सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपाल नन्दनः

आरोग्य का अर्थ होता है, संपन्न बनना। अपनी शक्तीयो को बढ़ाकर योग्य उपयोग करना। आरोग्य का अर्थ केवल भौतिक शरिर से संपन्न होने तक सीमीत नहीं है। आरोग्य का सही अर्थ होता है, मानसिक संपदा, सामाजिक आरोग्य अर्थात (किर्ती, यश), और आत्मसमाधान इन चारों स्तर पर आरोग्य का स्थान रहना चाहिए। इसी कड़ी में महत्वपूर्ण और आरोग्य व्यवस्था का गर्भ है ‘प्राण’। इसी प्राण का रक्षण करना परम आवश्यक है। इसलिए हमे प्राण के विस्तार को यहां समझना होगा। इसलिए वेद, उपनिषद का आधार लेना महत्वपूर्ण है।
‘सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपाल नन्दनः इस संस्कृत मंत्र का अर्थ होता है, ‘श्रीभगवदगीता ही वेदो का सार है। तभी श्रीमद्भगवद्गीता मे आरोग्य से संबधीत मार्गदर्शन का समावेश तो स्वभाविक है। यह समस्त पूर्णमद पूर्णमिद का सार है। आरोग्य का सत्य विवेचन “श्रीगीता” जी में वर्णित हुआ है। हमारा शरिर आरोग्य की दृष्टी से प्रथम स्थान प्राप्त करता है, इस स्तर पर श्रीगीता जी का ज्ञान को आत्मभुत करना है, आत्मसात करना है। इसलिए “तत्त्वत:” और “निरंतर” अभ्यास यह दो महत्वपूर्ण स्थान है। इनका उल्लेख श्रीगीता जी मे आपको मिलेगा। इस लिए प्राणशक्ती को हमे समर्पित होना होगा। प्राण शक्ती को तत्वतः समझना होगा। आरोग्य प्राप्ती के लिए केवल जिम, उपवास, डाईट, प्रोटीन इन सब चिजो पर आरोग्य आधारित नहीं है। जीवन जीने के लिए ऊर्जा अर्थात् अन्न तो महत्वपूर्ण है।
इस अन्न ऊर्जा उदगम स्त्रोत श्री गीता जी के तिसरे अध्याय मे वर्णन किया है,
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।।३-१४।।
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।।३-१५।।
अन्न का अपना एक चक्र है। यही अन्न सुर्य से ऊर्जा ग्रहण कर यही ऊर्जा अन्न के रूप में सभी जीवों को उपलब्ध करायी जाती है। सुर्यशक्ती के अभाव मे जीवन शून्य है। यही ऊर्जा और शक्ती को अपनी मर्यादा तक इसे स्टोरेज किया जा सकता है। जैसे बॅटरी की अपनी सीमीत क्षमता होती हैं। बाद मे वह बॅटरी चॉर्जिग करनी होती है। यही सुर्यशक्ती, पेड-पैधा के रूप मे बॅटरी है, यह सुर्य शक्ती पेडो-पौधो वनस्पतीयो मे अन्न के रूप स्टोरेज हुई है। यही पेड-पौधे वनस्पती यही स्टोरेज किया हुआ अन्न सब मानव जाति को उपलब्ध कराते है। पेड पौधे, वनस्पति हमारे पूर्वज है। इसलिए उन्हें धन्यवाद किया जाना चाहिए। उनका आदर-सत्कार अवश्य होना चाहिए। पेड पौधों उपकारक है। यही वनस्पती अपने अन्न को किस प्रकार तैयार करती है? यह गुढ़ रहस्य तो है ही! मानव जीवन वनस्पतीयो पर आधारित है, जीवन में मुख्य है श्वास। वनस्पती केवल श्वास तक सिमित नहीं है, यह हमे औषधी भी उपलब्ध कराती है। इस लिए आयुर्वेदिक औषधीयाँ अन्न के समान सेवन कि जा सकती है।
आयुर्वेद का विज्ञान उस कॉसमिक मेडीसीन पर काम करता है, सुर्य से प्राप्त कि हुई जिवनी शक्ती, वनस्पतीयो मे संग्रहीत कि हुई सुर्य शक्ती को ज्यादा से ज्यादा कैसे उपयोग में लेवे इसलिए आयुर्वेद मे गुटी, वटी, भस्मे, आसव और अरिष्ट जैसी विधी को सेवन करने का महत्व है। आयुर्वेद में माँ प्रकृती को धन्यवाद करने के भाव को सबसे उच्च स्थान प्राप्त है। च्यवनप्राश यह उत्कृष्ठ उदाहरण है। प्रकृती कुछ समय तक ही आंवला को उपलब्ध कराती है। आंवला के भीतर की शक्ती, रसायन के द्वारा हम साल भर स्वाद ले सकते है। इसी कारण वश च्ववनप्राश बनाया जाता है। यही एक तरिका है उस सुर्यशक्ती को ग्रहण करने का ! यही सुर्यशक्ती हमे तारुण्य, उत्साह प्रदान करती है। जीवन को जीना ही मनुष्य काम कर्म है। मनुष्य ने कर्म की सीमाओ का उल्लंघन नही करना चाहिए। निसर्ग, प्रकृती शक्ती के नाश को हमें रोकना है। पेड़, पौधे, वनस्पतीयो को यही नहीं नष्ट करने का कार्य चलता रहे तो उस सुर्यशक्ती का अन्न में कैसे रूपांतर होगा??
हरित क्रांति के बाद अंग्रीकल्चर इंडस्ट्री मे आमुलाग्र बदलाव देखे जा चुके है। खेती मे रासायनिक खाद, औषधी का उपयोग बढ़ने लगा। खेती शास्त्र पुर्णतः इन चिजो पर आधारीत है। धरती के भीतर की उष्णता को अनेकों प्रकार से बढ़ाया जा रहा है, जिस वायु पर जिवन आधारित है, उस प्राण वायु को दुषित करने का कृत्य मानव द्वारा ही संपन्न किया जा रहा है।
इसी प्राण की कमतरता के अभाव से अनेक रोगो का प्रादुर्भाव बढ़ रहा है। रोग उत्पन्न हो रहे हैं। कर्म करना जीवन का मर्म है। माँ प्रकृती के अनुकुल कर्म करना इसी कर्म को यज्ञ कहते है। यही यज्ञ पुण्ययज्ञ में परिवर्तीत होता है। इस यज्ञ पर वर्षा बारिश आधारीत होती हैं। वर्षा ऋतु का असमतोल बड़े संकट का कारण है। इंड्रस्टी से वेस्टेज वॉटर जब खेती में डाला जाता है, यह अन्न विष का रूप धारण करने लगता है। विषयुक्त अन्न का संक्षिप्त वर्णन श्रीमद्भगवत गीता में हुआ है। इस अन्न का त्याग करना चाहिए। श्री गीताजी मे अन्न को तीन भागों में विभाजीत किया है,
- सात्विक
- राजसिक
- तामसिक
इन तिनो मे किसी एक अन्न का सेवन करने पर उसी प्रकार की प्रकृती बनती है। अन्न द्वारा प्रकृती निर्माण कार्य संपन्न होता है। इन तीनों प्रकृती को आगे वात, पित्त, कफ मे विभाजीत किया है। इसलिए अन्न को आदर के साथ ग्रहण किया जाना उत्तम है। अति सेवन का त्याग करना उचित है। मनुष्य के शरिर प्रकृती को आरोग्य, वीर्यशक्ती, ऊर्जा को बढ़ाने वाला रसयुक्त अन्न शरिर की सात्विकता बढ़ाते हैं। इस अन्न से सकारात्मक शक्ती बढ़ाती हैं। मसाला युक्त, अति कड़वा, अति तीखा, गरम, सुखा अन्न रोग उत्पत्ती बढ़ता है। यह अन्न राजसिक है। और आलस्य से पूर्ण, बासा अन्न तामसिक हैं। इसी प्रकार से गीता, उपनिषिद, वेदों में आरोग्य मार्गदर्शन किया है। श्री गीता जी में मानसिक शांती के उपर विशेष ध्यान दिया है। मानसिक स्वास्थ को संतुलित रखने के लिए,
ॐ इति एकाक्षरे ब्रम्ह व्याहरन् ‘
प्रणव को ही, महर्षी पतंजलि ने सुत्रमे बताया है,
ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ॥
ईश अनुग्रह द्वारा हम अपनी बाधाओं को दूर कर सकते है । यह कुछ ही शब्द मे आपको समझाने कि कोशीश हो रही है। विघ्न बाधा, रोग, नकारात्मकता अगर है, तो उसे किस प्रकार से दूर किया जाना चाहिए? नकारात्मक तत्व को दूर करने के लिए आपने कौन सी अच्छी आदतो का स्वीकार किया जाना चाहिए? इसलिए हमे सोचना है, मै चाहता क्या हूँ? इस लिए भगवद् गीता वह माध्यम है, जो आपकी उंगली पकड़कर चलना सिखाती है। आपको समय समय पर मार्गदर्शन देती है। भारतीय शास्त्र अपने आप मे समृद्ध एंवम सुमेरु पर्वत है। जहाँ ज्ञान की गंगा सतत बहती है। सभी प्राचिन भारतीय शास्त्र ही एक दुसरो के पुरक रहते है। आयुर्वेद यह जीवन शाखा है, इसलिए उसकी मुख्य तत्वो का स्विकार सभी शास्त्रो में किया जाता है।
योग और आयुर्वेद की यह जोडी प्रचलित हैं। पर न्यायशास्त्र, सांख्य दर्शन, वैशेषिक दर्शन यह सभी दर्शन शास्त्र आयुर्वेद शास्त्र से साम्य साधर्म रखते है। भारत वर्ष की पहचान ही श्रीमद् भगवद गीता है। जो पूर्ण ब्रम्हाण्ड को मागदर्शन करती है। यह प्रदर्शन भारत के ज्ञान का हैं। इसलिए भारत जगद्गुरू है। आयुर्वेद मे एक विशिष्ट संकल्पना है वह है अग्नी’।अग्नी केवल अन्न पाचन का कार्य ही नहीं करती अपितु शारिरिक और मानसिक आरोग्य को शक्ती प्रदान करती है।
आचार्य चरकजी, ने अग्नी की महता का बखान किया है,
आयुर्वर्णो बलं स्वास्थं उत्साहोपचयौ प्रभा ।
ओजस्तेजोग्नयः प्राणाः चोक्ता देहाग्निहेतुकाः ।।
शान्तेऽग्नौ म्रियते युक्ते चिरं जीवत्यनामये ।।…चरक
आयु, बल, स्वास्थ, उत्साह, उत्तम शरिर सहनन, आभा, ओजस का अर्थ है’ सर्वश्रेष्ठ शरिरशक्ती तेज इन सभी का मूल तत्व है’ अग्नी’
यही अग्नी अगर बुझ गयी तो वह है’ मृत्यु’। उत्तम अग्नी निरामय आयुष्य का आधार है।
अग्निं रक्षेत प्रयत्नतः ।
आयुर्वेद के अनेक संहिता मे उल्लेख हुआ है, हमे अग्नि का रक्षण संरक्षण करना होगा।
भगवत गीता और अग्नि।

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।। ..(15_14)
इस श्लोक के माध्यम से भगवान अपना बोध कराते हैं। भगवान मनुष्य अथवा अन्य जीवों में स्वयं अग्नी रूप मे वास करते है। प्राण अपान की सहायता से चतुर्विध अन्न का पाचन करते हैं। इसलिए यह महत्वपूर्ण है, की आप अन्न को किस भावना से ग्रहण करते हैं। क्युकी यह केवल अन्न नहीं है, यह ऊर्जा है। यह साधना है, अन्नमय कोश की। जिस पर आपका मुलाधार चक्र गतिमान होता है। इस लिए अन्न को’ पूर्णब्रम्ह’ का दर्जा प्राप्त है।
तत्राग्निहेतुः आहारात् न हि अपक्वाद् रसादयः ।।
चरक चिकित्सास्थान
अग्नि को प्रदिप्त रखना है, तो आहार को योग्य करना होगा। आहार ही दुषित होगा तो आग्नि उस दुषित अन्न को कैसे पचा सकेगा? उस अन्न से कैसे शरिर का पोषण होगा? इसी कारण से रोगप्रतिरोधक क्षमता विकसित नहीं हो पाती है। आरोग्य दिर्घकाल तक संरक्षित रखने के लिए पाचन योग्य होना अनिवार्य है। आयुर्वेद शास्त्र मे 13 अग्नी बताई है। जिसमे जठराग्नी महत्वपूर्ण है। जठराग्नी आधार है, अन्य अग्नी का। जैसे जठराग्नी उत्तम है तो अन्य अग्नी भी उत्तम रहती है।
1. जठराग्नी :- जठर मे छोटी आंत की सुरुवात मे राह अग्नी सेवन किए गए अन्न का पाचन करता है ।
2. धात्वाग्नी – यह संख्या में सांत है। हर एक धातु का आपना अग्नी है। इसी माध्यम से शरिरमे सात धातु योग्य प्रमाण मे तैयार होते है।
3. भूत्वाग्नी :
यह पाँच है। पार्थिवाग्नी यह आहार के पार्थिव भाग का पाचन करता है। आप्याग्नी आहार में स्थित जल का पाचन का कार्य करता है। और प्रत्येक महाभूत, अग्नी स्वयं ही गुणो से युक्त आहार पाचन का कार्य करता है। जठारग्नि और भूताग्नि से के व्दारा आहार का योग्य प्रकार से पाचन होने पर उस आहार का रूपांतर तेजोमय, परम सुक्ष्म और आहार का सारस्वरूप होता है।
मानवी शरिर मे हर एक स्वतंत्र इन्द्रिय, स्वतंत्र पेशी को पोषित करने वाले गुण होते है। आहार रस हमारे हदय से संपुर्ण शरिर में प्रवाहित होता है। इसलिए हृदय महत्वपूर्ण स्थान पर आरूढ है। इसी स्थान से शरिर धातु की पुर्ती करता है, और शरिर धारण होता है। यह आहार रस हृदय से संपूर्ण शरिर में प्रवाहित करने की जिम्मेदार व्यान वायु पर होती है। व्यान वायुका स्थान संपूर्ण शरिर मे होता है, इसलिए व्यान वायु आहार रस सूक्ष्म से सूक्ष्म पेशी तक अखण्ड प्रवाह से प्रवाहित होता रहता है।
मन और आरोग्य

आरोग्य को संभालना है तो मन को नियंत्रित करना आवश्यक है। आयुर्वेद मे मन के गुण अवयव का बखान किया है। जिस प्रकार शरिर प्रकृती होती है, उसी प्रकार से मन की प्रकृती आधारित होती है। प्रकृती को संभालना सत्व, रज, तम व तत्वो पर मानसिक प्रकृती का चयन होता है।
सत्त्वं प्रकाशकं विद्धि रजश्चापि प्रवर्तकम् ।
तमो नियामकं प्रोक्तं अन्योन्यमिथुनप्रियम् ।। काश्यपसंहिता
सत्व गुण में ज्ञान प्रकाश का उद्रेक होता है। सत्व गुण के अधिपत्य से वस्तु का यथार्थ स्वरूप का ज्ञान करता है। रज गुण गती, प्रवृत्त करने का कार्य करता है तो, तमगुण नियंत्रण प्रदाता होता है। इन तीनो गुणो का समन्वय ही उत्तम आरोग्यका प्रतिक है। सत्व गुण मन का होता है। इसी लिए सात्विक मन रहना शरिर और मन संतुलन के लिए उत्तम है।
त्रिविधं सत्त्वमुद्दिष्टं कल्याणक्रोधमोहजम् ।
श्रेष्ठमध्याधमत्वं च तेषां प्रोक्तं यथाक्रमम् ॥
.काश्यपसंहिता लक्षणाध्याय.
कल्याण अंश से युक्त मन सात्विक श्रेष्ठ माना जाता है। क्रोध युक्त मन रजसिक है, तो मोहयुक्त मन तामसिक है। अनिश्चितता, निर्णय नही ले पाना तामसिकता प्रधान होता है।
सात्विक गुण
सात्त्विकास्तु आनृशंस्यं संविभागरुचिता तितिक्षा सत्यं धर्म आस्तिक्यं ज्ञानं बुद्धिमेंधा स्मृतिधृतिरनाभिषड्श्च।।
..सुश्रुत शारीरस्थान
सात्विक मन संकल्प शक्ती से ओतप्रोत रहता है। संकल्प शक्ती सद्बुध्दी प्रदाता है। दिव्य गुणो का स्फुरण सत्व गुण का लक्षण है। सत्व गुण का अर्थ होता निर्णय लेने में तत्परता, योग्य लक्ष्य निर्धारण रखना, दृढ निश्चयी यह सब योग्यता का पात्र होता है। सकारात्मक सोच का परिणाम हर विपरित स्थितीमे संतुलन बनाए रखता है।
राजसिक गुण
सात्त्विकास्तु आनृशंस्यं संविभागरुचिता तितिक्षा सत्यं धर्म आस्तिक्यं ज्ञानं बुद्धिर्मेधा स्मृतिधृतिरनाभिषड्श्च ।
..सुश्रुत शारीरस्थान
राजसिक भाव की वृत्ति वाले मनुष्य मे चंचलता बनी रहती है। योग्य निर्णय लेने में अनिश्चितता बनी रहती है। इन मनुष्यो में क्रोध अधिक होता है संयम,धैर्य शक्ती की कमी होती है।
तामसिक गुण
दुःखबहुलताऽटनशीलताऽधृतिरहङ्कार आनृतिकत्वमकारुण्यं दम्भो मानो हर्षः कामः क्रोधश्च ।
इन व्यक्तियो मे नैराश्य, डिप्रेशन चरम सिमा पर होता है। आलस्य, प्रमादी बनना, आलस्ययुक्त दिनचर्या के धनी यह व्यक्ती होते है।
श्री मद्भगवतगीता में तीनो प्रकृती का वर्णन :

आयुःसत्त्वबलारोग्य-सुखप्रीतिविवर्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ।।(17_8)
अपनी क्षमता से पूर्ण आहार का सेवन करना, सात्विकता को अखण्ड रखने को (स्थिर आहार) कहा है। स्थिर आहार शरिर मे बल, बुध्दी, मेधा, आरोग्य, की प्राप्ती कराने वाला होता है।
कट्वम्ल-लवणात्युष्ण तीक्ष्ण-रूक्ष-विदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ।।
(17_8)
तिखा, कड़वा, अति कशैला, तीक्ष्ण आहार शरिर मे चंचलता, दुःख रोग कारक होता है।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ।।(17_10)
आधा कच्चा रस मुक्त, दुर्गन्ध युक्त बासा भोजन अपवित्र है। उसका त्याग करना ही योग्य है।
आयुर्वेद और गीता का दिव्य समन्वय ज्ञान है। इस ज्ञान की जरूरत है, जीवन मे इस ज्ञान को पूर्णत जीने की आयुर्वेद यह शक्ती है, तो भगवद गीता गुरु मण्डल है, इन दोनो का समन्वय ही. परम शिव तत्व की प्राप्ती है। अन्तमे हमे एक ही संदेश प्राप्त होता है, “योगस्थ गुरु कर्माणि”। हमारे सब दुखो का कारण एक ही है। हमारा स्वयं पर का विश्वास अविश्वास में परिवर्तित हुआ है। हमे अपनी शक्तिया ज्ञात नही है। हम उलझे हुए रहते हैं। भगवत गीता यह हमे ज्ञान प्रदान करती है जो भीतर तमोगुण हैं, उस तमोगुण पर रजोगुण से अंकुश रखा जाए। रजोगुण पर सत्व गुण से अंकुश रखा जाए। परम् पुरूषार्थ यही हैं सत्व गुण पर आध्यात्म से जीता जाए। हमारा स्वरुप ज्योर्तिमय है। हम वस्तु से, किसी कारण से जहा है, वह वस्तु स्थिति नही हैं। हमे खोज करनी है मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? सबसे पहले हम एक दिव्य ज्योति है। फिर हमारा शरीर पांच तत्वों से बनकर एक आकार और स्वरुप धारण करने लगता हैं। फिर हम प्राण बनकर उभर आते हैं। हमारे भीतर का वातावरण हमे प्राण वायु देकर तुष्ट और पुष्ट करता है, हम चेतनामय बनते जाते हैं। पृव्थि से बीज , बीज का पौधा जब धरती को चीर कर प्रकाश की ओर बढ़ता जाता है। वह अमृतस्य भोजन का अधिकारी बन जाता हैं। वह ऊर्जा अन्न रूप धारण कर धरती से प्रसाद बनकर ग्रहण करने योग्य बन जाता हैं।वह उस तपस्या का फल स्वरुप होता हैं। वह ऊर्जा रूपी अन्न शरीर में जाकर रस बनकर हमे ओज, बल से परिपूर्ण करता है, अन्न ही औषधि बन जाता है।