस समय उससे सम्वन्धित
स्वर प्रभावी होता है। स्वर बदलने के नियम अस्वभाविक अथवा प्रवृत्ति की आवश्यकता के विपरीत स्वर शरीर में अस्वस्थता का सूचक होता है। निम्न विधियों द्वारा स्वर को सरलतापूर्वक कृत्रिम ढंग से बदला जा सकता है, ताकि हमें जैसा कार्य करना हो उसके अनुरूप स्वर का संचालन कर प्रत्येक कार्य को सम्यक् प्रकार से पूर्ण क्षमता के साथ कर सके।

1.जो स्वर चलता हो, उस नथुने को अंगुलि से या अन्य किसी विधि द्वारा थोड़ी देर तक दबाये रखने से, विपरीत इच्छित वर चलने लगता है।

2. चालू स्वर वाले नथूने से पूरा श्वास ग्रहण कर बन्द नथूने से श्वास छोड़ने की क्रिया बार-बार करने से बन्द जो स्वर चालू करना हो, शरीर में उसके विपरीत भाग की तरफ करवट लेकर सोने से स्वर चलने लगता है।

3. जिस तरफ का स्वर बंद करना हो उस तरफ की बगल में दबाब देने से चालू स्वर बंद हो जाता है तथा इसके विपरीत दूसरा स्वर चलने लगता है। जो स्वर बंद करना हो, उसी तरफ के पैरों पर दबाव देकर थोड़ा झुककर उसी तरफ खड़ा रहने से उस तरफ का स्वर बन्द हो जाता है।

4. जो स्वर बंद करना हो, उधर गर्दन को घुमाकर ठोड़ी पर रखने से कुछ मिनटों में वह स्वर बन्द हो जाता है। चलित स्वर में स्वच्छ रुई डालकर नथुने में अवरोध उत्पन्न करने से स्वर बदल जाता है।

5. कपाल भाति और नाड़ी शोधन प्राणायाम से सुषुम्ना स्वर चलने लगता है।


निरन्तर चलते हुए सूर्य या चन्द्र स्वर के बदलने के सारे उपाय करने पर भी यदि स्वर न बदले तो रोग असाध्य होता है। उस व्यक्ति की मृत्यु समीप होती है। मृत्यु के उक्त लक्षण होने पर भी स्वर परिवर्तन का निरन्तर अभ्यास किया जाय तो मृत्यु को कुछ समय के लिए टाला जा सकता है। वैसे तो शरीर में चन्द्र स्वर और सूर्य स्वर चलने की अवधि व्यक्ति की जीवनशैली और साधना पद्धति पर निर्भर करती है। परन्तु जनसाधारण में चन्द्र स्वर और सूर्य स्वर 24 घंटों में बराबर चलना अच्छे स्वास्थ्य का सूचक होता है। दोनों स्वरों में जितना ज्यादा असंतुलन होता है उतना ही व्यक्ति अस्वस्थ अथवा रोगी होता है। संक्रामक और असाध्य रोगों में यह अन्तर काफ़ी बढ़ जाता है। लम्बे समय तक एक ही स्वर चलने पर व्यक्ति की मृत्यु शीघ्र होने की संभावना रहती है। अतः सजगता पूर्वक स्वर चलने की अवधि को समान कर असाध्य एवं संक्रामक रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है। सजगता का मतलब जो स्वर कम चलता है उसको कृत्रिम तरिकों से अधिकाधिक चलाने का प्रयास किया जाए तथा जो स्वर ज्यादा चलता है, उसको कम चलाया जाये कार्यों के अनुरूप स्वर का नियन्त्रण और संचालन किया जाये। स्वस्थ जीवन का लक्षण हैं।

स्वर चिकित्सा प्रयोग विधि

1. गर्मी सम्बन्धी रोग गर्मी, प्यास, बुखार, पीत्त सम्बन्धी रोगों में चन्द्र स्वर चलाने से शरीर में शीतलता बढ़ती है, जिससे गर्मी से उत्पन्न असंतुलन दूर हो जाता है। कफ सम्बन्धी रोग सर्दी, जुकाम, खांसी, दमा आदि कफ सम्बन्धी रोगों में सूर्य स्वर अधिकाधिक चलाने से शरीर में गर्मी बढ़ती है। सर्दी का प्रभाव दूर होता है।

2. आकस्मिक रोग जब रोग का कारण समझ में न आये और रोग की असहनीय स्थिति हो, ऐसे समय रोग का उपद्रव होते ही जो स्वर चल रहा है उसको बन्द कर विपरीत स्वर चलाने से तुरन्त राहत मिलती है। प्रत्येक व्यक्ति को स्वर में होने वाले परिवर्तनों का नियमित आंकलन और समीक्षा करनी चाहिए। दिन-रात चन्द और सूर्य स्वर का बराबर चलना संतुलित स्वास्थ्य का सूचक होता है।

एक स्वर ज्यादा और दूसरा स्वर कम चले तो शरीर में असंतुलन की स्थिति बनने से रोग होने की संभावना रहती है। हम स्वर के अनुकूल जितनी ज्यादा प्रवृत्तियां करेंगे, उतनी अपनी क्षमताओं का अधिकाधिक लाभ अर्जित कर सकेंगे। “स्वरोदय विज्ञान” के अनुसार व्यक्ति प्रातः निद्रा त्यागते समय अपना स्वर देखें जो स्वर चल रहा है, धरती पर पहले वही पैर रखे बाहर अथवा यात्रा में जाते समय पहले वह पैर आगे बढ़ाये, जिस तरफ का स्वर चल रहा है। साक्षात्कार के समय इस प्रकार बैठे की साक्षात्कार लेने वाला व्यक्ति बन्द स्वर की तरफ हो, तो सभी कार्यों में इच्छित सफलता अवश्य मिलती है।

पंच महाभूत तत्त्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) तथा ज्योतिष के नवग्रह की स्थिति का भी हमारे स्वर से प्रत्येक परोक्ष सम्बन्ध होता है। शरीर में प्रत्येक समय अलग-अलग तत्वों की सक्रियता होती है। शरीर की रसायनिक संरचना में भी पृथ्वी और जल तत्त्व का अनुपात अन्य तत्त्वों से अधिक होता है। सारी दवाईयां प्रायः इन्हीं दो तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती है। अतः जब शरीर में पृथ्वी तत्त्व प्रभावी होता है, उस समय किया गया उपचार सर्वाधिक प्रभावशाली होता है। उससे कम जल तत्व की सक्रियता पर प्रभाव पड़ता है।

शरीर में किस समय कौनसा तत्त्व प्रभावी होता है, उनको निम्न प्रयोगों द्वारा मालूम किया जा सकता है। दोनों कान, दोनों आँखें, दोनों नथूने और मुंह बंद करने के पश्चात् यदि पीला रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में पृथ्वी तत्त्व प्रभावी होता है। सफेद रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में जल तत्त्व प्रभावी होता है। लाल रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में अग्नि तत्त्व प्रभावी होता है। काला रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में वायु तत्त्व प्रभावी होता है। मिश्रीत (अलग-अलग ) रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में आकाश तत्व प्रभावी होता है।

  • शरीर में किस समय कौनसा तत्त्व प्रभावी होता है
  • दोनों कान, दोनों आँखें, दोनों नथूने और मुंह बंद करने के पश्चात् यदि पीला रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में पृथ्वी तत्त्व प्रभावी होता है।
  • सफेद रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में जल तत्त्व प्रभावी होता है। लाल रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में अग्नि तत्त्व प्रभावी होता है।
  • काला रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में वायु तत्त्व प्रभावी होता है।
  • मिश्रीत (अलग-अलग ) रंग दिखाई दे तो उस समय शरीर में आकाश तत्व प्रभावी होता है।
  • मुख का स्वाद मधुर हो, उस समय पृथ्वी तत्त्व सक्रिय होता है।

मुख का स्वाद मधुर हो, उस समय पृथ्वी तत्त्व सक्रिय होता है। जब
मुख का स्वाद कसैला हो, उस समय जल तत्व सक्रिय होता है। अब मुख का स्वाद तीखा हो, उस समय अग्नि तत्व सक्रिय होता है। जब मुख का स्वाद खट्टा हो, उस समय वायु तत्त्व सक्रिय होता है। मुख का स्वाद कड़वा हो, उस समय आकाश तत्व सक्रिय होता है। स्वच्छ दर्पण पर मुह से श्वांस छोड़ने पर (फूक मारने पर ) जो आकृति बनती है, वे उस समय शरीर में प्रभावी तत्त्व को दर्शाती है।

(a) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से चौकोन का आकार बनता हो तो, पृथ्वी तत्व की प्रधानता हैं।

(b ) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से त्रिकोण आकार बनता हो तो, अग्नि तत्त्व की प्रधानता।

(c) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से अर्द्ध चंद्राकार आकार बनता हो तो जल तत्व की प्रधानता। यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से वृत्ताकार (गोल) आकार बनता हो तो, वायु तत्त्व की प्रधानता है।

(d) यदि मुंह से निकलने वाली बाष्प से मिश्रीत आकार बनता हो तो, आकाश तत्व की प्रधानता समझे। जिज्ञासु व्यक्ति अनुभवी जिज्ञासु “स्वरोदय विज्ञान” का अवश्य गहन अध्ययन करें। क्योंकि स्वर विज्ञान से न केवल रोगों से बचा जा सकता है, अपितु प्रकृति के अदृश्य रहस्यों का भी पता लगाया जा सकता है।

मानव देह में स्वर चिकित्सा ऐसी आश्चर्यजनक, सरल, स्वावलम्बी प्रभावशाली बिना किसी खर्च वाली चमत्कारी प्रणाली होती है, जिसका ज्ञान और सम्यक पालन होने पर किसी भी सांसारिक कार्यों में असफलता की प्रायः संभावना नहीं रहती। स्वर विज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति करने से साक्षात्कार ‘सफलता, भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वाभ्यास, सामने वाले व्यक्ति के अन्तरभावों को सहजता से समझा जा सकता है। जिससे प्रतिदिन उपस्थित होने वाली अप्रतिकूल परिस्थितियों से सहज बचा जा सकता है। अज्ञानवश स्वरोदय की जानकारी के अभाव से ही हम हमारी क्षमताओं से अनभिज्ञ होते हैं। रोगी बनते हैं तथा अपने कार्यों में असफल होते हैं। स्वरोदय विज्ञान प्रत्यक्ष फलदायक है, जिसको ठीक-ठीक लिपीबद्ध करना संभव नहीं।

फूल की सुन्दरता और महक उसकी किसी पंखुड़ी तक सीमित नहीं है। वह उसकी समूची सत्ता के साथ हुई है। आत्मिक प्रगति के लिए कोई योगाभ्यास विशेष करने से हो सकता है कि स्थूल शरीर या सूक्ष्म शरीर के कुछ क्षेत्र अधिक परिपुष्ट प्रतीत होने से और कई प्रकार की चमत्कारी सिद्धियां प्रदर्शित की जा सकें। आत्मा की महानता के लिए इतने भर से काम नहीं चलता। उसके के लिए जीवन के हर क्षेत्र को समर्थ, सुन्दर एवं सुविकसित होना चाहिए। दूध के कण-कण में घी समाया होता है। हाथ डालकर उसे किसी एक जगह से नहीं निकाला जा सकता। इसके लिए उस समूचे का मन्थन करना पड़ता है।
जीवन एकांगी नहीं है। उसके किसी अवयव विशेष को या प्रकृति विशेष करे उभारने से काम नहीं चल सकता है। आवश्यक है कि, अन्तरंग और बहिरंग जीवन के हर पक्ष में उत्कृष्टता का समावेश किया जाए। ईश्वर का निवास किसी एक स्थान पर नहीं है। वह सत्प्रवृत्तियों को समुच्चय समझा जाता है। ईश्वर की आराधना के लिए आवश्यक है। कि व्यक्तित्व के समग्र पक्ष को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाया जाय। स्वयं में सत्प्रवृत्तियों का समावेश कर उसके समकक्ष बनने का प्रयास किया जाए।

सूर्य नमस्कार

सूर्य रश्मि चिकित्सा

सूर्य का महत्त्व समझाने के लिए हमारे धर्म ग्रंथों में अनादि काल से वर्णन है। परंतु एक बात पक्की है कि यह हमें प्राचीन समय से अपनी ओर आकर्षित करता आया है। हम पिछले युगों में जाएँ या आज के युग की बात करें, सूर्य हमेशा जीवनदायिनी ऊर्जा देता आया है। सूर्य के बारे में जानने के लिए आज का वैज्ञानिक दिन-रात एक कर रहे हैं, जबकि हमारे ऋषि-मुनि इसकी दिव्यता और उसका उपयोग करना भी जानते थे। सूर्य मात्र हमारे शरीर को ही नहीं हमारे सूक्ष्म शरीर को भी अपनी चैतन्य शक्ति से जीवंतता प्रदान करता है। वैज्ञानिक इसे आग का गोला कहें अथवा कोई ग्रह परंतु प्राचीन काल में ही इसके अनेक रहस्यों को हमारे मनीषियों ने समझ लिया था और उसका उपयोग करने
की कला को जन-कल्याण तक पहुँचाया था परंतु अब सूर्य का ज्ञान लुप्तप्राय है।

यहाँ पर हम थोड़ी सी चर्चा सूर्य के रहस्य को समझाने के लिए करना चाहते हैं, ताकि हम जब सूर्य नमस्कार करें तो हमारे मन में श्रद्धा, लगन और आस्था प्रकट हो और हम उससे लाभान्वित हो सकें।
पाठकगण शायद जानते हों कि बनारस में एक बहुत बड़े संत हुए हैं।
जिनका नाम था स्वामी विशुद्धानंद परमहंस और उनके शिष्य थे काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राचार्य गोपीनाथ कविराज। चूँकि कथानक काफ़ी विस्तृत है, अतः हम सिर्फ इतना बताना चाहेंगे कि उन्होंने हिमालय के किसी गुप्त आश्रम (ज्ञानगंज आश्रम) में जाकर 12 वर्ष की कठिन साधना की। इसके बाद सन् 1920 के आस-पास वापस बनारस आकर सूर्य विज्ञान का चमत्कार इस पूरे विश्व को बताकर आश्चर्यचकित कर दिया था। लोगों ने दाँतों तले अंगुलियाँ दबा लीं थीं। सैकड़ों शिष्यों के सामने वे सूर्य विज्ञान द्वारा एक वस्तु को दूसरी वस्तु में रूपांतरित कर दिया करते थे, जैसे कपास को वे फूल, पत्थर, ग्रेनाइट,हीरा, लकड़ी आदि कुछ भी बनाकर दिखा देते थे। यहाँ तक कि उन्होंने एक बार मृत चिड़िया को जीवित कर दिया था। यह आश्रम आज भी हिमालय में स्थित है। यह वृत्तांत लेखक पॉल वंटन की पुस्तक मे है। यह दृष्टांत बताने के पीछे यह उद्देश्य हैं की सूर्य के प्रति आपकी जिज्ञासा और आस्था बढ़े। ताकि हम उस सुर्य से अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सकें।

सूर्य नमस्कार की एक आवृत्ति में 12 स्थितियाँ हैं। प्रत्येक आसन का -अपना एक मंत्र है। प्रत्येक क्रिया का अपना एक लाभ है। हम तो इतना कहेंगे कि नया जीवन चाहिए, तो सूर्य नमस्कार कीजिए।
प्रतिदिन नियम से किया जाने वाला सूर्य नमस्कार अन्य व्यायामों की अपेक्षा ज्यादा लाभकारी है। सूर्य देव का वर्णन हम जितना करें, कम है। अतः हम सूर्य देव को नमस्कार करने की पद्धति का वर्णन करेंगे।
सूर्य नमस्कार करने का मुख्य कारण संभवतया उसके द्वारा जीवनदायिनी ऊर्जा मिलना और उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना रहा है। सूर्य में स्थापित अकृत्रिम प्रतिमा को या यूँ कहें कि सूर्यदेव को अर्ध्य समर्पित करने का प्रचलन आदिकाल से रहा है, जब इस भारत-भूमि के प्रथम चक्रवर्ती राजा भरत सूर्य में स्थित जिनालयों को नमस्कार किया करते थे। किन्हीं कारणों से इसका प्रचार-प्रसार अधिक नहीं हो पाया परंतु दक्षिण भारत के आचार्यों ने इसे आत्मसात् किया और इस विद्या को जीवंत रखा। जब वे शेष भारत के तीर्थों पर भ्रमण हेतु आते तो वहाँ भी नित्यकर्म में सूर्य नमस्कार करते थे। तीर्थ स्थानों की जनता उन्हें देखकर सूर्य नमस्कार की विधि का अनुसरण करती थी। इस प्रकार पुनः संपूर्ण भारत वर्ष में सूर्य नमस्कार का प्रचार-प्रसार हुआ।

शिवाजी महाराज को उनके गुरु समर्थ रामदास ने सूर्य नमस्कार की विधि सिखाई जिसका उन्होंने अभ्यास किया और परिणामस्वरूप उनका शरीर एवं चरित्र इतिहास में अद्वितीय है। शिवाजी महाराज ने अपने सैनिकों को सूर्य नमस्कार की विधि सिखाई और इस प्रकार सूर्य नमस्कार की विधि का प्रचार-प्रसार बढ़ा। ‘सूर्य नमस्कार’ के द्वादश आदर्श बीज मंत्र एवं क्रिया मंत्र होने के कारण बारह अंकों के सूर्य नमस्कार की वैज्ञानिकता बढ़ जाती है।

महत्त्व हमारे ऋषियों ने मंत्र और व्यायामसहित एक ऐसी प्रणाली विकसित की है जिसमें सूर्योपासना का भी समन्वय हो जाता है। इसे सूर्यनमस्कार कहते हैं। इसमें कुल १० आसनों का समावेश है। हमारी शारीरिक शक्ति की उत्पत्ति, स्थिति तथा वृद्धि सूर्य पर आधारित है। जो लोग सूर्यस्नान करते हैं, सूर्योपासना करते हैं वे सदैव स्वस्थ रहते हैं। सूर्यनमस्कार से शरीर की रक्तसंचरण प्रणाली, श्वास-प्रश्वास की कार्यप्रणाली और पाचन प्रणाली आदि पर अधिक प्रभाव पड़ता है। यह अनेक प्रकार के रोगों के कारणों को दूर करने में मदद करता है। सूर्यनमस्कार के नियमित अभ्यास से शारीरिक और मानसिक स्फूर्ति के साथ विचारशक्ति और स्मरणशक्ति तीव्र होती है। पश्चिमी वैज्ञानिक गार्डनर रॉनी ने कहा: “सूर्य श्रेष्ठ औषध है। उससे सर्दी, खाँसी, न्यूमोनिया और कोढ़ जैसे रोग भी दूर हो जाते हैं।” डॉक्टर सोले ने कहा : “सूर्य में जितनी रोगनाशक शक्ति है उतनी संसार की अन्य किसी चीज़ में नहीं।”

आदित्य ह्रदय

ध्येयः सदा सवितृमण्डलमध्यवर्ती नारायणः सरसिजासनसन्निविष्टः ।

केयूरवान् मकरकुण्डलवान् किरीटी हारी हिरण्मयवपुर्धृतशंखचक्रः ।।



सवितृमण्डल के भीतर रहनेवाले, पद्मासन में बैठे हुए, केयूर, मकर कुण्डल, किरीटधारी तथा हार पहने हुए, शंख-चक्रधारी, स्वर्ण के सदृश देदीप्यमान शरीवाले भगवान नारायण का सदा ध्यान करना चाहिए।’ (आदित्य हृदय : १३८)

गायत्री मंत्र के भाष्य का विस्तार चार वेद हैं। वेद के हर एक मंत्र एक एक छंद ,ऋषि और देवता है। उनका स्मरण कर विनियोग करना आवश्यक है। इसी तरह गायत्री मंत्र के भी छंद गायत्री है, ऋषि विश्वामित्र, और देवता सविता है। सविता का अर्थ होता है “सुर्य”। गायत्री ही सुर्य की अधिष्ठात्री देवता हैं। सूर्य उपासना को ” सूर्य नमस्कार” के नाम से जाना जाता हैं। मानवी शरीर प्रकृति का अद्भुत वरदान है। इसी शरीर में मातृसत्ता का जागरण होता हैं। इस मातृभाव को हमे सहेज कर रखना होगा। इस शरीर को निरोगी रखना का हमारा परम कर्तव्य हैं। शरीर के भीतर मौजूद अनंत ऊर्जा को योग्य रूप देना होगा। सूर्य उपासना का अंतिम चरण सूर्य ध्यान होता हैं। जो गायत्री के उस मातृशक्ति को शरीर के उन अंगों पर स्थापित करना होता है। मातृशक्ति उपासना का श्रेष्ठ उदाहरण और क्या हो सकता हैं? सूर्य तेज अग्नि का प्रतीक है। ध्यान इस सुंदर प्रक्रिया में प्रकाश के तेजोवलय से समन्वय स्थापित करने पर ही गायत्री की पूर्णाहुति संपन्न होती है। यज्ञाग्नि में आहुति देने से गायत्री पुरश्चरण का अभिन्न अंग माना जाता है। सूर्य उपासना केवल कल्पना नहीं अपितु सविता और सावित्री को शरीर में स्थापित करने का अनोखा विज्ञान है। अग्नि तत्व का प्रतीक है “सूर्य देवता”, और चेतन का स्थूल रूप है “सविता”। इस सूर्य नमस्कार का मुख्य उद्देश है, इस जड़ शरीर के द्वारा चेतनात्मक प्रशिक्षण संस्कारो को जाग्रत करना है। ब्रम्ह तेज को सविता कहा जाता है। यह सविता शक्ति ब्रम्हाण्डीय चेतना का रूप हैं। यह प्रखर तेज सविता सर्वत्र व्याप्त है। उस परम शक्ति आत्मचेतना से घनिष्ठता साध्य करने के लिए प्रतीक रूप में सूर्यस्वरुप अग्निपिंड की उपासना अनिवार्य हैं। सूर्य उपासना यह ब्रम्ह तेज अवतरण की प्रक्रिया का वह बीज है, जिसे आत्मचेतना को दिव्य भूमि पर अंकुरित करना होता है। पृथ्वी को आत्मा और सुर्य को ब्रम्ह तेज की उपमा दी गईं है। पृथ्वी और सुर्य का समन्वय “सुर्य नमस्कार” साधना से ही संभव है। जिसे कुण्डलिनी विज्ञान में मूलाधार से चेतना सुषुम्ना मार्ग से होती हुई कपाल तक की जागरण प्रक्रिया है “सुर्य नमस्कार”। पृथ्वी पर जो जीवन का आधार है, वह केवल सूर्य की ऊर्जा से प्राप्त हुआ है। सूर्य इस जगत की आत्मा है।

जिस प्रकार से पृथ्वी पर सूर्य केंद्र से जीवनी शक्ति का वर्षाव होता है, वैसे ही आत्मारूपी इस शरीर पर ब्रम्ह तेज प्राण सत्ता का वर्षाव होता हैं, सुर्य नमस्कार से। इसी उपासना से अंतः करण शुद्धता होती हैं। इस में कोई संशय नहीं है। वह सुर्य शक्ति अर्थात् सविता, यहीं प्रत्यक्ष में “ब्रम्हतेज” हैं। शास्त्रोंकारो ने गायत्री सद्बुद्धि , रितंभरा प्रज्ञा की देवता है तो प्राण और सविता इसी प्रयोजन की पुर्तता करते है। शास्त्र वचन में इसे त्रिकोण भूमिति जैसा सम्बध जताया है।

“यो वै सः ऐषा सा गायत्री”।

शतपथ (1/3/5/15)

जो प्राण हैं वही “गायत्री” अंतः चेतना है।

“प्राण एव सविता विद्युदेव सविता”

शतपथ (7/7/9)

प्राण भी सविता है, विद्युत भी सविता है।

यहा कुछ समझने वाली बात यह हैं , की सविता अर्थात तेज भौतिक अग्नि वा प्रकाश यह तो हैं, इसका मुख्य उद्देश है, अंतः चेतना ब्रम्हतत्व स्वरूप हैं। सविता के उस परम तेजस्वी तेज ब्रम्ह तत्त्व के शिवाय और दूसरा कोई तेज नही हो सकता है। यही चेतना रूपी प्रकाश सविता सूर्य विश्व जीवन के ज्ञान का केंद्र माना जाता हैं, साथ ही साथ भौतिक विज्ञान का भी केंद्र यही हैं। इसकी धारना करना मुनष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ साधन है। चार वेद में जो मंत्र,ऋचा आदि हैं वह अंतः चेतना सविता शक्ति का विवेचन ही हैं। सूर्य उपासना, सुर्य नमस्कार यह तप साधना हैं। तपग्नी के साथ श्रद्धा का अनोखा स्थान इस उपासना को संपन्न बनाते हैं। यही सविता देवता सब के उपास्य, लक्ष्य और इष्ट हैं। जो प्रत्येक श्वास से मित्र बनकर कुंभक में हिरण्यगर्भ का दर्शन मेरुदंड में चेतना का संचार होकर आदिदेव भास्कर को नमन कर रेचक श्वास के साथ अपनी प्रतीति प्रदान कराता है। इसके लिए पुरुषार्थ का अनोखा जोड़ अनिवार्य है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने सविता देवता की उपासना पद्धति का वर्णन किया है। सूर्यध्यान में अवर्णित भाव को पल्लवित किया है, “मैं ओमकार स्वरूप भगवान को नमस्कार करता हूं। हे भगवान! आप समस्त विश्व की आत्मा और काल स्वरूप हो। समस्त प्राणी चर अचर में आपका ही निवास हैं। यह सुंदर भाव भगवान को अर्पित किए है।

सूर्य उपासना

यही सूर्य देवता असमान्य रहस्यमय शक्ति का उपयोग यंत्र के माध्यम से उपभोग लिया जा रहा है। अपारंपरिक ऊर्जा का स्रोत के रूप में इस ऊर्जा का उपयोग किया जा रहा हैं। यह केवल ऊर्जा का ही नहीं अपितु अनेक शक्तियों का भण्डार है। जिसमे भौतिक विज्ञान के light theropy और ultra sound theropy ( मंत्र विज्ञान ) का ज्ञान समाया है। अगणित जीवनीशक्ति को निरोगी जीवन जीने के लिए महत्व पूर्ण है। इस का संपर्क संबंध स्थापित करके सानिध्य प्राप्त कराने में सक्षम हैं। यह शक्ति भौतिक प्रयोजन अंतः विकास गायत्री शक्ति कहलाती हैं। सुर्य नमस्कार का यह चक्र उस धन्यवाद के भाव को प्रज्वलित करता है जो,

नमस्ते देवी गायत्री , सावित्री त्रिपदेक्षरे

        (वशिष्ठ संहितार्थ वांत्रिक)

यह तीनों पदों की गायत्री , सावित्री देवी तुम्हे नमन।

यह सुर्य उपासना की अलग अलग श्वास पूरक , रेचक से लेकर भिन्न भिन्न शारिरिक स्थितिया वैज्ञानिक आधार हैं। नमस्कारासन से भुंजगासन से हस्तोतादासन अन्य अनेक योगासन की दिव्य श्रृंखला षटकुक्षी है। षटकुक्षी का अर्थ होता हैं , षटचक्रों का जागरण। सुर्य उपासना सुर्य नमस्कार से शरीर के भीतर के शक्ति केंद्र का जागरण होता हैं। मां कुण्डलिनी षटचक्रों का भेदन करती ब्रम्हारंध्र में गमन करती है। इस लिए यह षटकुक्षी का द्वार कहा जाता है। मंत्र के साथ जब यह साधना 12 अंगों में पूर्ण की जाती है तो, प्राण शक्ति का उत्थापन इस विद्या के द्वारा किया जाता है। इन्ही मंत्रो में प्राणशक्ति अभिभूत है। परिणामी साधक जब सिद्धि मार्ग पर अग्रसेर होता है, तो परब्रम्ह महाप्राण वह अपने वह अपने शरीर में अंतः करण में धारण करने की विधि है सुर्य नमस्कार। जब यह महाप्राण शरीर क्षेत्र में अवतरित होता हैं तो, साधक को आरोग्य, आयुष्य तेज ,ओज, बल, पराक्रम पुरूषार्थ प्राप्त होता हैं। मन क्षेत्र में उत्साह , स्फूर्ति, प्रफुल्लता ,साहस , एकाग्रता, स्थिरता , धैर्य, संयम इ. दिव्य गुणों का साक्षीदार बनाता है। परमात्मा का प्रधिनिधि सम्मान साधक को प्राप्त होता है। यही आत्मकल्याण ध्येयप्राप्ति का राजमार्ग है। सुर्य उपासना साक्षात महाप्राण को साधना ही है, यही सर्वत्र चर अचर हैं।

आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान

भारत को आयुर्वेद की अमूल्य देन है।आयुर्वेद एक जीवन जीने का सात्विक तरीका हैं। समग्र स्वस्थ जीवन जीना मानव जीवन का आधिकार है। भारतीय चिकित्सा पद्धति मां प्रकृति का आशीर्वाद है।जो निरोगी जीवन को प्रदान करती है ,साथ ही साथ निरोगी विचारो को बल देती है। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति एक तरीका है, जो आहार को औषधि के रूप सेवन करने का आदेश देता है। आयुर्वेद चिकित्सा एक एक मात्रा चिकित्सा है जो मानव शरीर को धन्यवाद देना जानती है। शरीर को ईश्वर का अनमोल उपहार मानती है।आहार को ही अमृत मानकर पूर्ण स्वस्थ समाज का निर्माण करने का सामर्थ्य आयुर्वेद चिकित्सा में ही हैं। यह पद्धति वर्तमान में जीना सिखाती है। हमारा जीवन कैसा हो? , हम किस तरीके से विचार करे?। हमारा जीवन जीने का उद्देश क्या होना चाहिए ?? यह शिक्षा हमे देती है आयुर्वेद। आयुर्वेद द्वारा ही समस्या का समाधान करना संभव है! यह पद्धति में शुद्ध भावना को स्विकार किया जाता है। आपके भाव के ऊपर ही आपका जीवन है।शुद्ध भावना ही आयुर्वेद का मूल मंत्र है। इसलिए यह सबसे सफल है।


भारतीय चिकित्सा बहुत प्राचीन है; लेकिन इसमें छिपे समग्र स्वास्थ्य के अर्थ को आज हर जगह स्वीकार किया जा रहा है। इसका मतलब है कि स्वास्थ्य का मतलब बीमारियों से छुटकारा पाना नहीं है, बल्कि जीवन को एक संपूर्ण अर्थ देना है।जीवन का नया कायाकल्प करना हैं। बीमारी सिर्फ एक लक्षण है और यह प्रकृति में विकृति से पैदा करती है। इसलिए हमारी प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों में उपचार रोग को नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि रोग के कारण को नष्ट करने के लिए किया जाता है। हमारे देश में स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच रखने वाले लोगों की संख्या इतनी कम है कि इसे वैश्विक औसत से तुलना करके आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि हम चिकित्सा देखभाल को कितना महत्व देते हैं, जो स्वस्थ जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि आज हमारे देश में जितने डॉक्टर उपलब्ध हैं, वे ग्रामीण क्षेत्रों में जाने को तैयार नहीं हैं; क्योंकि उनके व्यवसाय को बढ़ने कोई जगह नहीं है। जब कोई व्यवसाय चिकित्सा जैसे शुद्ध सेवा क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो निश्चित है कि ऐसी चिंताजनक स्थिति देश पर आएगी और फिर मानव स्वास्थ्य महत्वपूर्ण नहीं होगा लेकिन पैसा कमाना महत्वपूर्ण होगा। यही कारण है कि हमारे देश में इतने महंगे अस्पताल होने के बावजूद लोगों के बुनियादी स्वास्थ्य में कोई अंतर नहीं है। एलोपैथी जैसी चिकित्सा पर पूरी तरह निर्भर रहने से इस समस्या का पूर्ण समाधान संभव नहीं है; ऐसा इसलिए है क्योंकि उस उपचार पद्धति का मुख्य सिद्धांत न केवल किसी भी बीमारी को तुरंत ठीक करना है बल्कि किसी भी तरह से गंभीर बीमारी को दबाने के लिए भी है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब दवाओं का असर कम होने लगता है तो आपके सिर पर डिप्रेशन की बीमारी फिर से उभरने लगती है। इतना ही नहीं, शरीर पर इन तीव्र दवाओं के दुष्प्रभाव, रोगी को फिर से विभिन्न नई चुनौतियों का सामना करने के लिए मजबूर करते हैं। इसके विपरीत भारतीय चिकित्सा में पहले रोग के कारण का पता लगाया जाता है और फिर उसके कारण का उपचार किया जाता है।

इसी वजह से पश्चिमी दुनिया में भी जहां एलोपैथी को सबसे अच्छा इलाज माना जाता है, वहां अब वैकल्पिक चिकित्सा को अपनाने का प्रयास किया जा रहा है। पिछले दशक में शुरू हुई स्वास्थ्य सेवा की वैश्विक लहर के प्रभाव आज अधिक व्यापक होते जा रहे हैं। उस वैश्विक लहर का लक्ष्य आम आदमी को बेहतर जीवन का लाभ पहुंचाना, इलाज के तरीकों और मरीजों के बीच बेहतर संबंध बनाना और कम कीमत में बेहतर इलाज मुहैया कराना था। एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि वैकल्पिक उपचार रोगी को जीवन का एक नया तरीका प्रदान करते हैं। इसलिए, रोगी स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होता है और खुद को स्वस्थ रखने के लिए दृढ़ संकल्पित होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में आम जनता अब प्राकृतिक चिकित्सा की ओर आकर्षित हो रही हैं। इस नई पद्धति को एकीकृत चिकित्सा कहा जा रहा है। आज दुनिया की एक बड़ी आबादी वैकल्पिक चिकित्सा की ओर आकर्षित है और इसके विस्तार के लिए नई नींव विकसित की जा रही है। कनाडा में 70 फीसदी, फ्रांस 75 फीसदी, ऑस्ट्रेलिया 45 फीसदी और अमेरिका 10 फीसदी इस तरीके को अपना रहे हैं। इसके अलावा, संयुक्त राज्य अमेरिका में, डीन ओर्निश ने जीवनशैली से संबंधित बीमारियों से बचने और जनता तक पहुंचने की व्यवस्था करने का एक नया तरीका तैयार किया है। तथ्य-आधारित शोध के माध्यम से, उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की है कि यदि किसी व्यक्ति की सात्विक और सकारात्मक भावनाएं जागृत होती हैं, तो हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर जैसी बीमारियों को प्रारंभिक अवस्था में नियंत्रित किया जा सकता है।

डीन ओर्निश ने अपने वैकल्पिक उपचारों को मान्य करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैन फ्रांसिस्को में निवारक चिकित्सा अनुसंधान संस्थान की स्थापना की। इस कार्य के लिए यूके में डॉ. जॉर्ज लोविथ ने उन्हें सर्वोत्तम चिकित्सा तकनीक विकसित करने में मदद की है। यदि हम अपनी प्राचीन चिकित्सा और पारंपरिक चिकित्सा के विशाल भंडार का उपयोग करना सीखें, तो इसका चिकित्सा के क्षेत्र पर बहुत बड़ा और दूरगामी प्रभाव हो सकता है। विश्व स्तर पर वैकल्पिक चिकित्सा को अपनाने की यह प्रवृत्ति दर्शाती है कि प्राचीन भारतीय चिकित्सा सर्वोत्तम है। आज दुनिया भर में कई चिकित्सक इस तथ्य को स्वीकार कर रहे हैं, कि उपचार के माध्यम से केवल स्वस्थ शरीर प्राप्त करना संभव नहीं है, लेकिन बीमारी के कारणों को संबोधित करके स्वस्थ जीवन की नींव को मजबूत करना संभव है। जब तक हमारे देश में, इस पद्धति और चिकित्सा के सिद्धांत को अपनाया जाता है, तब तक लोग स्वस्थ और खुश रहे।

लेकिन फिर जब इस देश में पश्चिमी चिकित्सा, एलोपैथी की शुरुआत हुई, तो हमारी प्राचीन चिकित्सा प्रणाली की उपेक्षा की गई और एक तरह का अवसाद पैदा हो गया। आज यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम अपनी प्राचीन चिकित्सा के अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हमारे देश में जब भी स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार करने के लिए ,जब एक योजना बनाई जाती है, तो आधुनिक चिकित्सा के लिए एक बड़ी राशि आवंटित की जाती है; लेकिन हमारी प्राचीन व्यवस्था का कोई ठोस समाधान नहीं है और न ही पर्याप्त वित्तीय प्रावधान। इसके लिए हमें अपने स्वास्थ्य के प्रति अधिक जागरूक होने की आवश्यकता है। इसके लिए हमारी प्राचीन और गौरवशाली चिकित्सा पद्धति को सार्वभौमिक रूप से स्वीकार करना आवश्यक है। हमें इसे अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाने की जरूरत है और यही स्वस्थ जीवन का सही आधार है। इसे स्वीकार करके ही हम खुश और स्वस्थ बन सकते हैं और स्वस्थ भारत की कल्पना को साकार कर सकते हैं। इसलिए हमें अपनी जीवनशैली को प्राकृतिक तरीके से विकसित करने की जरूरत है।